नमस्कार दोस्तो आज हम आपको शिवपुराण रुद्र संहिता के सती खण्ड के बारेमे बताने वाले है |
दोस्तों रुद्र संहिता मे दूसरा खंड है सती खण्ड और सती खण्ड के अध्याय 1 से लेकर अध्याय 4 तक की जानकारी हम आपको बताने वाले है |
अध्याय 1 –
रूद्र संहिता द्वितीय(सती) खण्ड
*नारदजी के प्रश्न और ब्रह्माजी के द्वारा उनका उत्तर, सदाशिव से त्रिदेवों की उत्पत्ति तथा ब्रह्माजी द्वारा देवताओं आदि की स्रष्टि के पश्चात एक नारी और एक पुरूष का प्राकट्य*
नारद जी बोले –
महा भाग! विधात! आपके मुखारविंद से मंगल कारिणी शंभू कथा सुनते सुनते मेरा जी नहीं भर रहा है। अतः भगवान शिव का सारा शुभ चरित्र मुझसे कहिए। विश्व की सृष्टि करने वाले ब्रह्मदेव मैं सती की कीर्ति से युक्त शिव का दिव्य चरित्र सुनना चाहता हूं। शोभाशालिनी सती किस प्रकार दक्ष पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुई? महादेव जी ने विवाह का विचार कैसे किया? पूर्व काल में दक्ष के प्रति रोष होने के कारण सती ने अपने शरीर का त्याग कैसे किया? चेतनाकाश को प्राप्त हो कर वह हिमालय की कन्या कैसे हुई? पार्वती ने किस प्रकार उग्र तपस्या की और कैसे उनका विवाह हुआ? कामदेव का नाश करने वाले शंकर के आधे शरीर में भी किस प्रकार स्थान पा सकीं? महामते! इन सब बातों को आप विस्तार पूर्वक कहिए। आपके समान दूसरा कोई संशय का निवारण करने वाला न है, न होगा।
ब्रह्मा जी ने कहा –
मुने! देवी सती और भगवान शिव का शुभ यश परम पावन दिव्य तथा गोपनीय से भी अत्यंत गोपनीय है। वह सब तुम मुझसे सुनो। पूर्व काल में भगवान शिव निर्गुण, निर्विकल्प, निराकार, शक्ति रहित, चिन्मय तथा सत और असत से विलक्षण स्वरूप में प्रतिष्ठित थे। फिर वही प्रभु सगुण और शक्तिमान होकर विशिष्ट रूप धारण करके स्थित हैं। उनके साथ भगवती उमा विराजमान थी। वे भगवान शिव दिव्य आकृति से सुशोभित हो रहे थे। उनके मन में कोई विकार नहीं था। वे अपने परात्पर स्वरूप में प्रतिष्ठित थे। मुनी श्रेष्ठ! उनके बाएं अंग से भगवान विष्णु, दाएँ से मैं ब्रह्मा और मध्य अंग अर्थात ह्रदय से रूद्र देव प्रकट हुए। मैं ब्रह्मा सृष्टि करता हुआ, भगवान विष्णु जगत का पालन करने लगे और स्वयं रूद्र ने संहार का कार्य संभाला। इस प्रकार भगवान सदाशिव स्वयं ही तीन रूप धारण करके स्थित हुए। उन्हीं की आराधना कर के मुझ लोकपितामह ब्रह्मा ने देवता, असुर और मनुष्य आदि संपूर्ण जीवन की सृष्टि की। दक्ष और प्रजापतिओं और देव शिरोमणिओं की सृष्टि करके मैं बहुत प्रसन्न हुआ तथा अपने को सबसे अधिक ऊंचा मानने लगा।
अध्याय 2 –
मुन्ने! जब मरीचि, अत्रि, पूलह, पुलस्त्य, अंगिरा, क्रतु, वशिष्ठ, नारद, दक्ष और भृगु- इन प्रभावशाली मानस पुत्रों को मैंने उत्पन्न किया, तब मेरे ह्रदय से अत्यंत मनोहर रूप वाली एक सुंदरी नारी उत्पन्न हुई जिसका नाम संध्या था। वह दिन में क्षीण हो जाती परंतु सांयकाल में उसका रूप सौंदर्य खिल उठता था। वह मूर्ति मय सांय संध्या ही थी और निरंतर किसी मंत्र का जाप करती रहती थी। सुन्दर भौहोंवाली वह नारी सौंदर्य की चरम सीमा को पहुंची हुई थी और मुन्नियों के भी मन को मोह लेती थी।
