नमस्कार दोस्तो आज हम आपको शिवपुराण रुद्र संहिता के सती खण्ड के बारेमे बताने वाले है |
दोस्तों रुद्र संहिता मे दूसरा खंड है सती खण्ड और सती खण्ड के अध्याय 5 से लेकर अध्याय 7 तक की जानकारी हम आपको बताने वाले है |
अध्याय 5 –
महात्मा वशिष्ठ की यह बात सुनकर संध्या ने उन महात्मा की ओर देखा। वे अपने तेज से प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था मानव ब्रह्मचर्य देह धारण करके आ गया हो। वे मस्तक पर जटा धारण किए बड़ी शोभा पा रहे थे। संध्या ने उन तपोधन को आदर पूर्वक प्रणाम करके कहा।
संध्या बोली –
ब्राह्मण! मैं ब्रह्मा जी की पुत्री हूं। मेरा नाम संध्या है। मैं तपस्या करने के लिए इस निर्जन पर्वत पर आई हूं। यदि मुझे उपदेश देना आपको उचित जान पड़े तो आप मुझे तपस्या की विधि बताइए। मैं यही करना चाहती हूं। दूसरी कोई भी गोपनीय बात नहीं है। मैं तपस्या के भाव को करने के नियम को बिना जाने ही तपोवन में आ गई हूं। इसलिए चिंता से सुखी जा रही हूं और मेरा ह्रदय कांपता है।
संध्या की बात सुनकर ब्रह्मावेताओं में श्रेष्ठ वशिष्ठ ने जो सारे कार्यों के ज्ञाता थे। उससे दूसरी कोई बात नहीं पूछी। वह मन ही मन तपस्या का निश्चय कर चुकी थी। और उसके लिए अत्यंत उद्यमशील थी। उस समय वशिष्ठ ने मनसे भक्तवत्सल भगवान शंकर का स्मरण करके इस प्रकार कहा।
वशिष्ठ जी बोले –
शुभानने! जो सबसे महान और उत्कृष्ट तेज हैं उत्तम और महान तप हैं, परमआराध्य परमात्मा है, शंभू को तुम ह्रदय में धारण करो। जो अकेले ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के आदि कारण हैं, उन त्रिलोकी के आदिस्त्रस्टा हैं। अद्वितीय पुरुषोत्तम शिव का भजन करो। आगे बताए जाने वाले मंत्र से देवेश्वर शंभू की आराधना करो। उससे तुम्हें सब कुछ मिल जाएगा इसमें संशय नहीं है। “ॐ नमः शंकराय ॐ” इस मंत्र का निरंतर जप करती हुई मौन तपस्या आरंभ करो और जो मैं नियम बताता हूं उन्हें सुनो। तुम्हें मौन रहकर ही स्नान करना होगा। मौनालम्बनपूर्वक पूर्वक ही महादेव जी की पूजा करनी होगी। प्रथम दो बार छठे समय में तुम केवल जल का पूर्ण आहार कर सकती हो। जब तीसरी बार छठा समय आए तब केवल उपवास किया करो। इस तरह तपस्या की समाप्ति तक छठे काल में जलाहार व उपवास की क्रिया होती रहेगी। इस प्रकार की जाने वाली मौन तपस्या ब्रह्मचर्य का फल देने वाली तथा संपूर्ण अभीष्ट मनोहरथों को पूर्ण करने वाली होती है। यह सत्य है इसमें संशय नहीं है। अपने चित में ऐसा शुभ उद्देश्य लेकर इच्छा अनुसार शंकर जी का चिंतन करो। वे प्रसन्न होने पर तुम्हें अवश्य ही अभीष्ट फल प्रदान करेंगे।
इस तरह संध्या को तपस्या करने की विधि का उपदेश दे यथोचित रूप से उस से विदा ले वही अंतर्ध्यान हो गए।
अध्याय 6 –
संध्या की तपस्या, उसके द्वारा भगवान शिव की स्तुति तथा उससे संतुष्ट हुए शिव का उसे अभीष्ट वर दे मेधातिथि के यज्ञ में भेजना
ब्रह्मा जी कहते हैं –
मेरे पुत्रों में श्रेष्ठ महाप्रज्ञ नारद! तपस्या के नियम का उपदेश दे जब वशिष्ठ जी अपने घर चले गए तब तप के उस विधान को समझकर संध्या मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई। फिर तो वह सानंद मन से तपस्विनी के योग्य वेश बनाकर बृहल्लोहित सरोवर के तट पर ही तपस्या करने लगी। वशिष्ट जी ने तपस्या के लिए जिस मंत्र को साधन बताया था उसी से उत्तम भक्ति भाव साथ वह भगवान शंकर की आराधना करने लगी। उसने भगवान शिव में अपने चित को लगा दिया और एकाग्र मन से वह बड़ी भारी तपस्या करने लगी। उस तपस्या में लगी हुई उसके चार युग व्यतीत हो गए। तब भगवान शिव उसकी तपस्या से संतुष्ट हो बड़े प्रसन्न हुए तथा बाहर भीतर और आकाश में अपने स्वरूप का दर्शन करा कर जिस