रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 11 और 12 | rudra sanhita adhyay 11 and 12 in hindi.

नमस्कार दोस्तों आज हम आपको रुद्र संहिता शिवपुराण का अध्याय 11 और 12 की जानकारी देंगे | शिवपुराण की सभी जानकारी हमने आपको बताइ है | आप उन्हे भी पढ़िये |

अध्याय 11 –

शिव पूजन की विधि तथा उसका फल

ऋषि बोले की – 

व्यास शिष्य महाभागव सूत जी! आपको नमस्कार है। आज आपने भगवान शिव की बड़ी अद्भुत एवं परम पावन कथा सुनाई है। दयानिधे! ब्रह्मा और नारद जी के संवाद के अनुसार आप हमें शिवपूजन कि वह विधि बताइए जिससे यहां भगवान शिव संतुष्ट होते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी शिव की पूजा करते हैं। वह पूजन कैसे करना चाहिए? आपने व्यास जी के मुख से इस विषय को जिस प्रकार सुना है वह बताइए।

महर्षियों का यह कल्याण प्रद एवं श्रुति सम्मत वचन सुनकर सूत जी ने उन मुनियों के प्रश्न के अनुसार सब बातें प्रसन्नता पूर्वक बतायीं।

 

सूतजी बोले-

मुनेश्वरों! आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। परंतु वह रहस्य की बात है। मैंने इस विषय को जैसा सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है उसके अनुसार आज कुछ कह रहा हूं। जैसे आप लोग पूछ रहे हैं उसी तरह पूर्व काल में व्यास जी ने सनत्कुमार जी से पूछा था। फिर उसे उपमन्यु जी ने भी सुना था। व्यास जी ने शिव पूजन आदि जो भी विषय सुना था उसे सुनकर उन्होंने लोकहित की कामना से मुझे बता दिया था । इसी विषय को भगवान श्री कृष्ण ने महात्मा उपमन्यु से सुना था। पूर्व काल में ब्रह्मा जी ने नारद जी से इस विषय में जो कुछ कहा था वही इस समय मैं कहूंगा।

ब्रह्मा जी ने कहा –

नारद! मैं संक्षेप से लिंग पूजन की विधि बता रहा हूं, सुनो। जैसा पहले कहा गया है वैसा, जो भगवान शंकर का सुखमय, निर्मल एवं सनातन रूप है, उसका उत्तम भक्ति भाव से पूजन करें। इससे समस्त मनोवांछित फल की प्राप्ति होगी। दरिद्रता, रोग, दुख तथा शत्रु जनित पीड़ा, यह चार प्रकार के कष्ट तभी तक रहते हैं जब तक मनुष्य भगवान शिव का पूजन नहीं करता। भगवान शिव की पूजा होते ही सारे दुख विलीन हो जाते हैं। और समस्त सुखों की प्राप्ति हो जाती है। तत्पश्चात समय आने पर उपासक की मुक्ति भी होती है। जो मानव शरीर का आश्रय लेकर मुख्यतया संतान सुख की कामना करता है, उसे चाहिए कि वह संपूर्ण कार्य और मनोहरथ के साधक महादेव जी की पूजा करें। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी संपूर्ण कामनाओं तथा प्रयोजनों की सिद्धि के लिए क्रम से विधि के अनुसार भगवान शंकर की पूजा करें। प्रातः काल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर गुरु तथा शिव का स्मरण करके तीर्थों का चिंतन एवं भगवान विष्णु का ध्यान करें। फिर मेरा, देवताओं का और मुनि आदि का भी स्मरण चिंतन करके स्त्रोत पाठ पूर्वक शंकर जी का विधि पूर्वक नाम ले।

 

