रुद्र संहिता पार्वती खण्ड शिवपुराण अध्या अध्याय 4 से 6 | rudra sanhita parvati khand adhyay 4 to 6 in hindi.

नमस्कार दोस्तों आज हम आपको शिवपुराण के रुद्र संहिता

का पार्वती खण्ड की जानकारी देने वाले है |

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रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 11
रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 4

 

अध्याय 4 – 

 

उमादेवीका दिव्यरूपसे देवताओंको दर्शन देना, देवताओंका उनसे अपना

अभिप्राय निवेदन करना और देवीका अवतार लेनेकी बात

स्वीकार करके देवताओंको आश्वासन देना

ब्रह्माजी कहते हैं –

नारद! देवताओंके

इस प्रकार स्तुति करनेपर दुर्गम पीड़ाका

नाश करनेवाली जगज्जननी देवी दुर्गा उनके

सामने प्रकट हुईं। वे परम अद्भुत दिव्य

रत्नमय रथपर बैठी हुई थीं। उस श्रेष्ठ रथमें

धुंधुरू लगे हुए थे और मुलायम बिस्तर

बिछे थे। उनके श्रीविग्रहका एक-एक अंग

करोड़ों सूर्योसे भी अधिक प्रकाशमान और

रमणीय था। ऐसे अवयवोंसे वे अत्यन्त

उद्धासित हो रही थी। सब ओर फैली हुई

अपनी तेजोराशिके मध्यभागमें वे विराजमान

थीं। उनका रूप बहुत ही सुन्दर था और

उनकी छविकी कहीं तुलना नहीं थी।

सदाशिवके साथ विलास करनेवाली उन

महामायाकी किसीके साथ समानता नहीं

थी। शिवलोकमें निवास करनेवाली वे

देवी त्रिविध चिन्मय गुणोंसे युक्त थीं।

प्राकृत गुणोंका अभाव होनेसे उन्हें निर्गुणा

कहा जाता है। वे नित्यरूपा हैं। वे दुष्टोंपर

प्रचण्डकोप करनेके कारण चण्डी कहलाती

हैं, परंतु स्वरूपसे शिवा (कल्याणमयी)

हैं। सबकी सम्पूर्ण पीड़ाओंका नाश करने

वाली तथा सम्पूर्ण जगत्की माता हैं। वे ही

प्रलयकालमें महानिद्रा होकर सबको अपने

अंकमें सुला लेती हैं तथा वे समस्त

स्वजनों (भक्तों) का संसार-सागरसे उद्धार

कर देती हैं। शिवादेवीकी तेजोराशिके

प्रभावसे देवता उन्हें अच्छी तरह देख न

सके। तब उनके दर्शनकी अभिलाषासे

देवताओंने फिर उनका स्तवन किया। तदनन्तर

दर्शनकी इच्छा रखनेवाले विष्णु आदि

सब देवता उन जगदम्बाकी कृपा पाकर

वहाँ उनका सुस्पष्ट दर्शन कर सके।

इसके बाद देवता बोले –

अम्बिके!

महादेवि! हम सदा आपके दास हैं। आप

प्रसन्नतापूर्वक हमारा निवेदन सुनें। पहले

आप दक्षकी पुत्रीरूपसे अवतीर्ण हो लोकमें

रुद्रदेवकी वल्लभा हुई थी। उस समय

आपने ब्रह्माजीके तथा दूसरे देवताओंके

महान् दुःखका निवारण किया था। तदनन्तर

पितासे अनादर पाकर अपनी की हुई

प्रतिज्ञाके अनुसार अपने शरीरको त्याग

दिया और स्वधाममें पधार आयीं। इससे

भगवान् हरको भी बड़ा दुःख हुआ। महेश्वरि!

