नमस्कार दोस्तों आज हम आपको शिवपुराण के अगला भाग रुद्र संहिता के बारेमे बताएंगे |
शिवपुराण का पेहला संहिता हमने आपको बताया है आज हम दूसरे संहिता की शुरुवात करने वाले है |
अध्याय पेहला
सृष्टि खंड
ऋषियों के प्रश्न के उत्तर में नारद-ब्रह्मा संवाद की अवतारणा करते हुए सूत जी का उन्हें नारद मोह का प्रसंग सुनाना; काम विजय के गर्व से युक्त हुए नारद का शिव, ब्रह्मा तथा विष्णु के पास जाकर अपने तप का प्रभाव बताना
जो विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय आदि के एक मात्र कारण हैं, गौरी गिरिराज कुमारी उमा के पति हैं, तत्वज्ञ है, जिनकी कीर्ति का कहीं अंत नहीं है, जो माया के आश्रय होकर भी उसमें अत्यंत दूर हैं तथा जिनका स्वरूप अचिंत्य है, उन विमल बोध स्वरूप भगवान शिव को मैं प्रणाम करता हूं। मैं स्वभाव से ही उन अनादी, शांतस्वरूप, एकमात्र पुरुषोत्तम शिव की वंदना करता हूं, जो अपनी माया से इस संपूर्ण विश्व की सृष्टि करके आकाश की भांति इस के भीतर और बाहर भी स्थित है। जैसे लोहा चुंबक से आकृष्ट होकर उसके पास ही लटका रहता है उसी प्रकार यह सारे जगत सदा सब और जिसके आसपास ही भ्रमण करते हैं, जिन्होंने अपने से इस प्रपंच को रचने की विधि बताई थी, जो सबके भीतर अंतर्यामी रूप से विराजमान हैं तथा जिनका अपना स्वरूप अत्यंत गूढ़ है, उन भगवान शिव की मैं सादर वंदना करता हूं।
व्यास जी कहते हैं-
जगत के पिता भगवान शिव, जगतमाता कल्याणमई पार्वती तथा उनके पुत्र गणेश जी को नमस्कार करके हम इस पुराण का वर्णन करते हैं। एक समय की बात है नैमिषारण्य में निवास करने वाले शौनक आदि सभी मुनियों ने उत्तम भक्ति भाव के साथ सूत जी से पूछा-
ऋषि बोले- महाभाग सूतजी! विदेश्वर संहिता की जो साध्य-साधन खंड नाम वाली शुभ एवं उत्तम कथा है उसे हम लोगों ने सुन लिया। उसका आदि भाग बहुत ही रमणीय है तथा वह बहुत शिव भक्तों पर भगवान शिव का वात्सल्य स्नेह प्रकट करने वाली है। विद्वन! अब आप भगवान शिव के परम उत्तम स्वरूप का वर्णन कीजिए। साथ ही शिव और पार्वती के दिव्य चरित्रों का पूर्ण रूप से श्रवण कराइए। हम पूछते हैं निर्गुण महेश्वर लोक में सगुण रूप कैसे धारण करते हैं?