उसके बाद शैया से उठकर निवास स्थान से दक्षिण दिशा में जाकर मल त्याग करें। एकांत में मल विसर्जन करना चाहिए। उसे शुद्ध होने के लिए जो विधि मैंने सुन रखी है, उसी को आज कहता हूं। मन को एकाग्र करके सुनो। ब्राह्मण गुदा की शुद्धि के लिए उसे 5 बार शुद्ध मिट्टी का लेप करें और क्षत्रिय चार बार, वैश्य तीन बार और शूद्र दो बार विधिपूर्वक गुदा की शुद्धि के लिए उसमें मिट्टी लगाएं। दोनों हाथों में भी मिट्टी लगा कर धोएँ। स्त्रियों को शुद्र की भांति अच्छी तरह मिट्टी लगानी चाहिए। हाथ पैर धोकर पुरवा शुद्ध मिट्टी ले और उसे लगाकर दांत साफ करें। फिर अपने वर्ण के अनुसार मनुष्य दतुवन करें। ब्राह्मण को 12 अंगुल की दातुन करनी चाहिए, क्षेत्रीय 11 अंगुल वैश्य 10 अंगुल और शूद्र की नो अंगुल करें। यह दतुवन का मान बताया गया है। मनुस्मृति के अनुसार काल दोष का विचार करके ही दतुअन करें या त्याग दें। तात्! सष्टी, प्रतिपदा, अमावस्या, नवमी, व्रत का दिन, सूर्यास्त का समय, रविवार का श्राद्ध दिवस यह दंत धवन के लिए वर्जित हैं। इनमें दतुवन नहीं करना चाहिए। उसके पश्चात तीर्थों के जल से आदि में जाकर विधि पूर्वक स्नान करना चाहिए। विशेष देशकाल आने पर मंत्रोच्चारण पूर्वक स्नान करना उचित है। स्नाम के पश्चात, पहले आचमन करके वह वस्त्र धारण करें। फिर सुंदर एकांत स्थान में बैठकर संध्या विधि का अनुष्ठान करें। यथा योग्य संध्या विधि का पालन करके पूजा का कार्य आरंभ करें।

मन को सुस्थिर करके पूजा गृह में प्रवेश करें। वहां पूजन सामग्री लेकर सुंदर आसन पर बैठे। पहले न्यास आदि करके क्रम से हर महादेव जी की पूजा करें। शिव की पूजा से पहले गणेश जी की, द्वारपालों की और दिग्पालों की भी भली-भांति पूजा करके पीछे देवता के लिए पीठ स्थान की कल्पना करें अथवा अष्टदल कमल बना कर पूजा द्रव्य के समीप बैठे और उस कमल पर ही भगवान शिव को समाशीन करें। तत्पश्चात 3 आचमन करके पुनः दोनों हाथ धोकर 3 प्रणायाम करके मध्यम प्रणव अर्थात कुंभक करते समय त्रिनेत्र धारी भगवान शिव का इस प्रकार ध्यान करें- उनके पांच मुख है, 10 भुजाएं हैं, शुद्ध स्फटिक के समान कांति है, सब प्रकार के आभूषण उनके श्री अंगों को विभूषित करते हैं। तथा वे व्याघ्र चर्म की चादर ओढ़े हुए हैं। इस तरह ध्यान करके यह भावना करें कि मुझे भी इनके समान ही रूप प्राप्त हो जाए। ऐसी भावना करके मनुष्य सदा के लिए अपने पाप को भस्म कर डाले। इस प्रकार भावना द्वारा शिव का ही शरीर धारण करके उन परमेश्वर की पूजा करें।

रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 11
रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 11

शरीर शुद्धि करके मूल मंत्र का कर्मशः न्यास करें अथवा सर्वत्र प्रणव से ही सडंग न्यास करें। ॐ अद्यत्यादि रूप से संकल्प वाक्य का प्रयोग करके फिर पूजा आरंभ करें। पाद्य, अर्ध्य और आचमन के लिए पात्रों को तैयार करके रखें। बुद्धिमान पुरुष विधि पूर्वक भिन्न भिन्न प्रकार के नौ कलश स्थापित करें। उन्हें कुशाओं से ढक कर रखें और कुशाओं से ही जल लेकर उन सब का प्रोक्षण करें। तत्पश्चात उन सभी पात्रों में शीतल जल डाले। खस और चंदन को वाद्य पात्र में रखे। चमेली के फूल, शीतल चीनी, कपूर, बड़ की जड़ और तमाल इन सब को यथोचित रूप से कूट पीसकर चूर्ण बना लें। और आचमनीय के पात्र में डालें। इलाइची और चंदन को तो सभी पात्रों में डालना चाहिए।

 