इसी तरह मेरे मन से एक मनोहर पुरुष भी प्रकट हुआ जो अत्यंत अदभुत था। उसके शरीर का मध्य भाग कटी प्रदेश पतला था। दांतो की पंक्तियां बड़ी सुंदर थी। उसके अंगों से मतवाले हाथी की सी गंध प्रकट होती थी। नेत्र के प्रफुल्ल कमल के समान शोभा पाते थे। अंगों में केसर लगा था जिसकी सुगंध नासिका को तृप्त कर रही थी। उसको देखकर दक्ष आदी मेरे सभी पुत्र अत्यंत उत्सुक हो उठे। उनके मन में विस्मय भर गया था। जगत की सृष्टि करने वाले मुझ जगदीश्वर ब्रह्मा की ओर देख कर उस पुरुष ने विनय से गर्दन झुका दी और मुझे प्रणाम करके कहा ।
वह पुरुष बोला –
ब्राह्मन! मैं कौन सा कार्य करूंगा? मेरे योग्य जो काम हो उसमें मुझे लगाइए; क्योंकि विधाता! आज आप ही सबसे अधिक माननीय और योग्य पुरुष हैं। यह लोक आप से ही शोभित हो रहा है।
ब्रह्मा जी ने कहा –
भद्र पुरुष तुम इसी रूप से तथा फूल के बने हुए 5 बाणों से स्त्रियों और पुरुषों को मोहित करते हुए सृष्टि के सनातन कार्य को चलाओ। इस चराचर त्रिभुवन में यह देवता आदि कोई भी जीव तुम्हारा तिरस्कार करने में समर्थ नहीं होंगे। तुम छिपे रूप से प्राणियों के ह्रदय में प्रवेश करके सदा स्वयं उनकी सुख का हेतु बनकर सृष्टि का सनातन कार्य चालू रखो। समस्त प्राणियों का जो मन है वह तुम्हारे पुष्पमय बाण का सदा अनायास ही अद्भुत लक्ष्य बन जाएगा। और निरंतर उन्हें मदमस्त किए रहोगे। यह मैंने तुम्हारा कार्य बताया है जो सृष्टि का प्रवर्तक होगा और तुम्हारे ठीक ठीक नाम क्या होंगे इस बात को मेरे यह पुत्र बताएंगे।
सुर श्रेष्ठ ऐसा कह कर अपने पुत्रों के मुख्य की ओर दृष्टिपात करके मैं क्षण भर के लिए अपने कमलमय आसन पर चुपचाप बैठ गया।
अध्याय 3 –
कामदेव के नामों का निर्देश, उसका रति के साथ विवाह तथा कुमारी संध्या का चरित्र- वशिष्ठ मुनि का चंद्र भाग पर्वत पर उसको तपस्या की विधि बताना*
ब्रह्मा जी कहते हैं –
मुन्ने! तदन्नतर मेरे अभिप्राय को जानने वाले मरीचि आदि मेरे पुत्र सभी मुनियों ने उस पुरुष का उचित नाम रखा। दक्ष आदि प्रजापतिओं ने उसका मुंह देखते ही परोक्ष के भी सारे वृतांत जानकर उनके लिए स्थान और पत्नी प्रदान की। मेरे पुत्र मरीचि आदि द्विजों ने उस पुरुष के नाम निश्चित करके उससे यह युक्तियुक्त बात कही।
ऋषि बोले –
तुम जन्म लेते ही हमारे मन को भी मथने लगे हो। इसलिए लोक में मन्मथ नाम से विख्यात होंगे। मनोभव! तीनों लोकों में तुम इच्छा अनुसार रूप धारण करने वाले हो, तुम्हारे समान सुंदर दूसरा कोई नहीं है, कामरूप होने के कारण तुम काम नाम से भी विख्यात हो। लोगों को मदमत् बना देने के कारण तुम्हारा एक नाम मदन होगा। तुम्हें बड़े दर्प से उत्पन्न हुए हो इसलिए दर्पक कहलाओगे और संर्दप होने के कारण ही जगत में कंदर्प नाम से भी तुम्हारी ख्याती होगी। समस्त देवताओं का सम्मिलित बल पराक्रम भी तुम्हारे साथ समान नहीं होगा। अतः सभी स्थानों पर तुम्हारा अधिकार होगा, सर्वव्यापी होगे। जो आदि प्रजापति हैं वे ही यह पुरुषों में श्रेष्ठ दक्ष तुम्हारी इच्छा के अनुरूप पत्नी स्वयं देंगे। वह तुम्हारी कामिनी अनुराग रखने वाली होगी।