रूप का वह चिंतन करती थी उसी रूप से उसकी आंखों के सामने प्रकट हो गए। उसने मन से जिनका चिंतन किया था उन्हीं प्रभु शंकर को सामने खड़ा देख वह अत्यंत आनंद में नीमग्न हो गई। भगवान का मुखारविंद बड़ा प्रसन्न दिखाई देता था। उनके स्वरूप से शाँति बरस रही थी। वह सहसा भयभीत हो सोचने लगी कि मैं भगवान हर से क्या कहूं? किस तरह उनकी स्तुति करूं? इसी चिंता में पढ़ कर उसने अपने दोनों नेत्र बंद कर लिए। नेत्र बंद कर लेने पर भगवान शिव ने उस के ह्रदय में प्रवेश करके उसे दिव्य ज्ञान दिया, दिव्य वाणी और दिव्य दृष्टि प्रदान की। जब उसे दिव्य ज्ञान, दिव्य दृष्टि और दिव्य वाणी प्राप्त हो गई तब वह कठिनाई से ज्ञात होने वाले जगदीश्वर शिव को प्रत्यक्ष देखकर उनकी करने लगी।
संध्या बोली –
जो निराकार और परम ज्ञान गम्य हैं, जो न तो स्थूल हैं न सूक्ष्म हैं, और न उच्च ही हैं तथा जिनके स्वरूप का योगी जन ह्रदय के भीतर चिंतन करते हैं, उन्हीं लोकस्त्रटा आप भगवान शिव को नमस्कार है। जिन्हें सर्व कहते हैं, शांत स्वरूप, निर्मल, निर्विकार और ज्ञान गम्य हैं, जो अपने ही प्रकाश में स्थित हो प्रकाशित होते हैं, जिनमें विकार का अत्यंत अभाव है, जो आकाश मार्ग की भांति निर्गुण, निराकार बताए गए हैं तथा जिनका रूप अज्ञान अंधकारकार मार्ग से सर्वदा परे हैं, उन नित्य प्रसन्न आप भगवान शिव को मैं प्रणाम करती हूं। जिनका रूप एक ,अद्वितीय, शुद्ध, बिना माया के प्रकाशमान, सच्चिदानंदमय, सहज निर्विकार, नित्यानंदमय, सत्य ऐश्वर्य से युक्त, प्रसन्न और माता लक्ष्मी को देने वाला है, आप भगवान शिव को नमस्कार है। जिनके स्वरूप की ज्ञान रूप से ही उद्भावना की जा सकती है, जो जगत से सर्वथा भिन्न है, एवं सत्य प्रधान, ध्यान के योग्य, आत्म स्वरूप, सार भूत, सब को पार लगाने वाले तथा पवित्र वस्तुओं में भी परम पवित्र हैं उन्हें आप महेश्वर को मेरा नमस्कार है। आप का जो स्वरूप शुद्ध, मनोहर, रत्न में आभूषणों से विभूषित तथा कर्पूर के समान गौर वर्ण है, जिसने अपने हाथों में वर, अभय, शूल और मुंड धारण कर रखा है, उस दिव्य, चिन्मय, सगुण, साकार विग्रह से शुशोभित आप योग युक्त भगवान शिव को नमस्कार है। आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज और काल ये जिनके रूप हैं उन आप परमेश्वर को नमस्कार* है।
प्रधान (प्रकृति) और पुरुष जिनके शरीर रूप से प्रकट हुए हैं अर्थात वे दोनों जिनके शरीर हैं, इसलिए जिनका यथार्थ रूप अव्यक्त (बुद्धि आदि से परे) हैं, उन भगवान शंकर को बारंबार नमस्कार है। जो ब्रह्मा होकर जगत की सृष्टि करते हैं, जो विष्णु होकर जगत का पालन करते हैं तथा जो रूद्र होकर अंत में इस सृष्टि का सहार करेंगे, भगवान सदाशिव को बारंबार नमस्कार है। जो कारण के भी कारण हैं, दिव्य अमृत रूप ज्ञान तथा अणिमा आदि ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं। समस्त लोकान्तरों का वैभव देने वाले हैं, स्वयं प्रकाश रूप हैं तथा प्रकृति से भी परे हैं उन परमेश्वर शिव को नमस्कार है, नमस्कार है।
यह जगत जिनसे भिन्न नहीं कहा जाता। जिनके चरणों से पृथ्वी तथा अन्यान्य अंगों से संपूर्ण दिशाएं, सूर्य, चंद्रमा, कामदेव एवं अन्य देवता प्रकट हुए हैं और जिनकी नाभि से अंतरिक्ष का आविर्भाव हुआ है, उन्हीं आप भगवान शंभू को मेरा नमस्कार है । प्रभो! आप ही सबसे उत्कृष्ट परमात्मा हैं, आप ही नाना प्रकार की विधाएं हैं, आप ही हर (संहारकर्ता) हैं, आप ही शब्द ब्रह्मा तथा परब्रह्मा हैं, आप सदा विचार में तत्पर रहते हैं। जिनका न आदि है, ना मध्य है और ना अंत ही है। जिन से सारा जगत उत्पन्न हुआ है तथा जो मन और वाणी के विषय नहीं है उन महादेव जी की स्तुति मैं कैसे कर सकूँगी?
