रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 9 और 10 | rudra sanhita adhyay 9 and 10 in hindi.

नमस्कार दोस्तों आज हम आपको रुद्र संहिता शिवपुराण का  अध्याय 9 से लेकर  अध्याय 10 तक की जानकारी देने वाले है |

इसके पहला वाले  अध्याय भी हमने हमारे वेबसाइट पर डाले है | आप उन्हे भी जरूर पढ़िये |

अध्याय 9 – 

उमा सहित भगवान शिव का प्राकट्य, उनके द्वारा अपने स्वरूप का विवेचन तथा ब्रह्मा जी तीनों देवताओं की एकता का प्रतिपादन

ब्रह्मा जी कहते हैं –

नारद! भगवान विष्णु के द्वारा की हुई अपनी स्तुति सुनकर करुणानिधि महेश्वर बड़े प्रसन्न हुए और उमा देवी के साथ वहां प्रकट हो गए। उस समय उनके पांच मुख और प्रत्येक मुख में तीन तीन नेत्र शोभा पाते थे। भाल देश में चंद्रमा का मुकुट सुशोभित था। सिर पर जटा धारण किए, गौर वर्ण, विशाल नेत्र शिव ने अपने संपूर्ण शरीर में विभूति लगा रखी थी। उनके 10 भुजाएं थी। कंठ में नील चिन्ह था। उनके श्री अंग समस्त आभूषणों से विभूषित थे। उन सर्वांग सुंदर शिव के मस्तक भस्ममय त्रिपुंड से अंकित थे। ऐसे विशेषणों से युक्त परमेश्वर महादेव जी को भगवती उमा के साथ उपस्थित देख मैंने और भगवान विष्णु ने पुनः प्रिय वचनों द्वारा उनकी स्तुति की। तब पापहारी करुणाकर भगवान महेश्वर ने प्रसन्न चित्त होकर उन्हें श्री विष्णु देव को श्वास रूप से वेद का उपदेश दिया। उसके बाद शिव ने परमात्मा श्री हरि को गुह्य ज्ञान प्रदान किया। फिर उन परमात्मा ने कृपा करके मुझे भी वह ज्ञान दिया। वेद का ज्ञान प्राप्त करके कृतार्थ हुए भगवान विष्णु ने मेरे साथ हाथ जोड़ महेश्वर को नमस्कार करके पुनः उन्हें उनकी पूजन की विधि बताने तथा सदुपदेश देने के लिए प्रार्थना की।

यह बात सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए कृपा निधान भगवान शिव ने प्रीतीपूर्वक यह बात कही

श्री शिव बोले –

सूरश्रेष्ठगण! मैं तुम दोनों की भक्ति से निश्चय ही बहुत प्रसन्न हूं। तुम लोग मुझ महादेव की ओर देखो, इसमें तुम्हें मेरा स्वरूप जैसा दिखाई देता है वैसे ही रूप का प्रयत्न पूर्वक पूजन चिंतन करना चाहिए। तुम दोनों महाबली हो और मेरे स्वरूप भूता प्रकृति से प्रकट हुए हो। मुझ सर्वेश्वर के दाएं बाएं अंगों से तुम्हारा आविर्भाव हुआ है। पितामह ब्रह्मा मेरे दाहिने भाग से उत्पन्न हुए हैं और विष्णु परमात्मा के वाम पार्श्व से प्रकट हुए हो। मैं तुम दोनों पर भली-भांति प्रसन्न हूं और तुम्हे मनोवांछित वर देता हूं। मेरी आज्ञा से तुम दोनों की मुझ में सुदृढ़ भक्ति हो। ब्राह्मन्! तुम मेरी आज्ञा का पालन करते हुए जगत की सृष्टि करो और विष्णु तुम इस चराचर जगत का पालन करो।

 

हम दोनों से ऐसा कहकर भगवान शंकर ने हमें पूजा की उत्तम विधि प्रदान की, जिसके अनुसार पूजित होने पर पूजक को अनेक प्रकार के फल देते हैं। शंभू की उपयुक्त बात सुनकर मेरे सहित श्री हरि ने महेश्वर को हाथ जोड़ प्रणाम करके कहा।

