rudra sanhita: नमस्कार दोस्तों आज हम आपको शिवपुराण रुद्र संहिता के अध्याय 18 से लेकर अध्याय 20 तक की जानकारी देने वाले है |
शिवपुराण के इस अध्याय को पूरा जरुर पढ़ीये |
अध्याय 18 –
नारद! पहले के पद्म काल की बात है –
मुझ ब्रह्मा के मानस पुत्र पुलस्त्य से विश्रवा का जन्म हुआ और विश्रवा के पुत्र वैश्रवण (कुबेर) हुए। उन्होंने पूर्व काल में अत्यंत उग्र तपस्या के द्वारा त्रिनेत्र धारी महादेव की आराधना करके विश्वकर्मा की बनाई हुई इस अलकापुरी का उपभोग किया। जब वह कल्प व्यतीत हो गया मेघवाहन कल्प आरंभ हुआ इस समय वह यज्ञ दत्त का पुत्र प्रकाश का दान करने वाला था , अत्यंत कठोर तपस्या करने लगा।
दीपदान मात्र से मिलने वाली शिव भक्ति के प्रभाव को जानकर वह शिव की चित्प्रकाशिका काशीकापूरी में गया। और अपने चित रूपी रत्नों में 11 रूद्रों को उद्भोदित करके भक्ति एवं स्नेह संपन्न हो वह तन्मयता पूर्वक शिव के ध्यान में मगन हो निश्चल भाव से बैठ गया। जो शिव की एकता का महान पात्र है, अग्नि से बड़ा काम क्रोध आदि महाविध्नरूपी आघात से शून्य है। प्राण निरोध रूपी वायु शून्य स्थान मे निश्चल भाव से प्रकाशित है। निर्मल दृष्टि के कारण स्वरूप से भी निर्मल है तथा सद्भाव रुपी पुष्पों से जिसकी पूजा की गई है, ऐसे शिवलिंग की प्रतिष्ठा कर कि वह तब तक तपस्या में लगा रहा जब तक उसके शरीर में केवल अस्थि और चर्म मात्र ही अवशिष्ट नहीं रह गए। इस प्रकार उसने 10000 वर्षों तक तपस्या की। तद अंतर पार्वती देवी के साथ भगवान विश्वनाथ कुबेर के पास आए। प्रसन्न चित्त से अलकापति की ओर देखा। वे शिवलिंग में मन को एकाग्र करके काठ की भांति स्थिर भाव से बैठे थे। भगवान शिव ने उनसे कहा-अलकापते मैं वर देने के लिए उद्यत हूं अपना मनोरथ बताओ।
यह वाणी सुनकर तपस्या के धनी कुबेर ने आंखें खोल कर देखा- भगवान श्री कंठ सामने खड़े दिखाई दिए। वे उदय काल के सहस्त्र सूर्य से भी अधिक तेजस्वी थे उनके मस्तक पर चंद्रमा अपनी चांदनी बिखेर रहे थे। भगवान शंकर की तेज से उनकी आंखें चौंधिया गई।
अध्याय 19 –
उनका तेज प्रतिहत हो गया और वे नेत्र बंद करके मनोरथ से भी परे विराजमान देवदेवेश्वर शिव से बोले- नाथ! मेरे नेत्रों को वह दृष्टि शक्ति दीजिए जिससे आपके चरणारविन्दों के दर्शन हो सके। स्वामीन्! आपका प्रत्यक्ष दर्शन हो यही मेरे लिए सबसे बड़ा वर है। ईश! दूसरे किसी वर से मेरा क्या प्रयोजन है? चन्द्रशेखर आपको नमस्कार है।
कुबेर की बात सुनकर देवाधिदेव उमापति ने अपनी हथेली से उनका स्पर्श करके उन्हें देखने की शक्ति प्रदान की। दृष्टि शक्ति मिल जाने पर यज्ञ दत्त के उस पुत्र ने आंखें फाड़ फाड़ कर पहले उमा की ओर ही देखना आरंभ किया। वह मन ही मन सोचने लगा शंकर के समीप यह सर्वांग सुंदरी कौन है? इसने कौन सा ऐसा तप किया है जो मेरी भी तपस्या से बढ़कर है? यह रूप, यह प्रेम, यह सौभाग्य और यह असीम शोभा सभी अद्भुत हैं। वह ब्राह्मण कुमार बार-बार यही कहने लगा जब की कहता हुआ वह क्रूर दृष्टि से उनकी ओर देखने लगा तब वामा के अवलोकन से उसकी बाई आंख फूट गई। तदन्नतर देवी पार्वती ने महादेव जी से कहा- यह दुष्ट तपस्वी बार-बार मेरी ओर देखकर क्या बक रहा है? आप मेरी तपस्या के तेज को प्रकट कीजिए।