देवादि देव महादेव जी के पार्श्व भाग में नंदिश्वर का पूजन करें। गंध, धूप और भांति भांति के द्विपो द्वारा शिव की पूजा करें। फिर लिनग शुद्धि करके मनुष्य प्रसन्नता पूर्वक मंत्र समूहों के आदि में प्रणव तथा अंत में नमः पद जोड़ करके उनके द्वारा इष्टदेव के लिए यथोचित आसन की कल्पना करें। फिर प्रणव से पद्मासन की कल्पना करके यह भावना करें कि इस कमल का पूर्व दल साक्षात अणिमा नामक ऐश्वर्यरूप तथा अविनाशी है। दक्षिणा दल लघिमा है। और पश्चिमी दल महिमा है, उत्तरदल प्राप्ति है। अग्नि कोण का दल पराक्रम्य है। नेतृत्व् कोण का दल ईश्त्व है। वायव्य कोण का दल वशित्व है, ईशान कोण का दल सर्वज्ञत है और उस कमल की करनिका को सोम कहा जाता है। सोम के नीचे सूर्य है, सूर्य के नीचे अग्नि है और अग्नि के नीचे धर्म आदि के स्थान है। क्रमशः से ऐसी कल्पना करने के पश्चात चारों दिशाओं में अव्यक्त महतत्व अहंकार और उनके विकारों की कल्पना करें। सोम के अंत में सत,रज और तम इन तीनों गुणों की कल्पना करें। इसके बाद सद्योजातम प्रज्ञामी इत्यादि मंत्र से परमेश्वर शिव का आवाहन करें। ॐ वामदेवाय नमः इत्यादि वामदेव मंत्र से उनको आसन पर विराजमान करें। फिर ॐ ततपुरुषाय वैदेही इत्यादि रूद्र गायत्री द्वारा इष्ट देव का सानिध्य प्राप्त करके उन्हें अघोरभ्य इत्यादि अघोर मंत्र से वहां निरूद्ध करें। फिर इशानाम सर्वविद्यानाय् इत्यादि मंत्र से आराध्य देव का पूजन करें। पाद्य और आचमनीयं अर्पित कर के अर्द्ध दे। तत्पश्चात गंध और चंदन मिश्रित जल से विधि पूर्वक रूद्रदेव को स्नान कराएं। पंचगव्य निर्माण की विधि से पांचों दर्व्यों को एक पत्र में लेकर प्रणव से ही अभिमंत्रित करके उन मिश्रित गव्य पदार्थों द्वारा भगवान को नहलाएं। तत्पश्चात प्रथक प्रथक दूध, दही,मधु, घी, गन्ने के रस से नहलाकर समस्त अभिष्टों के दाता और हितकारी पूजनीय महादेव जी का प्रणव के उच्चारण पूर्वक पवित्र द्रव्यों द्वारा अभिषेक करें। पवित्र जल पात्रों में मंत्रोच्चारण पूर्वक जल डालें। डालने से पहले साधक श्वेत वस्त्र से उस जल को यथोचित रीति से छान लें। उस जल को तब तक दूर न करें जब तक ईष्ट देव को चंदन न चढ़ा दे। तब सुन्दर द्वारा प्रसन्नता पूर्वक शंकर जी की पूजा करें। उनके ऊपर कुश, अपामार्ग, कपूर, चमेली, चंपा, कनेर, कमल आदि चढाएँ और पूजा करें।परमेश्वर शिव के ऊपर जल की धारा की व्यवस्था करें, जल के द्वारा मंत्रोच्चारण पूर्वक पूजा करनी चाहिए यह समस्त फलों को देने वाली होती है

भगवान शिव की श्रेष्ठता तथा उनके पूजन की अनिवार्य आवश्यकता का प्रतिपादन

 

अध्याय बारह – 

 

नारद जी बोले –

ब्रह्म! प्रजापति! आप धन्य हैं, क्योंकि आपकी बुद्धि भगवान शिव में लगी हुई है। विधे! आप पुनः इसी विषय का सम्यक प्रकार से विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिए।

ब्रह्मा जी ने कहा –

तात! एक समय की बात है मैं सब और से ऋषियों तथा देवताओं को बुलाकर उन सब को क्षीर सागर के तट पर ले गया जहां सबका हित साधन करने वाले भगवान विष्णु निवास करते हैं।

 

