विद्येश्वर संहिता शिवपुराण हिंदी | Vidhyeshwar Sanhita in hindi.
व्यास जी कहते हैं –
धर्म का महान क्षेत्र, जहां गंगा-यमुना का संगम है, उस पुण्यमय प्रयाग, जो ब्रह्मलोक का मार्ग है, वहां एक बार महातेजस्वी, महाभाग, महात्मा मुनियों ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया। उस ज्ञान यज्ञ का समाचार सुनकर पौराणिक-शिरोमणि व्यास जी के शिष्य सूत जी वहां मुनियों के दर्शन के लिए आए। सूत जी का सभी मुनियों ने विधिवत स्वागत व सत्कार किया तथा उनकी स्तुति करते हुए हाथ जोड़कर उनसे कहा- हे सर्वज्ञ विद्वान रोमहर्षण जी । आप बड़े भाग्यशाली हैं। आपने स्वयं व्यास जी के मुख से पुराण विद्या प्राप्त की है। आप आश्चर्यस्वरूप कथाओं का भंडार हैं। आप भूत, भविष्य और वर्तमान के ज्ञाता हैं। हमारा सौभाग्य है कि आपके दर्शन हुए। आपका यहां आना निरर्थक नहीं हो सकता। आप कल्याणकारी हैं।
उत्तम बुद्धि वाले सूत जी ! यदि आपका अनुग्रह हो तो गोपनीय होने पर भी आप शुभाशुभ तत्व का वर्णन करें, जिससे हमारी तृप्ति नहीं होती और उसे सुनने की हमारी इच्छा ऐसे ही रहती है। कृपा कर उस विषय का वर्णन करें। घोर कलियुग आने पर मनुष्य पुण्यकर्म से दूर होकर दुराचार में फंस जाएंगे। दूसरों की बुराई करेंगे, पराई स्त्रियों के प्रति आसक्त होंगे। हिंसा करेंगे, मूर्ख, नास्तिक और पशुबुद्धि हो जाएंगे
सूत जी ! कलियुग में वेद प्रतिपादित वर्ण आश्रम व्यवस्था नष्ट हो जाएगी। प्रत्येक वर्ण और आश्रम में रहने वाले अपने-अपने धर्मों के आचरण का परित्याग कर विपरीत आचरण करने में सुख प्राप्त करेंगे! इस सामाजिक वर्ण संकरता से लोगों का पतन होगा। परिवार टूट जाएंगे, समाज बिखर जाएगा। प्राकृतिक आपदाओं से जगह-जगह लोगों की मृत्यु होगी। धन का क्षय होगा। स्वार्थ और लोभ की प्रवृत्ति बढ़ जाएगी। ब्राह्मण लोभी हो जाएंगे और वेद बेचकर धन प्राप्त करेंगे। मद से मोहित होकर दूसरों को ठगेंगे, पूजा-पाठ नहीं करेंगे और ब्रह्मज्ञान से शून्य होंगे। क्षत्रिय अपने धर्म को त्यागकर कुसंगी, पापी और व्यभिचारी हो जाएंगे। शौर्य से रहित हो वे शूद्रों जैसा व्यवहार करेंगे और काम के अधीन हो जाएंगे। वैश्य धर्म से विमुख हो संस्कारभ्रष्ट होकर कुमार्गी, धनोपार्जन-परायण होकर नाप-तौल में ध्यान लगाएंगे। शूद्र अपना धर्म-कर्म छोड़कर अच्छी वेशभूषा से सुशोभित हो व्यर्थ घूमेंगे। वे कुटिल और ईर्ष्यालु होकर अपने धर्म के प्रतिकूल हो जाएंगे, कुकर्मी और वाद-विवाद करने वाले होंगे। वे स्वयं को कुलीन मानकर सभी धर्मों और वर्णों में विवाह करेंगे। स्त्रियां सदाचार से विमुख हो जाएंगी । वे अपने पति का अपमान करेंगी और सास-ससुर से लड़ेंगी। मलिन भोजन करेंगी। उनका शील स्वभाव बहुत बुरा होगा।
सूत जी ! इस तरह जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है और जिन्होंने अपने धर्म का त्याग कर दिया है, ऐसे लोग लोक-परलोक में उत्तम गति कैसे प्राप्त करेंगे ? इस चिंता से हम सभी व्याकुल हैं। परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है। इस धर्म का पालन करने वाला दूसरों को सुखी करता हुआ, स्वयं भी प्रसन्नता अनुभव करता है । यह भावना यदि निष्काम हो, तो कर्ता का हृदय शुद्ध करते हुए उसे परमगति प्रदान करती है। हे महामुने! आप समस्त सिद्धांतों के ज्ञाता हैं। कृपा कर कोई ऐसा उपाय बताइए, जिससे इन सबके पापों का तत्काल नाश हो जाए।