आपके चले आनेसे देवताओंका कार्य पूरा

नहीं हुआ। अतः हम देवता और मुनि

व्याकुल होकर आपकी शरणमें आये हैं।

महेशानि! शिवे ! आप देवताओंका मनोरथ

पूर्ण करें, जिससे सनत्कुमारका वचन सफल

हो। देवि! आप भूतलपर अवतीर्ण हो पुनः

रुद्रदेवकी पत्नी होइये और यथायोग्य ऐसी

लीला कीजिये, जिससे देवताओंको सुख

प्राप्त हो। देवि! इससे कैलास पर्वतपर

निवास करनेवाले रुद्रदेव भी सुखी होंगे।

आप ऐसी कृपा करें, जिससे सब सुखी हों

और सबका सारा दुःख नष्ट हो जाय।।

ब्रह्माजी कहते हैं –

नारद! ऐसा कहकर

विष्णु आदि सब देवता प्रेममें मग्न हो गये

और भक्तिसे विनम्र होकर चुपचाप खड़े

रहे। देवताओंकी यह स्तुति सुनकर

शिवादेवीको भी बड़ी प्रसन्नता हुई। उसके

हेतुका विचार करके अपने प्रभु शिवका

स्मरण करती हुई भक्तवत्सला दयामयी

उमादेवी उस समय विष्णु आदि देवताओंको

सम्बोधित करके हँसकर बोलीं।

उमाने कहा-हे हरे! हे विधे! और हे

देवताओ तथा मुनियो! तुम सब लोग

अपने मनसे व्यथाको निकाल दो और

मेरी बात सुनो। मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, इसमें

संशय नहीं है। सब लोग अपने-अपने

स्थानको जाओ और चिरकालतक सुखी

रहो। मैं अवतार ले मेनाकी पुत्री होकर उन्हें

सुख देंगी और रुद्रदेवकी पत्नी हो जाऊँगी।

यह मेरा अत्यन्त गुप्त मत है। भगवान्

शिवकी लीला अद्भुत है। वह ज्ञानियोंको

भी मोहमें डालनेवाली हैं। देवताओ ! उस

यज्ञमें जाकर पिताके द्वारा अपने स्वामीका

अनादर देख जबसे मैंने दक्षजनित शरीरको

त्याग दिया है, तभीसे वे मेरे स्वामी

कालाग्नि रुद्रदेव तत्काल दिगम्बर हो गये।

वे मेरी ही चिन्तामें डूबे रहते हैं। उनके

मनमें यह विचार उठा करता है कि धर्मको

जाननेवाली सती मेरा रोष देखकर

पिताके यज्ञमें गयी और वहाँ मेरा अनादर

देख मुझमें प्रेम होनेके कारण उसने

अपना शरीर त्याग दिया। यही सोचकर वे

घर-बार छोड़ अलौकिक वेष धारण

करके योगी हो गये। मेरी स्वरूपभूता

सतीके वियोगको वे महेश्वर सहन न कर

सके। देवताओ ! भगवान् रुद्रकी भी यह

अत्यन्त इच्छा है कि भूतलपर मेना और

हिमाचलके घरमें मेरा अवतार हो; क्योंकि

वे पुनः मेरा पाणिग्रहण करनेकी अधिक

अभिलाषा रखते हैं। अतः मैं रुद्रदेवके

संतोषके लिये अवतार लूँगी और

लौकिक गतिका आश्रय लेकर हिमालय-

पली मैनाकी पुत्री होऊँगी।

ब्रह्माजी कहते हैं –

नारद! ऐसा कहकर

जगदम्बा शिवा उस समय समस्त देवताओंके

देखते-देखते ही अदृश्य हो गयीं और तुरंत

अपने लोकमें चली गयीं। तदनन्तर हर्षसे

भरे हुए विष्णु आदि समस्त देवता और

मुनि उस दिशाको प्रणाम करके अपने-

अपने धाममें चले गये।

 