ब्रह्मा जी ने कहा –
मुने! तदन्नतर मैं वहां से अदृश्य हो गया। इसके बाद दक्ष मेरी बात का स्मरण करके कंदर्प से बोले- कामदेव मेरे शरीर से उत्पन्न हुई मेरी यह कन्या सुंदर रूप और उत्तम गुणों से सुशोभित है। इसे तुम अपनी पत्नी बनाने के लिए ग्रहण करो। यह गुणों की दृष्टि से सर्वथा तुम्हारी योग्य है। महातेजस्वी मनोभव! यह सदा तुम्हारे साथ रहने वाली और तुम्हारी रूचि के अनुसार चलने वाली होंगी। धर्मतः यह सदा तुम्हारी अधीन रहेगी।
ऐसा कहकर दक्ष ने अपने शरीर के पसीने से उत्पन्न उस कन्या का नाम रति रख कर उसे अपने आगे बैठाया और कंदर्प को संकल्पपूर्वक सौंप दिया। नारद! दक्ष की वह पुत्री रति बड़ी रमणीय और मुनियों के मन को भी मोह लेने वाली थी। उसके साथ विवाह करके कामदेव को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। अपनी रती नामक सुंदरी स्त्री को देखकर उसके हाव-भाव आदि से अनुरंजीत हो कामदेव मोहित हो गया। तात उस समय बड़ा भारी उत्सव होने लगा जो सब के सुख को बढ़ाने वाला था। प्रजापति दक्ष इस बात को सोचकर बड़े प्रसन्न थे कि कि मेरी पुत्री इस विवाह से सुखी है। कामदेव को भी बड़ा सुख मिला। उसके सारे दुख दूर हो गए। दक्ष कन्या रती भी कामदेव को पाकर बहुत प्रसन्न हुई।
जैसे संध्या काल में मनोहारिणी विद्युन्माला के साथ मेघ शोभा पाता है, उसी प्रकार रती के साथ प्रिय वचन बोलने वाला कामदेव बड़ी शोभा पा रहा था। इस प्रकार रती के प्रति भारी मोह युक्त रतिपति कामदेव ने उसे उसी तरह अपने ह्रदय के सिंहासन पर बैठाया, जैसे योगी पुरुष योग विद्या को ह्रदय में धारण करता है। इसी प्रकार पूर्ण चंद्रमुखी रति भी उस श्रेष्ठ पति को पाकर उसी तरह सुशोभित हुई, जैसे श्री हरि को पाकर पूर्णचन्द्रानना लक्ष्मी शोभा पाती हैं।
सूतजी कहते हैं –
ब्रह्मा जी का यह कथन सुनकर मुनि श्रेष्ठ नारद मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए। भगवान शंकर का स्मरण करके हर्षपूर्वक बोले- महाभाग! विष्णुप्रिय! महामते! आपने चंद्रमौली शिव की ये अद्भुत लीला कही है। अब मैं यह जानना चाहता हूं कि विवाह के पश्चात कामदेव प्रसन्नता पूर्वक अपने स्थान को चला गया। दक्ष भी अपने घर को पधारे आप और आप के मानस पुत्र भी धाम को चले गए। पितरों को उत्पन्न करने वाली ब्रह्मा कुमारी संध्या कहां गई? उसने क्या किया और किस पुरुष के साथ उसका विवाह हुआ? संध्या का यह सब चरित्र विशेष रूप से बताइए।
ब्रह्मा जी ने कहा –
मुने! संध्या का वह सारा शुभ चरित्र सुनो। जिसे सुनकर समस्त कामिनियां सदा के लिए सती साध्वी हो सकती हैं। वह संध्या मेरी मानस पुत्री थी। तपस्या करके शरीर को त्याग कर मुनिश्रेष्ठ मेधातिथि की बुद्धि मती पुत्री होकर अरुन्धती के नाम से विख्यात हुई। उत्तम व्रत का पालन करके उस देवी ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर के कहने से श्रेष्ठव्रत धारी महात्मा वसिष्ठ को अपना पति चुना। वह सौम्य स्वरूप वाली देवी और सबकी पूजनीया श्रेष्ठ पतिव्रता के रूप में विख्यात हुई।