भगवान विष्णु बोले –

प्रभु यदि हमारे प्रति आपके ह्रदय में प्रीति उत्पन्न हुई है और यदि आप हमें वर देना आवश्यक समझते हैं तो हम यही वर मांगते हैं की आपमें हम दोनों की सदा अनन्य अविचल प्रेम एवं भक्ति बनी रहे।

 

ब्रह्मा जी कहते हैं –

मुनि श्री हरि की यह बात सुनकर भगवान हरी मेरे साथ पुनः मस्तक झुकाकर प्रणाम करके हाथ जोड़े खड़े हुए उन नारायण देव से स्वयं कहा।

 

श्री महेश्वर बोले मैं सृष्टि पालन और संहार का कार्य करता हूं, सगुण और निर्गुण हूं, तथा सच्चिदानंद स्वरूप निर्विकार परब्रह्म परमात्मा हूं। विष्णु! सृष्टि रक्षा और प्रलय ,रूप, गुण अथवा कार्यों के भेद से ही मैं ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र नाम धारण करके तीनो रूपों में विभक्त हुआ हूं। हरे! वास्तव में मैं सदा निष्कल हूं। विष्णु! तुमने और ब्रह्मा ने मेरे अवतार के निमित्त जो स्तुति की है, तुम्हारी उस प्रार्थना को मैं अवश्य सच ही करूंगा क्योंकि मैं भक्तवत्सल हूं। मेरा ऐसा ही परम उत्कृष्ट रूप तुम्हारे शरीर से इस लोक में प्रकट होगा जो नाम से रूद्र कहलायेगा मेरे अंश से प्रकट हुए रुद्र की सामर्थ्य मुझ से कम नहीं होगी। जो मैं हूं वही यह रूद्र है। पूजा की विधि विधान की दृष्टि से भी मुझ में और उसमें कोई अंतर नहीं है। जैसे ज्योति का जल आदि के साथ संपर्क होने पर भी उसमें स्पर्श दोष नहीं लगता, उसी प्रकार मुझ निर्गुण परमात्मा को भी किसी के सहयोग से बंधन नहीं प्राप्त होता। यह मेरा शिव रूप है। जब रूद्र प्रकट होंगे तब भी शिव के ही चेले होंगे। महामुने! उन्हें और शिव में परायेपन का भेद नहीं करना चाहिए। वास्तव में एक ही रूप सब जगत में व्यवहार निर्वाह के लिए दो रूपों में विभक्त हो गया है। शिव और रूद्र में कभी भेद बुद्धि नहीं करनी चाहिए।

वास्तव में सारा दृश्य ही मेरे विचार से शिव रूप है, मैं, ब्रह्मा, हरी और जो यह रूद्र प्रकट होंगे वह सब के सब एक रूप हैं इनमें भेद नहीं है।

Rudra sanhita
Rudra sanhita

भेद मानने पर अवश्य ही बंधन होगा। तथापि मेरा शिव रूप ही सनातन है। यही सदा सब रूपों का मूलभूत कहा गया है। यह सत्य, ज्ञान एवं अनंत ब्रह्मा है। ऐसा जानकर श्रद्धा मन से मेरे यथार्थ स्वरूप का दर्शन करना चाहिए। ब्राह्मन! सुनो मैं तुम्हें एक गोपनीय बात बता रहा हूं।

मैं स्वयं ब्रह्मा जी की भ्रुकुटी से प्रकट होऊँगा। गुणों में भी मेरा प्राकट्य कहा गया है। जैसा कि लोगों ने कहा है हर तामस प्रकृति के हैं। वास्तव में उस रूप में अहंकार का वर्णन हुआ है। उस अहंकार को केवल तामस ही नहीं वैकारिक (सात्विक) भी समझना चाहिए। क्योंकि सात्विक देवगण वैकारिक अहंकार की ही सृष्टि हैं।