अंत होने पर वे महेश्वर देव किस रूप में स्थित रहते हैं? लोक कल्याणकारी शंकर कैसे प्रसन्न होते हैं और प्रसन्न हुए महेश्वर अपने भक्तों तथा दूसरों को कौन सा उत्तम फल प्रदान करते हैं? यह सब हमसे कहिए। हमने सुना है कि भगवान शिव शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। वे महान दयालु हैं, इसलिए अपने भक्तों का कष्ट नहीं देख सकते। ब्रह्मा, विष्णु और महेश यह तीन देवता शिव के ही अंग से उत्पन्न हुए हैं। उनके प्राकट्य की कथा तथा उनके विशेष चरित्रों का वर्णन कीजिए। प्रभु! आप उमा के आविर्भाव और विवाह की कथा कहिए। विशेषतः उनके गृहस्थ धर्म का और अन्य लीलाओं का भी वर्णन कीजिए। निष्पाप सूत जी! हमारे प्रश्न के उत्तर में आपको यह सब तथा दूसरी बातें भी अवश्य कहनी चाहिए।
सूत जी ने कहा-मुनेश्वरो! आप लोगों ने बड़ी उत्तम बात पूछी है। भगवान सदाशिव की कथा में आप लोगों की जो आंतरिक निष्ठा हुई है, इसके लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं। ब्राह्मणों! भगवान शंकर का गुणानुवाद सात्विक, राजसी और तामसी तीनों ही प्रकृति के मनुष्य को सदा आनंद प्रदान करता है। पशुओं की हिंसा करने वाले निष्ठुर कसाई के सिवा दूसरा कौन पुरुष उस गुणानुवाद को सुनने से उब सकता है। जिनके मन में कोई तृष्णा नहीं है, ऐसे महात्मा पुरुष भगवान शिव के उन गुणों का गान करते हैं; क्योंकि यह गुणावली संसार रूपी रोग की दवा है, मन तथा कानों को प्रिय लगने वाली और संपूर्ण मनोरथों को देने वाली है। ब्राह्मणों! आप लोगों के प्रश्न के अनुसार मैं यथा बुद्धि प्रयत्न पूर्वक शिव लीला का वर्णन करता हूं, आप आदर पूर्वक सुने। जैसे आप लोग पूछ रहे हैं उसी प्रकार देवर्षि नारद ने शिव रूपी भगवान विष्णु से प्रेरित होकर अपने पिता से पूछा था। अपने पुत्र नारद का प्रश्न सुनकर शिवभक्त ब्रह्मा जी का चित प्रसन्न हो गया और वे उन मुनि शिरोमणि को हर्ष प्रदान करते हुए प्रेम पूर्वक भगवान शिव की यश का गान करने लगे.
एक समय की बात है, मुन्ने शिरोमणि विप्रवर नारद जी ने, जो ब्रह्मा जी के पुत्र हैं, विनीत चित हो तपस्या में मन लगाया। हिमालय पर्वत में कोई एक गुफा थी जो बड़ी शोभा से संपन्न दिखाई देती थी। उसके निकट देव नदी गंगा निरंतर वेगपूर्वक बहती थी। वहां एक महान दिव्य आश्रम था, जो नाना प्रकार की शोभा से सुशोभित था। दिव्य दर्शन नारद जी, तपस्या करने के लिए उसी आश्रम में में गए। उस गुफा को देखकर मुनिवर नारद जी बड़े प्रसन्न हुए और दीर्घकाल तक वहां तपस्या करते रहे। उनका अंतःकरण शुद्ध था। वे दृढ़ता पूर्वक आसन बांधकर मौन हो प्राणायाम पूर्वक समाधि में स्थित हो गए। ब्राह्मणों! उन्होंने यह समाधि लगाई, जिसमें ब्रह्मा का साक्षात्कार कराने वाला,अहम् ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं, यह विज्ञान प्रकट होता है। मुनिवर नारद जी जब इस प्रकार तपस्या करने लगे उसी समय यह समाचार पाकर देवराज इंद्र काँप उठे। वे मानसिक संताप से विह्लल हो गए। यह नारद मुनि मेरा राज्य लेना चाहते हैं, मन ही मन ऐसा सोचकर इंद्र ने उनकी तपस्या में विघ्न डालने के लिए प्रयत्न करने की इच्छा की। उस समय देवराज ने अपने मन से काम देव का स्मरण किया। स्मरण करते ही कामदेव आ गए। इंद्र ने उन्हें नारद जी की तपस्या में विघ्न डालने का आदेश दिया।