नारद जी ने पूछा –
भगवन! संध्या ने कैसे, किस लिए और कहां तप किया? किस प्रकार शरीर त्यागकर वे मेधातिथि की पुत्री हुई? ब्रह्मा, विष्णु और शिव देवताओं की बताई हुई बात के अनुसार कैसे श्रेष्ठ व्रतधारी महात्मा वशिष्ठ को उसने अपना पति बनाया? पितामह मैं यह सब विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ। अरुन्धती के इस कोतुहल पूर्ण चरित्र का आप यथार्थ रूप से वर्णन कीजिए।
अध्याय 4 –
ब्रह्मा जी ने कहा –
मुने! संध्या के मन में एक बार सकाम भाव आ गया था। इसलिए उसे साध्वी ने यह निश्चय किया कि वैदिक मार्ग के अनुसार में अग्नि में अपने इस शरीर की आहुति दे दूंगी। आज से इस भूतल पर कोई भी देहधारी उत्पन्न होते ही इस कामभाव से युक्त न हो, इसके लिए मैं कठोर तपस्या करके मर्यादा स्थापित करूंगी। तरुणाअवस्था से पूर्व किसी पर भी काम का प्रभाव नहीं पड़ेगा, ऐसी सीमा निर्धारित करूंगी। बाद इस जीवन को त्याग दूंगी।
मन ही मन ऐसा विचार करके संध्या चंद्रभाग नामक उस श्रेष्ठ पर्वत पर चली गई, जहाँ से चंद्रभागा नदी का प्रादुर्भाव हुआ है। मन में तपस्या का दृढ़ निश्चय ले संध्या को श्रेष्ठ पर्वत पर गई हुई जान मैंने अपने समीप बैठे हुए वेद वेदांगो के पारंगत विद्वान,सर्वज्ञ, जीतात्मा एवं ज्ञान योगी पुत्र वशिष्ठ से कहा- बेटा वशिष्ठ! मनस्विनी संध्या तपस्या की अभिलाषा से चंद्र भाग नामक पर्वत पर गई है। तुम जाओ और उसे विधि पूर्वक दीक्षा दो। तात! वह तपस्या के भाव को नहीं जानती है। इसलिए जिस तरह तुम्हारे यथोचित उपदेश से उसे अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति हो सके,वैसा प्रयत्न करो।
नारद! मैंने दया पूर्वक उस जब वशिष्ठ को इस प्रकार आज्ञा दी तब वे जो आज्ञा कहकर एक तेजस्वी ब्रहमचारीके रूप में संध्या के पास गए। चंद्र भाग पर्वत पर एक देव सरोवर है, जो जलाशयोचित गुणों से परिपूर्ण हो मानसरोवर के समान शोभा पाता है। वशिष्ठ ने उस सरोवर को दिखा उसके तट पर बैठी हुई संध्या पर भी दृष्टिपात किया। कमलों से प्रकाशित होने वाला वह सरोवर तट पर बैठी हुई संध्या से उपलक्षित हो उसी तरह सुशोभित हो रहा था जैसी प्रदोष काल में उदित हुए चंद्रमा और नक्षत्रों से युक्त आकाश शोभा पाता है। सुंदर भाव वाली संध्या को वहां बैठी देख मुनि ने कौतूहल पूर्वक उस बृहलोहित नाम वाले सरोवर को अच्छी तरह देखा। उसी प्रकाराभूत पर्वत के शिखर से दक्षिण समुद्र की ओर जाती हुई नदी का भी उन्होंने दर्शन किया। जैसे गंगा हिमालय से निकलकर समुद्र की ओर जाती है, उसी प्रकार चंद्रभाग के पश्चिम में शीखर का भेदन करके वह नदी समुद्र की ओर जा रही थी। चंद्र भाग पर्वत पर बृहलोहित सरोवर के किनारे बैठी हुई संध्या को देखकर वसिष्ठ ने आदर पूर्वक पूछा।
वशिष्ट बोले –
भद्रे! तुम इस निर्जन पर्वत पर किस लिए आई हो? किसकी पुत्री हो और तुमने यहां क्या करने का विचार किया है? मैं यह सब सुनना चाहता हूं। यदि छिपाने योग्य बात नहीं हो तो बताओ।