अध्याय 5 – 

मेना को प्रत्यक्ष दर्शन देकर शिवादेवीका उन्हें अभीष्ट वरदानसे

संतुष्ट करना तथा मेनासे मैनाक का जन्म

नारदजीने पूछा-पिताजी ! जब देवी

दुर्गा अन्तर्धान हो गयीं और देवगण

अपने-अपने धामको चले गये, उसके बाद

क्या हुआ? ।

ब्रह्माजीने कहा –

मेरे पुत्रों में श्रेष्ठ विप्रवर

नारद! जब विष्णु आदि देवसमुदाय

हिमालय और मेनाको देवीकी आराधनाका

उपदेश दे चले गये, तब गिरिराज हिमाचल

और मेना दोनों दम्पतिने बड़ी भारी तपस्या

आरम्भ की। वे दिन-रात शम्भु और शिवाका

चिन्तन करते हुए भक्तियुक्त चित्तसे नित्य

उनकी सम्यक् रीतिसे आराधना करने लगे।

हिमवान्की पत्नी मेना बड़ी प्रसन्नतासे

शिवसहित शिवादेवीकी पूजा करने लगीं।

वे उन्हींके संतोषके लिये सदा ब्राह्मणोंको

दान देती रहती थीं। मनमें संतानकी कामना

ले मेना चैत्रमासके आरम्भसे लेकर सत्ताईस

वर्षातक प्रतिदिन तत्परतापूर्वक शिवा-

देवीकी पूजा और आराधनामें लगी रहीं। वे

अष्टमीको उपवास करके नवमीको लडू,

बलि-सामग्री, पीठी, खीर और गन्ध-पुष्प

आदि देवीको भेंट करती थीं। गंगाके

किनारे ओषधिप्रस्थमें उमाकी मिट्टीकी मूर्ति

बनाकर नाना प्रकारकी वस्तुएँ समर्पित

करके उसकी पूजा करती थीं। मेनादेवी

कभी निराहार रहतीं, कभी व्रतके नियमोंका

पालन करतीं, कभी जल पीकर रहतीं और

कभी हवा पीकर ही रह जाती थीं। विशुद्ध

तेजसे दमकती हुई दीप्तिमती मेनाने प्रेमपूर्वक

शिवामें चित्त लगाये सत्ताईस वर्ष व्यतीत

कर दिये। सत्ताईस वर्ष पूरे होनेपर जगन्मयी

शंकरकामिनी जगदम्बा उमा अत्यन्त प्रसन्न

हुई। मेनाकी उत्तम भक्तिसे संतुष्ट हो वे

परमेश्वरी देवी उनपर अनुग्रह करनेके लिये

उनके सामने प्रकट हुई। तेजोमण्डलके

बीचमें विराजमान तथा दिव्य अवयवोंसे

संयुक्त उमादेवी प्रत्यक्ष दर्शन दे मेनासे

हँसती हुई बोलीं।

देवीने कहा – 

गिरिराज हिमालयकी रानी

महासाध्वी मेना! मैं तुम्हारी तपस्यासे बहुत

प्रसन्न हूँ। तुम्हारे मनमें जो अभिलाषा हो,

उसे कहो। मेना! तुमने तपस्या, व्रत और

समाधिके द्वारा जिस-जिस वस्तुके लिये

प्रार्थना की है, वह सब मैं तुम्हें दूंगी। तब

मेनाने प्रत्यक्ष प्रकट हुई कालिकादेवीको

देखकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा।

 

मेना बोलीं –

देवि! इस समय मुझे

आपके रूपका प्रत्यक्ष दर्शन हुआ है।

अतः मैं आपकी स्तुति करना चाहती हूँ।

कालिके! इसके लिये आप प्रसन्न हों।

ब्रह्माजी कहते हैं – 

नारद! मेनाके ऐसा

कहनेपर सर्वमोहिनी कालिकादेवीने मनमें

अत्यन्त प्रसन्न हो अपनी दोनों बाहों से

खींचकर मेनाको हृदयसे लगा लिया। इससे

उन्हें तत्काल महाज्ञानकी प्राप्ति हो गयी।

फिर तो मेनादेवी प्रिय वचनोंद्वारा भक्ति-

भावसे अपने सामने खड़ी हुई कालिकाकी

स्तुति करने लगीं।

मेना बोलीं जो मह्ममाया जगत्को धारण

करनेवाली चण्डिका, लोकधारिणी तथा

सम्पूर्ण मनोवांछित पदार्थोंको देनेवाली हैं,

उन महादेवीको मैं प्रणाम करती हैं। जो

नित्य आनन्द प्रदान करनेवाली माया, योगनिद्रा,

जगज्जननी तथा सुन्दर कमलोंकी मालासे

अलंकृत हैं, उन नित्य-सिद्धा उमादेवीको

मैं नमस्कार करती हैं। जो सबकी मातामही,

नित्य आनन्दमयी, भक्तोंके शोकका नाश

करनेवाली तथा कल्पपर्यन्त नारियों एवं

प्राणियोंकी बुद्धिरूपिणी हैं, उन देवीको मैं

प्रणाम करती हैं। आप यतियोंके अज्ञानमय

बन्धनके नाशकी हेतुभूता ब्रह्मविद्या हैं। फिर

मुझ जैसी नारियाँ आपके प्रभावका क्या

वर्णन कर सकती हैं। अथर्ववेदकी जो

हिंसा (मारण आदिका प्रयोग) है, वह

आप ही हैं। देवि ! आप मेरे अभीष्ट फलको

सदा प्रदान कीजिये। भावहीन( आकाररहित)