वहां देवताओं के पूछने पर भगवान विष्णु ने सबके लिए शिवपूजन की ही श्रेष्ठता बतला कर कहा कि एक मुहूर्त या एक क्षण भी जो शिव का पूजन नहीं किया जाता वहीं हानि है, वही महान छिद्र है, वही अंधापन और वही मूर्खता है। जो भगवान शिव की भक्ति में तत्पर है, जो मन से उन्हीं को प्रणाम और उन्हीं का चिंतन करते हैं, वे कभी दुख के भागी नहीं होते। जो महान सौभाग्यशाली पुरुष, मनोहर भवन, सुंदर आभूषणों से विभूषित स्त्रियां, जितना मन को संतोष हो उतना धन, पुत्र पौत्र आदि संतति, आरोग्य सुंदर शरीर, अलौकिक प्रतिष्ठा, स्वर्गीय सुख, अंत में मोक्ष रूपी फल अथवा परमेश्वर शिव की भक्ति चाहते हैं वे पूर्व जन्म के पुण्य से भगवान शिव की पूजा में प्रवृत्त होते हैं। जो पुरुष भक्ति परायण हो शिवलिंग की पूजा करता है उसको सफल सिद्धी प्राप्त होती है, तथा वह पापों के चक्कर में नहीं पड़ता।

 

भगवान के इस प्रकार उपदेश देने पर देवताओं ने श्रीहरि को प्रणाम किया और मनुष्यों की समस्त कामनाओं की पूर्ति के लिए उनसे शिवलिंग देने के लिए प्रार्थना की। मुनिश्रेष्ठ! उस प्रार्थना को सुनकर जीवों के उद्धार में तत्पर रहने वाले भगवान विष्णु ने विश्वकर्मा को बुलाकर कहा- विश्वकर्मा! तुम मेरी आज्ञा से संपूर्ण देवताओं को सुन्दर शिवलिंग का निर्माण करके दो। तब विश्वकर्मा ने मेरी ओर श्री हरि की आज्ञा के अनुसार देवताओं को उनके अधिकार के अनुसार शिवलिंग बनाकर दिए।

 

मुन्नीश्रेष्ठ नारद! किस देवता को कौनसा शिवलिंग प्राप्त हुआ इसका वर्णन आज मैं कर रहा हूँ। इन्द्र पद्मराग मणी के बने हुए शिवलिंग की और कुबेर सुवर्ण मय लिंग की पूजा करते हैं। धर्म पीतमणिमय (पुखराज के बने हुए) लिंग की तथा वरुण श्याम वर्ण के शिवलिंग की पूजा करते हैं। भगवान विष्णु इंद्रनीलमय तथा ब्रह्म हेममय लिंग की पूजा करते हैं। विश्वदेव गण चांदी के शिवलिंग की, वसूगण पीतल के बने हुए लिंग की तथा दोनों अश्विनी कुमार पार्थिव लिंग की पूजा करते हैं। लक्ष्मी देवी स्फटिक मय लिंग की , आदित्यगण ताम्रमय लिंग की, राजा सोम मोती के बने हुए लिंग की तथा अग्नि देव वज्र (हीरे) के लिंग उपासना करते हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मण और उनकी पत्नियां और मिट्टी के बने शिवलिंग का, मयासुर चन्दन निर्मित शिवलिंग का, और नागगण मूंगे के बने हुए शिवलिंग का आदरपूर्वक पूजन करते हैं, देवी मक्खन के बने हुए शिवलिंग की, योगीजन भस्ममय लिंग की, यक्षगण दधिनिर्मित लिंग की, छाया देवी आटे से बने हुए लिंग की, ब्रह्मा पत्नी रत्नमय शिवलिंग की निश्चितपूर्वक पूजा करती हैं। बाणासुर पारद या पार्थिव लिंग की पूजा करता है।दूसरे लोग भी ऐसा ही करते हैं। ऐसे ऐसे शिवलिंग बनाकर विश्वकर्मा ने विभिन्न लोगों को दिए तथा वे सब देवता और ऋषि उन लिंगों की पूजा करते हैं।

भगवान विष्णु ने इस तरह देवताओं को उनके हित की कामना से शिवलिंग देकर उनसे और मुझ ब्रह्मा से पिनाकधारी महादेव के पूजन की। विधि भी बताई। पूजन-विधि संबंधी उनके वचनों को सुनकर देवशिरोमणियों सहित मैं ब्रह्मा ह्रदय में हर्ष लिए अपने धाम आ गया। मुन्ने!वहां आकर मैंने समस्त देवताओं और ऋषियों को शिव पूजा की उत्तम विधि बताई, जो सम्पूर्ण अभिष्ट वस्तुओं को देने वाली हैं।

 