व्यास जी कहते हैं – उन श्रेष्ठ मुनियों की यह बात सुनकर सूत जी मन ही मन परम श्रेष्ठ भगवान शंकर का स्मरण करके उनसे इस प्रकार बोले
दूसरा अध्याय –
“शिव पुराण का परिचय और महिमा”
सूत जी कहते हैं – साधु महात्माओ! आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। यह प्रश्न तीनों लोकों का हित करने वाला है। आप लोगों के स्नेहपूर्ण आग्रह पर, गुरुदेव व्यास का स्मरण कर मैं समस्त पापराशियों से उद्धार करने वाले शिव पुराण की अमृत कथा का वर्णन कर रहा हूं। ये वेदांत का सारसर्वस्व है। यही परलोक में परमार्थ को देने वाला है तथा दुष्टों का विनाश करने वाला है। इसमें भगवान शिव के उत्तम यश का वर्णन है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि पुरुषार्थों को देने वाला पुराण अपने प्रभाव की दृष्टि से वृद्धि तथा विस्तार को प्राप्त हो रहा है। शिव पुराण अध्ययन से कलियुग के सभी पापों में लिप्त जीव उत्तम गति को प्राप्त होंगे। इसके उदय से ही कलियुग का उत्पात शांत हो जाएगा। शिव पुराण को वेद तुल्य माना जाएगा। इसका प्रवचन सर्वप्रथम भगवान शिव ने ही किया था। इस पुराण के बारह खण्ड या भेद हैं।
ये बारह संहिताएं हैं – (1) विद्येश्वर संहिता, (2) रुद्र संहिता, (3) विनायक संहिता, (4) उमा संहिता, (5) सहस्रकोटिरुद्र संहिता, ( 6 ) एकादशरुद्र संहिता, (7) कैलास संहिता, (8) शतरुद्र संहिता, (9) कोटिरुद्र संहिता, (10) मातृ संहिता, (11) वायवीय संहिता तथा (12) धर्म संहिता ।
विद्येश्वर संहिता में दस हजार श्लोक हैं। रुद्र संहिता, विनायक संहिता, उमा संहिता और मातृ संहिता प्रत्येक में आठ-आठ हजार श्लोक हैं। एकादश रुद्र संहिता में तेरह हजार, कैलाश संहिता में छः हजार, शतरुद्र संहिता में तीन हजार, कोटिरुद्र संहिता में नौ हजार, सहस्रकोटिरुद्र संहिता में ग्यारह हजार, वायवीय संहिता में चार हजार तथा धर्म संहिता में बारह हजार श्लोक हैं।
मूल शिव पुराण में कुल एक लाख श्लोक हैं परंतु व्यास जी ने इसे चौबीस हजार श्लोकों में संक्षिप्त कर दिया है। पुराणों की क्रम संख्या में शिव पुराण का चौथा स्थान है, जिसमें सात संहिताएं हैं।
पूर्वकाल में भगवान शिव ने सौ करोड़ श्लोकों का पुराणग्रंथ ग्रंथित किया था। सृष्टि के आरंभ में निर्मित यह पुराण साहित्य अधिक विस्तृत था। द्वापर युग में द्वैपायन आदि महर्षियों ने पुराण को अठारह भागों में विभाजित कर चार लाख श्लोकों में इसको संक्षिप्त कर दिया । इसके उपरांत व्यास जी ने चौबीस हजार श्लोकों में इसका प्रतिपादन किया।
यह वेदतुल्य पुराण विद्येश्वररुद्र संहिता, शतरुद्र संहिता, कोटिरुद्र संहिता, उमा संहिता, कैलाश संहिता और वायवीय संहिता नामक सात संहिताओं में विभाजित है। यह सात संहिताओं वाला शिव पुराण वेद के समान प्रामाणिक तथा उत्तम गति प्रदान करने वाला है। इस निर्मल शिव पुराण की रचना भगवान शिव द्वारा की गई है तथा इसको संक्षेप में संकलित करने का श्रेय व्यास जी को जाता है। शिव पुराण सभी जीवों का कल्याण करने वाला, सभी पापों का नाश करने वाला है। यही सत्पुरुषों को कल्याण प्रदान करने वाला है। यह तुलना रहित है तथा इसमें वेद प्रतिपादित अद्वैत ज्ञान तथा निष्कपट धर्म का प्रतिपादन है। शिव पुराण श्रेष्ठ मंत्र-समूहों का संकलन है तथा यही सभी के लिए शिवधाम की प्राप्ति का साधन है। समस्त पुराणों में सर्वश्रेष्ठ शिव पुराण ईर्ष्या रहित अंतःकरण वाले विद्वानों के लिए जानने की वस्तु है। इसमें परमात्मा का गान किया गया है। इस अमृतमयी शिव पुराण को आदर से पढ़ने और सुनने वाला मनुष्य भगवान शिव का प्रिय होकर परम गति को प्राप्त कर लेता |