ब्रह्मा जी आदि देवता तथा तपस्या के धनी मुनि भी जिनका वर्णन नहीं कर सकते , उन ईश्वर का वर्णन अथवा स्तवन में कैसे कर सकती हूं? प्रभु! आप निर्गुण हैं, मैं मूड स्त्री आपके गुणों को कैसे जान सकती हूं? आपका रूप तो ऐसा है जिसे इंद्र सहित संपूर्ण देवता और असुर भी नहीं जानते है। महेश्वर आपको नमस्कार है तपोमय! आपको नमस्कार है। देवेश्वर शंभू मुझ पर प्रसन्न होइए। आपको बारंबार मेरा नमस्कार है।
ब्रह्मजी कहते हैं –
नारद! संध्या का यह स्तुति प्रवचन सुनकर उसके द्वारा भली-भांति प्रसंशित हुए भक्तवत्सल परमेश्वर शंकर बहुत प्रसन्न हुए। उनका शरीर वल्कल और मृग चरम से ढका हुआ था। मस्तक पर पवित्र जटा जूट शोभा पा रहे थे। उस समय पाले के मारे हुए कमल के समान उसके कुमलाए हुए मुंह को देखकर भगवान हर दया से द्रवित हो उससे इस प्रकार बोले।
महेश्वर ने कहा –
भद्रे! मैं तुम्हारी इस उत्तम तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। शुद्ध बुद्धि वाली देवी! तुम्हारे इस स्तवन से भी मुझे बड़ा संतोष प्राप्त हुआ है। अतः अपनी इच्छा के अनुसार कोई वर मांगो। जिस वर से तुम्हें प्रयोजन हो तथा जो तुम्हारे मन में हो उसे मैं यहां अवश्य पूर्ण करूंगा। तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुम्हारे व्रत नियम से बहुत प्रसन्न हूं।
प्रसन्न चित्त महेश्वर का यह वचन सुनकर अत्यंत हर्ष से भरी हुई संध्या बारम्बार प्रणाम करके बोली- महेश्वर! यदि आप मुझे प्रसन्नता पूर्वक वर देना चाहते हैं, मैं वर पाने के योग्य हूं, यदि पाप से शुद्ध हो गई हूं तथा यदि इस समय आप मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं, तो मेरा मांगा हुआ यह पहला वर सफल करें। देवेश्वर! इस आकाश में पृथ्वी आदि किसी भी स्थान में जो प्राणी हैं वे सब के सब जन्म लेते ही काम भाव से युक्त न हो जाएं। नाथ! मेरी सकाम दृष्टि कहीं ना पड़े। मेरे जो पति हों वे भी मेरे अत्यंत सुह्रद् हों। पति के अलावा जो भी पुरुष मुझे काम भाव से देखें उसके पुरुसत्व का नाश हो जाए- तत्काल नपुसंक हो जाए।
निष्पाप संध्या का यह वचन सुनकर भक्त वत्सल भगवान शंकर ने कहा- देवी! सुनो भद्रे! तुमने जो जो वर मांगा है वह सब तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट होकर मैंने दे दिया है। जीवन में मुख्यतः चार अवस्थाएं होती हैं पहली शैशवावस्था, दूसरी कौमारअवस्था, तीसरी युवावस्था और चौथी वृद्धावस्था। तीसरी अवस्था प्राप्त होने पर देहधारी जीव काम भाव से युक्त होंगे। कहीं कहीं दूसरी अवस्था के अंतिम भाग में भी प्राणी सकाम हो जायेंगे। तुम्हारी तपस्या के प्रभाव से मैंने जगत में सकाम भाव के उदय कि यह मर्यादा स्थापित कर दी है। जिससे देहधारी जन्म लेते ही सकाम भाव से युक्त न हो जाएं। तुम भी इस लोक में वैसे दिव्य सती भाव को प्राप्त करो जैसा इस लोक में किसी दूसरी किसी स्त्री के लिए संभव नहीं होगा। पाणिग्रहण करने वाली पति के सिवा जो कोई भी पुरुष सकाम हो कर तुम्हारी और देखेगा वह तत्काल नपुसंक होकर दुर्बलता को प्राप्त हो जाएगा। तुम्हारे पति महान तपस्वी तथा दिव्य रूप से संपन्न एक महाभाग महर्षी होंगे जो तुम्हारे साथ सात कल्पों तक जीवित रहेंगे। तुमने मुझसे जो जो वर मांगे थे वह सब मैंने पूर्ण कर दिए।