नारदजी केहते है –
यह आज्ञा पाकर कामदेव वसंत को साथ ले बड़े गर्व से उस स्थान पर गए और अपना उपाय करने लगे। उन्होंने वहां शीघ्र ही अपनी सारी कलाएं रच डाली। वसंत ने भी मदमत होकर अपना प्रभाव अनेक प्रकार से प्रकट किया। मुनीवरों! कामदेव और वसंत के अथक प्रयत्न करने पर भी नारद मुनि के चित में विकार नहीं उत्पन्न हुआ। महादेव जी के अनुग्रह से उन दोनों का गर्व चूर्ण हो गया।
शौनक आदि महर्षियों ! ऐसा होने में जो कारण था उसे आदर पूर्वक सुनो। महादेव जी की कृपा से ही नारद मुनि पर कामदेव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। पहले उसी आश्रम में काम शत्रु भगवान शिव ने उत्तम तपस्या की थी और वहीं उन्होंने मुनियों की तपस्या का नाश करने वाले कामदेव को शीघ्र ही भस्म कर डाला था। उसमें रति ने कामदेव को पुनर्जीवित करने के लिए देवताओं से प्रार्थना की। तब देवताओं ने समस्त लोगों का कल्याण करने वाले भगवान शंकर से याचना की। उनके याचना करने पर शिव बोले- देवताओं कुछ समय व्यतीत होने के बाद कामदेव जीवित तो हो जाएंगे परंतु यहां उनका कोई उपाय नहीं चल सकेगा। अमरगण यहां खड़े होकर चारों और जितनी दूर तक की भूमि को नेत्र से देख पाते हैं वहां तक कामदेव के बाणों का प्रभाव नहीं चल सकेगा, इसमें संशय नहीं है। भगवान शंकर की इस उक्ति के अनुसार उस समय वहां नारद जी के प्रति कामदेव का निजी प्रभाव मिथ्या सिद्ध हुआ। तत्पश्चात उनकी आज्ञा से वसंत के साथ अपने स्थान को लौट गए। उस समय देवराज इंद्र को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने नारद जी की भूरी भूरी प्रशंसा की। परंतु शिव की माया से मोहित होने के कारण वे उस पूर्व वृत्तांत को स्मरण न कर सके। वास्तव में इस संसार के भीतर सभी प्राणियों के लिए शंभू की माया को जानना अत्यंत कठिन है। जिसने भगवान शिव के चरणों में अपने आप को समर्पित कर दिया है, उन भक्तों को छोड़कर शेष सारा जगत उनकी माया से मोहित हो जाता है। नारद जी भी भगवान शंकर की कृपा से वहां चिरकाल तक तपस्या में लगे रहे। जब उन्होंने अपनी तपस्या को पूर्ण हुई समझा, तब वे मुनि उससे वीरत हो गए।
कामदेव पर मेरी विजय हुई ऐसा मानकर मुनीश्वर के मन में व्यर्थ ही गर्व हो गया। भगवान शिव की माया से मोहित होने के कारण उन्हें यथार्थवाद का ज्ञान नहीं रहा। वे यह नहीं समझ सके कि कामदेव के पराजित होने में भगवान शंकर का प्रभाव ही कारण है। उस माया से अत्यंत मोहित हो मुनि शिरोमणि नारद अपना काम विजय संबंधी वृत्तांत बताने के लिए तुरंत ही कैलाश पर्वत पर गए। उस समय वे विजय के मद से उन्मत हो रहे थे। वहां रूद्रदेव को नमस्कार करके गर्व से भरे हुए मुनि ने अपने आप को महात्मा मानकर तथा अपने ही प्रभाव से कामदेव पर अपनी विजय हुई समझ कर उनसे सारा वृत्तांत कह सुनाया।
यह सब सुनकर भक्तवत्सल भगवान शंकर ने नारद जी से जो अपनी शिव की ही माया से मोहित होने के कारण काम विजय के यथार्थ कारण को नहीं जानते थे और अपने विवेक को भी खो बैठे थे, कहा-