उस समय मुझ ब्रह्मा ने कहा –

देवताओं सहित समस्त ऋषियों! तुम प्रेम परायण होकर सुनो, मैं प्रसन्नता पूर्वक तुमसे शिव पूजन की उस विधि का वर्णन करता हूं, जो भोग और मोक्ष देने वाली है। देवताओं और मुनीश्वरों! समस्त जंतुओं में मनुष्य जन्म प्राप्त करना प्रायः दुर्लभ है। उनमें भी उत्तम कुल में जन्म हो तो और भी दुर्लभ है। उत्तम कुल में भी आचारवान ब्राह्मणों के यहां उत्पन्न होना उत्तम पुण्य से ही संभव है। यदि वैसा जन्म सुलभ हो जाए तो भगवान शिव के संतोष के लिए उत्तम कर्म का अनुष्ठान करें, जो अपने वर्ण और आश्रम के लिए शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित है।

 

जिस जाति के लिए जो कर्म बताया गया है उसका उल्लंघन ना करें। जितनी संपत्ति हो उसके अनुसार ही दान करें। कर्ममय सहस्रों यज्ञों से तपो यज्ञ बढ़कर है। सहस्त्रों तपो यज्ञ से जप यज्ञ का महत्व अधिक है। ध्यान यज्ञ से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है। ध्यान ज्ञान का साधन है, क्योंकि योगी ध्यान के द्वारा अपने इष्टदेव समरस शिव का साक्षात्कार करता है। ध्यान यज्ञ में तत्पर रहने वाले उपासक के लिए भगवान शिव सदा ही सन्निहित हैं। जो विज्ञान से संपन्न है उन पुरुषों की शुद्धि के लिए किसी प्रयाश्चित की आवश्यकता नहीं है।

 

मनुष्य को जब तक ज्ञान की प्राप्ति न हो, तब तक वह विश्वास दिलाने के लिए कर्म से ही भगवान शिव की आराधना करें। जगत के लोगों को एक ही परमात्मा अनेक रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। एकमात्र भगवान सूर्य एक स्थान में रहकर भी जलाशय आदि विभिन्न वस्तुओं में अनेक से दिखते हैं। देवताओं! संसार में जो जो सत्य या असत्य वस्तु देखी या सुनी जाती है वह सब पर ब्रह्म शिव स्वरूप ही है- ऐसा समझो। जब तक तत्वज्ञान ना हो जाए, तब तक प्रतिमा की पूजा आवश्यक है। ज्ञान के अभाव में जो भी प्रतिमा पूजा की अवहेलना करता है उसका पतन निश्चित है। इसलिए ब्राह्मणों! यह यथार्थ बात सुनो अपनी जाति के लिए जो कर्म बताया गया है उसका प्रयत्न पूर्वक पालन करना चाहिए।

 

जहां जहां यथावत भक्ति हो उस उस आराध्य देव का पूजन आदि अवश्य करना चाहिए; क्योंकि पूजन और दान आदि के बिना पातक दूर नहीं होते। जैसे मैले कपड़ों में रंग बहुत अच्छा नहीं चढ़ता है, परंतु जब उसको धोकर स्वच्छ कर लिया जाता है, तब उस पर रंग अच्छी तरह चढ़ते हैं। इसी प्रकार देवताओं की भली भांति पूजा से त्रिविध शरीर पूर्णतया निर्मल हो जाता है, तभी उस पर ज्ञान का रंग चढ़ता है। और तभी विज्ञान का प्राकट्य होता है। जब विज्ञान हो जाता है तब भेदभाव की निवृत्ति हो जाती है। भेद की संपूर्णता निवृत्ति हो जाने पर द्वन्द-दुख दूर हो जाते हैं, और द्वन्द्व-दुख से रहित पुरुष शिवरुप हो जाता है।

 

मनुष्य जब तक ग्रहस्थ आश्रम मे रहे, तब तक पांचों देवताओं की तथा उनमें श्रेष्ठ भगवान शंकर की प्रतिमा की पूजा करें। अथवा जो सब की एकमात्र मूल हैं उन भगवान शिव की पूजा सबसे बढ़कर है; क्योंकि मूल के सींचे जाने पर शाखा स्थानीय संपूर्ण देवता स्वतः तृप्त हो जाते हैं। अतः जो संपूर्ण मनोवांछित फलों को पाना चाहता है वह अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिए समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहकर लोक कल्याणकारी भगवान शंकर का पूजन करें।

 

 

 

 

 

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