अब मैं तुमसे दूसरी बात कहूंगा जो पूर्व जन्म से संबंध रखती है। तुमने पहले से ही यह प्रतिज्ञा कर रखी है कि मैं अग्नि में अपने शरीर को त्याग दूंगी। उस प्रतिज्ञा को सफल करने के लिए मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूं। उसे निसंदेह करो। मुनिवर मेधातिथि का एक यज्ञ चल रहा है जो बारह वर्षों तक चालू रहने वाला है। उसमें अग्नि पूर्णतया प्रज्वलित है। तुम बिना विलंब किए उसी अग्नि में अपने शरीर का उत्सर्ग कर दो। इसी ऊंची पर्वत की उपत्यका में चंद्रभागा नदी के तट पर आश्रम में मुनिवर मेधातिथि महायज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। तुम स्वच्छंदता पूर्वक वहाँ जाओ। मुनि तुम्हें वहां देख नहीं सकेंगे। मेरी कृपा से तुम मुनि की अग्नि से प्रकट हुई पुत्री होगी। तुम्हारे मन मे जिस स्वामी को प्राप्त करने की इच्छा हो उसे ह्रदय में धारण कर उसी का चिंतन करते हुए शरीर को उसी यज्ञ की अग्नि में होम दो।
जब तक तुम इस पर्वत पर चार युगों तक के लिए कठोर तपस्या कर रही थी उन्हीं दिनों चतुरयुगों का सत्य युग बीत जाने पर त्रेता के प्रथम भाग में प्रजापति दक्ष के कई कन्याएं हुईं। उन्होंने अपनी उन सुशीला कन्याओं का यथा योग्य वरों के साथ विवाह कर दिया। सताइस कन्याओं का विवाह उन्होंने चंद्रमा के साथ किया। चन्द्रमा अपनी अन्य सब पत्नियों को छोड़कर केवल रोहिणी से प्रेम करने लगे। इसके कारण क्रोध से भरे हुए दक्ष ने जब चंद्रमा को श्राप दे दिया।
देवता तुम्हारे पास आए परंतु संध्ये! तुम्हारा मन तो मुझ में लगा हुआ था अतः तुमने ब्रह्मा जी के साथ आए हुए उन्हें देवताओं पर दृष्टिपात ही नहीं किया। तब ब्रह्मा जी ने आकाश की ओर देखकर और चंद्रमा पुनः अपने स्वरूप को प्राप्त करें, ये उद्देश्य रखकर उन्हें शाप से छुड़ाने के लिए एक नदी की सृष्टि की, जो चंद्रभागा नदी के नाम से विख्यात हुई। चंद्रभागा के प्रादुर्भाव काल में ही मेधातिथि यहां उपस्थित हुए थे। तपस्या के द्वारा उनकी समानता करने वाला न तो कोई हुआ है और न ही है और ना होगा। उन महर्षि ने महान विधि विधान के साथ दीर्घकाल तक चलने वाले जोतिष्टाम नामक यज्ञ का आरंभ किया है। अग्निदेव पूर्ण रूप से प्रचलित हो रहे हैं। उसी आग में तुम अपने शरीर को डाल दो और परम पवित्र हो जाओ। ऐसा करने से इस समय तुम्हारी वह प्रतिज्ञा पूर्ण हो जाएगी। इस प्रकार संध्या को उसके हित का उपदेश देकर देवेश्वर भगवान शिव वही अंतर्ध्यान हो गए।
अध्याय 7 –
संध्या की आत्माहुति, उसका अरुंधति के रूप में अवतरण होकर मुनि वशिष्ट के साथ विवाह करना, ब्रह्मा जी का रूद्र के विवाह के लिए प्रयत्न और चिंता तथा भगवान विष्णु का उन्हें शिवा की आराधना के लिए उपदेश देकर चिंता मुक्त करना
ब्रह्मा जी कहते हैं –