रूद्र बोले- तात, नारद तुम बड़े विद्वान हो, धन्यवाद के पात्र हो। परंतु मेरी यह बात ध्यान देकर सुनो। अब से फिर कभी ऐसी बात कही भी न कहना। विशेषत भगवान विष्णु के सामने इसकी चर्चा कदापि न करना। तुमने मुझसे अपना जो वृतांत बताया है उसे पूछने पर भी दूसरों के सामने ना कहना। यह सिद्धि संबंधी वृत्तांत सर्वथा गुप्त रखने योग्य है, इसे कभी किसी पर प्रकट नहीं करना चाहिए। तुम मुझे विशेष प्रिय हो, इसलिए अधिक जोर देकर मैं तुम्हें यह शिक्षा देता हूं और इसे न कहने की आज्ञा देता हूं। क्योंकि तुम भगवान विष्णु के भक्त हो और उनके भक्त होते हुए भी मेरे अत्यंत अनुगामी हो।
इस प्रकार बहुत कुछ कह कर संसार की सृष्टि करने वाले भगवान रुद्र ने नारद जी को शिक्षा दी-अपने वृत्तांत को गुप्त रखने के लिए उन्हें समझाया बुझाया। परंतु वे तो शिव की माया से मोहित थे। इसलिए उन्होंने उनकी दी हुई शिक्षा को अपने लिए हितकर नहीं माना। तदनन्तर मुनि शिरोमणि नारद ब्रह्मलोक में गए। वहां ब्रह्मा जी को नमस्कार करके उन्होंने कहा पिताजी मैंने अपने तपोवन से कामदेव को जीत लिया है। उनकी वह बात सुनकर ब्रह्मा जी ने भगवान शिव के चरणारविंदुओं का चिंतन किया और सारा कारण जानकर अपने पुत्र को यह सब कहने से मना किया।
विष्णु भगवान जी केहते है –
परंतु नारद जी शिव की माया से मोहित थे। अतः उनके चित में मद का अंकुर जम गया था। उनकी बुद्धि मरी गई थी। इसलिए नारद अपना सारा वृत्तांत भगवान विष्णु के सामने कहने के लिए वहां से शीघ्र ही विष्णु लोक में गए। नारद मुनी को आते देख भगवान विष्णु बड़े आदर से उठे और शीघ्र ही आगे बढ़ कर उन्होंने मुनि को ह्रदय से लगा लिया। मुनि के आगमन का क्या हेतु है। इसका उन्हें पहले ही पता था। नारद जी को अपने आसन पर बिठाकर भगवान शिव के चरणारविंदओं का चिंतन करके श्री हरि ने उनसे पूछा- भगवान विष्णु बोले-तात कहां से आते हो। यहां किस लिए तुम्हारा आगमन हुआ है? मुनी श्रेष्ठ तुम धन्य हो। तुम्हारे शुभ आगमन से मैं पवित्र हो गया। भगवान विष्णु का यह वचन सुनकर गर्व से भरे हुए नारद मुनि ने मद से मोहित होकर अपना सारा वृत्तांत बड़े अभिमान के साथ कह सुनाया। नारद मुनि का वह अहंकार युक्त वचन सुनकर मन ही मन भगवान विष्णु ने उनकी काम विजय के यथार्थ कारण को पूर्ण रूप से जान लिया। तत्पश्चात श्री विष्णु बोले-मुनी श्रेष्ठ तुम धन्य हो, तपस्या के तो भंडार ही हो। तुम्हारा ह्रदय भी बड़ा उद्धार है। मुने जिसके भीतर भक्ति ज्ञान और वैराग्य नहीं होती उसी के मन में समस्त दुखों को देने वाले काम, मोह आदि विकार शीघ्र उत्पन्न होते हैं। तुम तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हो और सदा ज्ञान, वैराग्य से युक्त रहते हो। फिर तुम में काम विकार कैसे आ सकता है। तुम तो जन्म से ही निर्विकार तथा शुद्ध बुद्धि वाले हो। श्री हरि की कही हुई ऐसी बहुत सी बातें सुनकर मुनि शिरोमणि नारद जोर जोर से हंसने लगे और मन ही मन भगवान को प्रणाम करके इस प्रकार बोले- नारद जी ने कहा-स्वामी। जब मुझ पर आपकी कृपा है तब बेचारा कामदेव अपना क्या प्रभाव दिखा सकता है। ऐसा कहकर भगवान के चरणों में मस्तक झुकाकर इच्छा अनुसार विचरनेवाले नारद मुनि वहां से चले गए।