देवी की यह बात सुनकर भगवान शिव ने हंसते हुए उनसे कहा- अरे यह तुम्हारा पुत्र है। तुम्हें गुरूर दृष्टि से नहीं देखता अपितु तप संपत्ति का वर्णन कर रहा है। देवी से ऐसा कहकर भगवान शिव पुनः उस ब्राह्मण कुमार से बोले- वत्स! मैं तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट होकर तुम्हें वर देता हूं, तुम निधियों के स्वामी और गुह्कों के राजा हो जाओ। सुव्रत! यक्षों, किन्नरों और राजाओं के भी राजा होकर पुण्य जनों के पालक और सब के लिए धन के दाता बनो। मेरे साथ तुम्हारी सदा मैत्री बनी रहेगी और मैं नित्य तुम्हारे निकट निवास करूंगा। प्रीति बढ़ाने के लिए मैं अलका के पास ही रहूंगा। उमा देवी के चरणों में साष्टांग प्रणाम करो, क्योंकि यह तुम्हारी माता है। महा भक्त यज्ञ दत्त कुमार तुम अत्यंत प्रसन्न चित्त से इनके चरणों में गिर जाओ।
ब्रह्मा जी कहते हैं –
नारद इस प्रकार वर देकर भगवान शिव ने उमादेवी से फिर कहा- इस पर कृपा करो यह तुम्हारा पुत्र है। भगवान शंकर का यह कथन सुनकर पार्वती ने प्रसन्न चित्त हो यज्ञ दत्त कुमार से कहा- वत्स! भगवान शिव में तुम्हारी सदा निर्मल भक्ति बनी रहे। तुम्हारी बाई आंख तो फूटी ही गई। इसलिए एक ही पिंगल नेत्र से युक्त रहो। महादेव जी ने जो वर दिए हैं, वह सब उसी रूप में तुम्हें सुलभ हो। मेरे रूप के प्रति ईर्ष्या करने के कारण तुम कुबेर नाम से प्रसिद्ध होगें। कुबेर को वर देकर भगवान महेश्वर पार्वती देवी के साथ अपने विश्वेश्वर धाम में चले गए। इस तरह कुबेर ने भगवान शंकर की मैत्री प्राप्त की,और अलकापुरी के पास जो कैलाश पर्वत है वह भगवान शंकर का निवास हो गया।
अध्याय 20 –
भगवान शिव का कैलाश पर्वत पर गमन तथा सृष्टि खंड का उपसंहार
ब्रह्मा जी कहते हैं-
नारद! मुने! कुबेर के तपोबल से भगवान शिव का जिस प्रकार पर्वत श्रेष्ठ कैलाश पर शुभागमन हुआ वह प्रसंग सुनो। कुबेर को वर देने वाले विश्वेश्वर शिव जब उन्हें निधि पति होने का वर दे कर अपने स्थान को चले गए तब उन्होंने मन ही मन इस प्रकार विचार किया ब्रह्माजी के ललाट से जिन का प्रादुर्भाव हुआ है तथा जो प्रलय का कार्य संभालते हैं वे रूद्र मेरे पूर्ण स्वरूप है। अतः उन्हीं के रूप में मैं गुह्यको के राजा के निवास स्थान कैलाश जाऊंगा। उन्हीं के रूप में मैं कुबेर का मित्र बनकर उसी पर्वत पर विलासपूर्वक रहूंगा और बडा भारी तप करूंगा।
शिव की इस इच्छा का चिंतन करके रूद्र देव ने कैलाश जाने के लिए उत्सुक डमरू बजाया। डमरु कि वह ध्वनि जो उत्साह बढ़ाने वाली थी तीनों लोकों में व्याप्त हो गई। उसका विचित्र एवं गंभीर शब्द आवाहन की गति से युक्त था अर्थात सुननेवालों को अपने पास आने की प्रेरणा दे रहा था। इस ध्वनि को सुनकर मैं, विष्णु, सभी देवता, ऋषि, मूर्तिमान, आगम और निगम सीधे वहां आ पहुंचे। देवता और असुर आदि सब लोग बड़े उत्साह में भरकर वहां आए। भगवान शिव के सभी पार्षद तथा सर्व लोग वंदिते गणपाल भी जहां कहीं थे वहां से आ गए।