तथा अदृश्य नित्यानित्य तन्मात्राओंसे आप

ही पंचभूतोंके समुदायको संयुक्त करती हैं।

आप ही उनकी शाश्वत शक्ति हैं। आपको

स्वरूप नित्य है।

क्रमशः…

 

अध्याय 5 – 

 

क्रमशः…

 

आप समय-समयपर

योगयुक्त एवं समर्थ नारीके रूपमें प्रकट

होती हैं। आप ही जगत्की योनि और

आधार-शक्ति हैं। आप ही प्राकृत तत्त्वोंसे

परे नित्या प्रकृति कही गयी हैं। जिसके द्वारा

ब्रह्मके स्वरूपको वशमें किया जाता (जाना

जाता) है, वह नित्या विद्या आप ही हैं।

मातः! आज मुझपर प्रसन्न होइये। आप ही

अग्निके भीतर व्याप्त उग्र दाहिका शक्ति हैं।

आप ही सूर्य-किरणों में स्थित प्रकाशिका

शक्ति हैं। चन्द्रमामें जो आह्लादिका शक्ति है,

वह भी आप ही हैं। ऐसी आप चण्डी-

देवीका मैं स्तवन और वन्दन करती हैं।

आप स्त्रियोंको बहुत प्रिय हैं। ऊर्ध्वरेता

ब्रह्मचारियोंकी ध्येयभूता नित्या ब्रह्मशक्ति

भी आप ही हैं। सम्पूर्ण जगत्की वांछा

तथा श्रीहरिकी माया भी आप ही हैं। जो

देवी इच्छानुसार रूप धारण करके सृष्टि,

पालन और संहारमयी हो उन कार्योका

सम्पादन करती हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं

रुद्रके शरीरकी भी हेतुभूता हैं, वे आप ही

हैं। देवि! आज आप मुझपर प्रसन्न हों।

आपको पुनः मेरा नमस्कार है।

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! मेनाके इस

प्रकार स्तुति करनेपर दुर्गा कालिकाने पुनः

उन मेनादेवीसे कहा –

तुम अपना

मनोवांछित वर माँग लो। हिमाचलप्रिये!

तुम मुझे प्राणोंके समान प्यारी हो। तुम्हारी

जो इच्छा हो, वह माँगो। उसे मैं निश्चय ही

दे दूंगी। तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय

नहीं है।’

महेश्वरी उमाका यह अमृतके समान

मधुर वचन सुनकर हिमगिरिकामिनी मेना

बहुत संतुष्ट हुई और इस प्रकार बोलीं-

‘शिवे! आपकी जय हे, जय हो। उत्कृष्ट

ज्ञानवाली महेश्वरि! जगदम्बिके! यदि मैं

वर पानेके योग्य हैं तो फिर आपसे श्रेष्ठ वर

माँगती हूँ। जगदम्बे! पहले तो मुझे सौ पुत्र

हों। उन सबकी बड़ी आयु हो। वे बल-

पराक्रमसे युक्त तथा ऋद्धि-सिद्धिसे सम्पन्न

हों। उन पुत्रोंके पश्चात् मेरे एक पुत्री हो,

जो स्वरूप और गुणोंसे सुशोभित होनेवाली

हो; वह दोनों कुलोंको आनन्द देनेवाली

तथा तीनों लोकोंमें पूजित से। जगदम्बिके!