तीसरा अध्याय –
“श्रवण, कीर्तन और मनन साधनों की श्रेष्ठता”
व्यास जी कहते हैं — सूत जी के वचनों को सुनकर सभी महर्षि बोले- भगवन् आप वेदतुल्य, अद्भुत एवं पुण्यमयी शिव पुराण की कथा सुनाइए ।
सूत जी ने कहा – हे महर्षिगण! आप कल्याणमय भगवान शिव का स्मरण करके, वेद के सार से प्रकट शिव पुराण की अमृत कथा सुनिए। शिव पुराण में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का गान किया गया है। जब सृष्टि आरंभ हुई, तो छः कुलों के महर्षि आपस में वाद-विवाद करने लगे कि अमुक वस्तु उत्कृष्ट है, अमुक नहीं। जब इस विवाद ने बड़ा रूप धारण कर लिया तो सभी अपनी शंका के समाधान के लिए सृष्टि की रचना करने वाले अविनाशी ब्रह्माजी के पास जाकर हाथ जोड़कर कहने लगे- हे प्रभु! आप संपूर्ण जगत को धारण कर उनका पोषण करने वाले हैं। प्रभु! हम जानना चाहते हैं कि संपूर्ण तत्वों से परे परात्पर पुराण पुरुष कौन हैं?
ब्रह्माजी ने कहा :- ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इंद्र आदि से युक्त संपूर्ण जगत समस्त भूतों एवं इंद्रियों के साथ पहले प्रकट हुआ है। वे देव महादेव ही सर्वज्ञ और संपूर्ण हैं। भक्ति से ही इनका साक्षात्कार होता है। दूसरे किसी उपाय से इनका दर्शन नहीं होता। भगवान शिव में अटूट भक्ति मनुष्य को संसार-बंधन से मुक्ति दिलाती है। भक्ति से उन्हें देवता का कृपाप्रसाद प्राप्त होता है। जैसे अंकुर से बीज और बीज से अंकुर पैदा होता है। भगवान शंकर का कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिए आप सब ब्रह्मर्षि धरती पर सहस्रों वर्षों तक चलने वाले विशाल यज्ञ करो। यज्ञपति भगवान शिव की कृपा से ही विद्या के सारतत्व साध्य-साधन का ज्ञान प्राप्त होता है।
शिवपद की प्राप्ति साध्य और उनकी सेवा ही साधन है तथा जो मनुष्य बिना किसी फल की कामना किए उनकी भक्ति में डूबे रहते हैं, वही साधक हैं। कर्म के अनुष्ठान से प्राप्त फल को भगवान शिव के श्रीचरणों में समर्पित करना ही परमेश्वर की प्राप्ति का उपाय है तथा यही मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र साधन है। साक्षात महेश्वर ने ही भक्ति के साधनों का प्रतिपादन किया है। कान से भगवान के नाम, गुण और लीलाओं का श्रवण, वाणी द्वारा उनका कीर्तन तथा मन में उनका मनन शिवपद की प्राप्ति के महान साधन हैं तथा इन साधनों से ही संपूर्ण मनोरथों की सिद्ध होती है। जिस वस्तु को हम प्रत्यक्ष अपनी आंखों के सामने देख सकते हैं, उसकी तरफ आकर्षण स्वाभाविक है परंतु जिस वस्तु को प्रत्यक्ष रूप से देखा नहीं जा सकता उसे केवल सुनकर और समझकर ही उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया जाता है । अतः श्रवण पहला साधन है। श्रवण द्वारा ही गुरु मुख से तत्व को सुनकर श्रेष्ठ बुद्धि वाला विद्वान अन्य साधन कीर्तन और मनन की शक्ति व सिद्धि प्राप्त करने का यत्न करता है। मनन के बाद इस साधन की साधना करते रहने से धीरे-धीरे भगवान शिव का संयोग प्राप्त होता है और लौकिक आनंद की प्राप्ति होती है |
भगवान शिव की पूजा, उनके नामों का जाप तथा उनके रूप, गुण, विलास के हृदय में निरंतर चिंतन को ही मनन कहा जाता है। महेश्वर की कृपादृष्टि से उपलब्ध इस साधन को ही प्रमुख साधन कहा जाता है।