इतना कहकर ब्रह्मा जी ने वहां आए हुए गणपालों का नामोउल्लेख पूर्वक विस्तृत परिचय दिया फिर कहना आरंभ किया। वे बोले वहां असंख्य महाबली गणपाल पधारे। वे सब के सब सहस्त्र भुजाओं से युक्त थे और मस्तक पर जटा का ही मुकुट धारण किए हुए थे। सभी चंद्रचूड़, त्रिलोचन और नीलकंठ थे। हार, कुंडल, केयूर तथा मुकुट आदि से अलंकृत थे। वे मेरे व विष्णु तथा इंद्र के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। अणिमा आदि आठों सिद्धियों से घिरे थे। करोड़ों सूर्य के समान उद्भासित हो रहे थे। उस समय भगवान शिव ने विश्वकर्मा को उस पर्वत पर निवास स्थान बनाने की आज्ञा दी। अनेक भक्तों के साथ अपने व दूसरों के रहने के लिए यथा योग्य आवास तैयार करने का आदेश दिया।
मुने! तब विश्वकर्मा ने भगवान शिव की आज्ञा के अनुसार उस पर्वत पर जाकर शीघ्र ही नाना प्रकार की गृहों की रचना की। श्री हरि की प्रार्थना से कुबेर पर अनुग्रह करके भगवान शिव सानंद कैलाश पर्वत पर गए। उत्तम मुहूर्त में अपने स्थान में प्रवेश करके भक्तवत्सल परमेश्वर शिव ने सबको प्रेम दान दे सनाथ किया। इसके बाद आनंद से भरे हुए श्री विष्णु आदि समस्त देवताओं,मुनियों और सिद्धों ने शिव का प्रसन्नता पूर्वक अभिषेक किया। हाथों में नाना प्रकार की भेंटे लेकर सब ने कर्मशः उनका पूजन किया और बड़े उत्सव के साथ उनकी आरती उतारी। उसी समय आकाश से फूलों की वर्षा हुई जो मंगलसूचक थी। सब ओर जय जय कार और नमस्कार के शब्द गूंजने लगे। महान उत्सव फैला हुआ था जो सबके सुख को बढ़ा रहा था। उस समय सिंहासन पर बैठ कर श्री विष्णु आदि सभी देवताओं द्वारा की गई यथोचित सेवा को बारंबार ग्रहण करके शिव बड़ी शोभा पा रहे थे। देवताओं आदि सब लोगों ने सार्थक एवं प्रिय वचनों द्वारा लोक कल्याणकारी भगवान शंकर का प्रथक प्रथक स्थवन किया।
सर्वेश्वर प्रभु ने प्रसन्नचित से वह स्तवन सुनकर उन सब को प्रसन्नता पूर्वक मनोवांछित वर एवं अभीष्ट वस्तुएं प्रदान की। मुने! तदन्नतर श्री विष्णु के साथ मैं तथा अन्य सब देवता और मुनि मनोवांछित वस्तु पाकर आनंदित हो शिव की आज्ञा से अपने अपने धाम को चले गए। कुबेर भी शिव की आज्ञा से प्रसन्नता पूर्वक अपने स्थान को गए। फिर वे भगवान शंभू जो सर्वदा स्वतंत्र हैं, योगप्रायण एवं ध्यान तत्पर हो पर्वतप्रवर कैलाश पर रहने लगे। कुछ काल बिना पत्नी की ही बिता कर परमेश्वर शिव ने दक्ष कन्या सती को पत्नी रूप में प्राप्त किया। देवर्षे! फिर वे महेश्वर दक्ष कुमारी सती के साथ विहार करने लगे और लोकाचार परायण हो सुख का अनुभव करने लगे। मुनेश्वर!इस प्रकार तुमसे यह रूद्र के अवतार का वर्णन किया है और साथ ही उनके कैलाश आगमन व कुबेर के साथ में मैत्री का भी प्रसंग सुनाया है। कैलाश के अंतर्गत होने वाली उनकी ज्ञानवर्धकलीला का भी वर्णन किया जो लोक और परलोक में सदा संपूर्ण मनोवांछित फलों को देने वाली है। जो एकाग्र चित्त हो इस कथा को सुनता या पढता है वह इस लोक में भोग पाकर परलोक में मोक्ष प्राप्ति करता है।