यह तामस और सात्विक आदि भेद केवल नाम मात्र का है, वस्तुतः नहीं है। वास्तव में हर को तामस नहीं कहा जा सकता। ब्राह्मन! इस कारण से तुम्हें ऐसा करना चाहिए। तुम तो इस सृष्टि के निर्माता बनो और श्रीहरि इन का पालन करें तथा मेरे अंश से प्रकट होने वाले जो रुद्र हैं वे इसका प्रलय करने वाले होंगे। यह जो उमा नाम से विख्यात परमेश्वरी प्रकृति देवी है इनकी शक्ति भूत वाग्देवी ब्रह्मा जी का सेवन करेंगे। प्रकृति देवी से वहां जो दूसरी शक्ति प्रकट होगी वह लक्ष्मी रूप से भगवान विष्णु का आश्रय लेंगी। तद अंतर पुनः काली नाम से जो तीसरी शक्ति प्रकट होगी वह निश्चय ही मेरे अंश भूत रूद्रदेव को प्राप्त होगीं। वे कार्य की सिद्धि के लिए वहां ज्योति रूप से प्रकट होंगी।

इस प्रकार मैंने देवी की शुभ स्वरूपा परा शक्तियों का परिचय दिया। उनका कार्य क्रमसः सृष्टि, पालन और संहार का संपादन ही है। सुरश्रेष्ठ! ये सब की सब मेरी प्रिया प्रकृति देवी की अंशभूता है। हरे! तुम लक्ष्मी का सहारा लेकर कार्य करो। ब्रह्म! तुम्हें प्रकृति की अंशभूता वाग्देवी को पाकर मेरी आज्ञा के अनुसार मन से सृष्टि कार्य का संचालन करना चाहिए और मैं अपनी प्रिया की अंशभूता काली का आश्रय ले रूद्र रूप से प्रलय संबंधी उत्तम कार्य करूंगा।

तुम सब लोग अवश्य ही संपूर्ण आश्रमों तथा उनसे मिलने वाले अधिकारों द्वारा चारों वर्णों से भरे हुए लोक की सृष्टि एवं रक्षा आदि करके सुख पाओगे। हरे! तुम ज्ञान विज्ञान से संपन्न तथा संपूर्ण लोकों के हितेषी हो। मेरी आज्ञा पाकर जगत में सब लोगों के लिए मुक्तिदाता बनो। मेरा दर्शन होने पर जो फल प्राप्त होता है वही तुम्हारा दर्शन होने पर भी होगा। मेरी यह बात सत्य है, सत्य है इसमें संशय के लिए स्थान नहीं है। मेरी ह्रदय में विष्णु हैं और विष्णु के ह्रदय में मैं हूं। जो इन दोनों में अंतर नहीं समझता वही मुझे विशेष प्रिय है। ब्रह्मा का दाहिने अंग से प्राकट्य हुआ है और महाप्रलय कारी विश्वात्मा रूद्र मेरी ह्रदय से प्रादुर्भाव होंगे। वैष्णो! मैं ही शृष्टि पालन और संहार करने वाले राजस आदि त्रिविध गुणों द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र नाम से प्रसिद्ध हो, तीनों रूपों में प्रथक प्रथक प्रकट होता हूं।

साक्षात शिवम से भिन्न हैं वे प्रकृति और पुरुष से भी परे हैं। अद्वितीय नित्य, अनंत, पूर्ण एवं निरंजन पर ब्रह्म परमात्मा हैं। तीनों लोकों का पालन करने वाले श्रीहरि भीतर तमोगुण और बाहर सत्व गुण धारण करते हैं। त्रिलोकी का संहार करने वाले रूद्रदेव भीतर सत्व गुण और बाहर तमोगुण धारण करते हैं। तथा त्रिभुवन की सृष्टि करने वाले ब्रह्माजी बाहर और भीतर से भी रजोगुण ही हैं। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा रूद्र इन 3 देवताओं में गुण हैं, परंतु शिव गुनातीत माने गए हैं। विष्णु! तू मेरी आज्ञा से सृष्टि कर्ता पितामह का प्रसन्नता पूर्वक पालन करो। ऐसा करने से तीनों लोकों में पूजनीय होंगे।

 

अध्याय 10 – 

श्रीहरि को सृष्टि की रक्षा का भार एवं भोग-मोक्ष-दान का अधिकार दे भगवान शिव का अंतर्ध्यान होना

 