शिवे! आप ही देवताओंका कार्य सिद्ध

करनेके लिये मेरी पुत्री तथा रुद्रदेवकी

पत्नी होइये और तदनुसार लीला कीजिये।

ब्रह्माजी कहते हैं –

नारद! मेनकाकी

बात सुनकर प्रसनदया देवी उमाने उनके

मनोरथको पूर्ण करनेके लिये मुसकराकर

कहा।

देवी बोली –

पहले तुम्हें सौ बलवान्

पुत्र प्राप्त होंगे। उनमें भी एक सबसे

अधिक बलवान् और प्रधान होगा, जो

सबसे पहले उत्पन्न होगा। तुम्हारी भक्तिसे

संतुष्ट हो मैं स्वयं तुम्हारे यहाँ पुत्रीके

रूपमें अवतीर्ण होऊँगी और समस्त देवताओंसे

सेवित हो उनका कार्य सिद्ध करूंगी।

ऐसा कहकर जगद्धात्री परमेश्वरी

कालिका शिवा मेनकाके देखते-देखते वहीं

अदृश्य हो गयीं। तात! महेश्वरीसे अभीष्ट

वर पाकर मेनकाको भी अपार हर्ष हुआ।

उनका तपस्याजनित सारा क्लेश नष्ट हो

गया। मुने! फिर कालक्रमसे मेनाके गर्भ

रहा और वह प्रतिदिन बढ़ने लगा। समयानुसार

उसने एक उत्तम पुत्रको उत्पन्न किया,

जिसका नाम मैनाक था। उसने समुद्र

साथ उत्तम मैत्री बाँधी। वह अद्भुत पर्वत

नागवधुओंके उपभोगका स्थल बना हुआ

है। उसके समस्त अंग श्रेष्ठ हैं। हिमालयके

सौ पुत्रोंमें वह सबसे श्रेष्ठ और महान्

बल-पराक्रमसे सम्पन्न है। अपनेसे या अपने

बाद प्रकट हुए समस्त पर्वतोंमें एकमात्र

मैनाक ही पर्वतराजके पदपर प्रतिष्ठित है।

 

अध्याय 6 – 

 

देवी उमाका हिमवान् के हृदय तथा मेनाके गर्भमें आना, गर्भस्था देवीका

देवताओंद्वारा स्तवन, उनका दिव्यरूपमें प्रादुर्भाव, माता मेनासे

बातचीत तथा नवजात कन्याके रूपमें परिवर्तित होना

ब्रह्माजी कहते हैं –

नारद! तदनन्तर मेना

और हिमालय आदरपूर्वक देवकार्यकी

सिद्धिके लिये कन्याप्राप्तिके हेतु वहाँ

जगज्जननी भगवती उमाका चिन्तन करने

लगे। जो प्रसन्न होनेपर सम्पूर्ण अभीष्ट

वस्तुओंको देनेवाली हैं, वे महेश्वरी उमा

अपने पूर्ण अंशसे गिरिराज हिमवानुके

चित्तमें प्रविष्ट हुई। इससे उनके शरीरमें

अपूर्व एवं सुन्दर प्रभा उतर आयी। वे

आनन्दमग्न हो अत्यन्त प्रकाशित होने लगे।

उस अद्भुत तेजोराशिसे सम्पन्न महामना

हिमालय अग्निके समान अधृष्य हो गये

थे। तत्पश्चात् सुन्दर कल्याणकारी समयमें

गिरिराज हिमालयने अपनी प्रिया मेनाके

उदरमें शिवाके उस परिपूर्ण अंशका आधान

किया। इस तरह गिरिराजकी पत्नी मेनाने

हिमवानुके हृदयमें विराजमान करुणानिधान

देवीकी कृपासे सुखदायक गर्भ धारण

किया। सम्पूर्ण जगत्की निवासभूता देवीके

गर्भमें आनेसे गिरिप्रिया मेना सदा

तेजोमण्डलके बीचमें स्थित होकर अधिक

शोभा पाने लगीं। अपनी प्रिया शुभांगी

मेनाको देखकर गिरिराज हिमवान् बड़ी

प्रसन्नताका अनुभव करने लगे। गर्भमें

जगदम्बाके आ जानेसे वे महान् तेजसे

सम्पन्न हो गयी थीं। मुने! उस अवसरमें

विष्णु आदि देवता और मुनियोंने वहाँ

आकर गर्भमें निवास करनेवाली शिवा-

देवीकी स्तुति की और तदनन्तर महेश्वरीकी

नाना प्रकारसे स्तुति करके प्रसन्नचित्त हुए ।

 