नारद! जब वर दे कर भगवान शंकर अंतर्ध्यान हो गए,तब संध्या भी उसी स्थान पर गई जहां मुनि मेधातिथि यज्ञ कर रहे थे। भगवान शंकर की कृपा से उसे किसी ने वहां नहीं देखा। उसने उस तेजस्वी ब्रह्मचारी का स्मरण किया जिसने उसे तपस्या की विधि का उपदेश दिया था। महामुने! पूर्व काल में महर्षि वशिष्ठ ने मुझ परमेष्ठी की आज्ञा से एक तेजस्वी ब्रह्मचारी का वेश धारण करके उसे तपस्या करने के लिए उपयोगी नियमों का उपदेश दिया था। संध्या अपने को तपस्या का उपदेश देने वाले उन्हें ब्रह्मचारी ब्राह्मण वशिष्ठ को पति रूप से मन में रखकर उस महायज्ञ में प्रज्वलित अग्नि के समीप गई। भगवान शंकर की कृपा से मुनियों ने उसे नहीं देखा। ब्रह्मा जी की वह पुत्री बड़े हर्ष के साथ उस अग्नि में प्रविष्ट हो गई। उसका पुरोडाशमय शरीर तत्काल दग्ध हो गया। उस पुरोडाश की अलक्षित गंध सब और फैल गई। अग्नि ने भगवान शंकर की आज्ञा से उसके सुवर्ण शरीर को जलाकर शुद्ध करके सूर्यमंडल में पहुंचा दिया। तब सूर्य ने पितरों और देवताओं की तृप्ति के लिए उसे दो भागों में विभक्त कर के अपने रथ में स्थापित कर दिया।
मुनेश्वर! उसके शरीर का ऊपरी भाग प्रातः संध्या हुआ, जो दिन और रात के बीच में पढ़ने वाली आदि संध्या है। शरीर का शेष भाग सांय संध्या हुआ,जो दिन और रात के मध्य होने होने वाली अंतिम संध्या है। संध्या सदा ही पितरों को प्रसन्नता प्रदान करने वाली होती है। सूर्योदय से पहले जब अरुणोदय हो, प्राची में लाली छा जाए तो प्रातः संध्या प्रकट होती है, जो देवताओं को प्रसन्न करने वाली है। जब लाल कमल के समान सूर्य अस्त हो जाते हैं उसी समय सदा सांय संध्या का उदय होता है। जो पितरों को आनंद प्रदान करने वाली है।
परम दयालु भगवान शिव ने उसके मन सहित प्राणों को दिव्य शरीर से युक्त देहधारी बना दिया। जब मुनि की यज्ञ की समाप्ति का अवसर आया तब वह अग्नि की ज्वाला में महर्षि मेधातिथि को तपे हुए सुवर्ण की सी कांति वाली पुत्री के रूप में प्राप्त हुई। उसने बड़े आमोद के साथ उस समय उस पुत्री को ग्रहण किया। मुन्ने! उन्होंने यज्ञ के लिए उसे नहलाकर अपनी गोद में बिठा लिया। शिष्यों से घिरे हुए महामुनि मेधातिथि को वहां बड़ा आनंद प्राप्त हुआ। उन्होंने उसका नाम अरुंधति रखा। वह किसी भी कारण से धर्म का विरोध नहीं करती थी, अतः उसी गुण के कारण उसने स्वयं यह त्रिभुवन विख्यात नाम प्राप्त किया। देवर्षे! यज्ञ को समाप्त करके कृतकृत्य हो वे मुनि पुत्री की प्राप्ति होने से बहुत प्रसन्न थे, और अपने शिष्यों के साथ आश्रम में रहकर सदा उसी का लालन पालन करते थे। देवी अरुंधति चंद्रभागा नदी के तट पर तपसारण्य के भीतर मुनिवर मेधातिथि के उस आश्रम में धीरे धीरे बड़ी होने लगी। जब वह विवाह के योग्य हो गई तब मैंने, विष्णु तथा महेश्वर ने मिलकर मुझ ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठ के साथ उसका विवाह करा दिया। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश के हाथों से निकले हुए जल से शिप्रा आदि 7 परम पवित्र नदियां उत्पन्न हुई।