परमेश्वर शिव बोले –

उत्तम व्रत का पालन करने वाले हरे! विष्णो! अब तुम मेरी दूसरी आज्ञा सुनो। उसका पालन करने से तुम सदा समस्त लोकों में माननीय और पूजनीय बने रहोगे। ब्रह्मा जी के द्वारा रचे गए लोक में जब कोई दुख या संकट उत्पन्न हो तब तुम उन संपूर्ण दुखो का नाश करने के लिए सदा तत्पर रहना। तुम्हारे संपूर्ण दुस्सह कार्यों में मैं तुम्हारी सहायता करूंगा। तुम्हारे जो दुर्जेय और अत्यंत उत्कट शत्रु होंगे उन सबको मैं मार गिराऊँगा। हरे! तुम नाना प्रकार के अवतार धारण करके लोक में अपने उत्तम कीर्ति का विस्तार करो और सब के उद्धार के लिए तत्पर रहो। तुम रुद्र के ध्येय हो और रुद्र तुम्हारे ध्येय हैं। तुम में और रूद्र में कुछ भी अंतर नहीं है । जो मनुष्य रुद्र का भक्त होकर तुम्हारी निंदा करेगा उसका सारा पुण्य तत्काल नष्ट हो जाएगा। पुरुषोत्तम विष्णो! तुम से द्वेष करने के कारण मेरी आज्ञा से उसको नर्क में गिरना पड़ेगा। यह बात सत्य है, इसमें संशय नहीं है।

 

तुम इस लोक में मनुष्य के लिए विशेष सहयोग और मोक्ष प्रदान करने वाले और भक्तों के ध्येय तथा पूज्य होकर प्राणियों का निग्रह और अनुग्रह करो। ऐसा कहकर भगवान शिव ने मेरा हाथ पकड़ लिया और श्री विष्णु को सौंपकर उनसे कहा तुम संकट के समय सदा इन की सहायता करते रहना। सब के अध्यक्ष होकर सभी को भोग और मोक्ष प्रदान करना और सर्वदा समस्त कामनाओं का साधक एवं सर्वश्रेष्ठ बने रहना।

 

जो तुम्हारी शरण में आ गया वह निश्चय ही मेरी शरण में आ गया। जो मुझ में और तुम में अंतर समझता है वह अवश्य नर्क में गिरता है।

 

ब्रह्मा जी कहते हैं –

देवर्षिनारद! भगवान शिव का यह वचन सुनकर मेरे साथ भगवान विष्णु ने सब को वश में करने वाले विश्वनाथ को प्रणाम करके मंदस्वर में कहा।

श्री विष्णु बोले- करुणा सिंधु! जगन्नाथ शंकर मेरी यह बात सुनिए मैं आपकी आज्ञा के अधीन रहकर यह सब कुछ करूंगा स्वामी जो मेरा भक्त होकर आप की निंदा करें उसे आप निश्चय ही नरक वास प्रदान करें। नाथ जो आपका भक्त है वह मुझे अत्यंत प्रिय है। जो ऐसा जानता है उसके लिए मोक्ष दुर्लभ नहीं है।

 

श्रीहरि का यह कथन सुनकर, दुख हारी हर ने उनकी बात का अनुमोदन किया और नाना प्रकार के धर्मों का उपदेश देकर हम दोनों के हित की इच्छा से हमें अनेक प्रकार के वर दिए। इसके बाद भक्त वत्सल भगवान शंभू कृपा पूर्वक हमारी ओर देख कर हम दोनों के देखते-देखते जैसे वही अंतर्ध्यान हो गए। तभी से इस लोक में लिंग पूजा का विधान चालू हुआ है लिंग में प्रतिष्ठित भगवान शिव भोग और मोक्ष देने वाले हैं। शिवलिंग की जो वेदि या अर्धा है वह महा देवी का स्वरूप है और लिंग साक्षात महेश्वर का। लय का अधिष्ठान होने के कारण भगवान शिव को लिंग कहा गया है क्योंकि उन्ही में निखिल जगत का वास होता है। महामुनि जो शिवलिंग के समीप कोई कार्य करता है उसके पुण्य फल का वर्णन करने की शक्ति मुझ में नहीं है।

 

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