वे सब देवता अपने-अपने धामको चले

गये। जब नवाँ महीना बीत गया और

दसवाँ भी पूरा हो चला, तब जगदम्बा

कालिकाने समय पूर्ण होनेपर गर्भस्थ शिशुकी

जो गति होती है, उसीको धारण किया

अर्थात् जन्म ले लिया। उस अवसरपर

आद्याशक्ति सती-साध्वी शिवा पहले मेनाके

सामने अपने ही रूपसे प्रकट हुई। वसन्त-

ऋतुमें चैत्र मासकी नवमी तिथिको मृगशिरा

नक्षत्रमें आधी रातके समय चन्द्रमण्डलसे

आकाशगंगाकी भाँति मेनकाके उदरसे देवी

शिवाका अपने ही स्वरूपमें प्रादुर्भाव हुआ।

उस समय सम्पूर्ण संसारमें प्रसन्नता छा

गयी। अनुकूल हवा चलने लगी, जो सुन्दर,

सुगन्धित एवं गम्भीर थी। उस समय जलकी

वर्षाके साथ फूलोंकी वृष्टि हुई। विष्णु

आदि सब देवता वहाँ आये। सबने सुखी

होकर प्रसन्नताके साथ जगदम्बाके दर्शन

किये और शिवलोकमें निवास करनेवाली

दिव्यरूपा महामाया शिवकामिनी मंगलमयी

कालिका माताका स्तवन किया।

नारद! जब देवतालोग स्तुति करके

चले गये, तब मेनका उस समय प्रकट हुई

नील कमल-दलके समान कान्तिवाली

श्यामवर्णा देवीको देखकर अतिशय

आनन्दका अनुभव करने लगीं। देवीके

उस दिव्य रूपका दर्शन करके गिरिप्रिया

मेनाको ज्ञान प्राप्त हो गया। वे उन्हें परमेश्वरी

समझकर अत्यन्त हर्षसे उल्लसित हो उठीं

और संतोषपूर्वक बोली।

मेनाने कहा –

जगदम्बे ! महेश्वरि! आपने

बड़ी कृपा की, जो मेरे सामने प्रकट हुईं।

अम्बिके! आपकी बड़ी शोभा हो रही है।

शिवे! आप सम्पूर्ण शक्तियों में आद्याशक्ति

तथा तीनों लोकोंकी जननी हैं। देवि! आप

भगवान् शिवको सदा ही प्रिय हैं तथा

सम्पूर्ण देवताओंसे प्रशंसित पराशक्ति हैं।

महेश्वरि! आप कृपा करें और इसी

रूपसे मेरे ध्यानमें स्थित हो जायें। साथ ही

मेरी पत्रीके अनुरूप प्रत्यक्ष दर्शनीय रूप

धारण करें।

ब्रह्माजी कहते हैं –

नारद! पर्वतपत्नी

मेनाकी यह बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई

शिवादेवीने उस गिरिप्रियाको इस प्रकार

उत्तर दिया।

देवी बोलीं –

मेना! तुमने पहले

तत्परतापूर्वक मेरी बड़ी सेवा की थी। उस

समय तुम्हारी भक्तिसे प्रसन्न हो मैं वर देनेके

लिये तुम्हारे निकट आयी। ‘वर माँगो’ मेरी

इस वाणीको सुनकर तुमने जो वर माँगा,

वह इस प्रकार है-‘महादेवि! आप मेरी

पुत्री हो जायें और देवताओंका हित साधन

करें।’ तब मैंने ‘तथास्तु’ कहकर तुम्हें सादर

यह वर दे दिया और मैं अपने धामको चली

गयी। गिरिकामिनि! उस वरके अनुसार

समय पाकर आज मैं तुम्हारी पुत्री हुई हूँ।

आज मैंने जो दिव्य रूपका दर्शन कराया है,

इसका उद्देश्य इतना ही है कि तुम्हें मेरे

स्वरूपका स्मरण हो जाय; अन्यथा मनुष्य-

रूपमें प्रकट होनेपर मेरे विषयमें तुम अनजान

ही बनी रहतीं। अब तुम दोनों दम्पति

पुत्रीभावसे अथवा दिव्यभावसे मेरा निरन्तर

चिन्तन करते हुए मुझमें स्नेह रखो। इससे

मेरी उत्तम गति प्राप्त होगी। मैं पृथ्वीपर

अद्भुत लीला करके देवताओंका कार्य

सिद्ध करूंगी। भगवान् शम्भुकी पत्नी होऊँगी

और सज्जनोंका संकटसे उद्धार करूंगी।

ऐसा कहकर जगन्माता शिवा चुप हो

गयीं और उसी क्षण माताके देखते-देखते

प्रसन्नतापूर्वक नवजात पुत्रीके रूपमें परिवर्तित

हो गयीं।

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