विद्येश्वर संहिता शिवपुराण भाग 3 | vidhyeshwar sanhita part 3 hindi.

नमस्कार दोस्तो आज हम आपको विद्येश्वर संहिता के अगले अध्याय की जानकारी आपको देने वाले है | कल हमने आपको विद्येश्वर संहिता के आठवा अध्याय तक की जानकारी आपको प्रधान करी है | आज हम आपको इसके आगे के अध्याय की जानकारी देंगे |

नवाँ अध्याय – 

 

“लिंग पूजन का महत्व”

ब्रह्मा और विष्णु भगवान शिव को प्रणाम कर चुपचाप उनके दाएं बाएं भाग में खड़े हो गए। उन्होंने पूजनीय महादेव जी को श्रेष्ठ आसन पर बैठाकर पवित्र वस्तुओं से उनका पूजन किया। दीर्घकाल तक स्थिर रहने वाली वस्तुओं को ‘पुष्प वस्तु’ तथा अल्पकाल तक टिकने वाली वस्तुओं को ‘प्राकृत वस्तु’ कहते हैं। हार, नूपुर, कियूर, किरीट, मणिमय कुंडल, यज्ञोपवीत, उत्तरीय वस्त्र, पुष्पमाला, रेशमी वस्त्र, हार, मुद्रिका, पुष्प, तांबूल, कपूर, चंदन एवं अगरु का अनुलेप, धूप, दीप, श्वेत छत्र, व्यंजन, ध्वजा, चंवर तथा अनेक दिव्य उपहारों द्वारा, जिनका वैभव वाणी और मन की पहुंच से परे था, जो केवल परमात्मा के योग्य थे, उनसे ब्रह्मा और विष्णु ने अपने स्वामी महेश्वर का पूजन किया। इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने दोनों देवताओं से मुस्कराकर कहा

 

पुत्र! आज तुम्हारे द्वारा की गई पूजा से मैं बहुत प्रसन्न हूं। इसी कारण यह दिन परम पवित्र और महान होगा। यह तिथि ‘शिवरात्रि’ के नाम से प्रसिद्ध होगी और मुझे परम प्रिय होगी । इस दिन जो मनुष्य मेरे लिंग अर्थात निराकार रूप की या मेरी मूर्ति अर्थात साकार रूप की दिन-रात निराहार रहकर अपनी शक्ति के अनुसार निश्चल भाव से यथोचित पूजा करेगा, वह मेरा परम प्रिय भक्त होगा। पूरे वर्ष भर निरंतर मेरी पूजा करने पर जो फल मिलता है, वह फल शिवरात्रि को मेरा पूजन करके मनुष्य तत्काल प्राप्त कर लेता है। जैसे पूर्ण चंद्रमा का उदय समुद्र की वृद्धि का अवसर है, उसी प्रकार शिवरात्रि की तिथि मेरे धर्म की वृद्धि का समय है। इस तिथि को मेरी स्थापना का मंगलमय उत्सव होना चाहिए। मैं मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णमासी या प्रतिपदा को ज्योतिर्मय स्तंभ के रूप में प्रकट हुआ था। इस दिन जो भी मनुष्य पार्वती सहित मेरा दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंग की झांकी निकालता है, वह मेरे लिए कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है। इस शुभ दिन मेरे दर्शन मात्र से पूरा फल प्राप्त होता है। यदि दर्शन के साथ मेरा पूजन भी किया जाए तो इतना अधिक फल प्राप्त होता है कि वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

 

विद्येश्वर संहिता , शिवपुराण हिंदी | Vidhyeshwar Sanhita in hindi.
विद्येश्वर संहिता , शिवपुराण हिंदी | Vidhyeshwar Sanhita in hindi.

लिंग रूप में प्रकट होकर मैं बहुत बड़ा हो गया था। अतः लिंग के कारण यह भूतल ‘लिंग स्थान’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जगत के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सकें, इसके लिए यह अनादि और अनंत ज्योति स्तंभ अथवा ज्योतिर्मय लिंग अत्यंत छोटा हो जाएगा। यह लिंग सब प्रकार के भोग सुलभ कराने वाला तथा भोग और मोक्ष का एकमात्र साधन है। इसका दर्शन, स्पर्श और ध्यान प्राणियों को जन्म और मृत्यु के कष्ट से छुड़ाने वाला है। शिवलिंग के यहां प्रकट होने के कारण यह स्थान ‘अरुणाचल’ नाम से प्रसिद्ध होगा तथा यहां

 

बड़े-बड़े तीर्थ प्रकट होंगे। इस स्थान पर रहने या मरने से जीवों को मोक्ष प्राप्त होगा। मेरे दो रूप हैं— साकार और निराकार । पहले मैं स्तंभ रूप में प्रकट हुआ। फिर अपने साक्षात रूप में। ‘ब्रह्मभाव’ मेरा निराकार रूप है तथा ‘महेश्वरभाव’ मेरा साक्षात रूप है। ये दोनों ही मेरे सिद्ध रूप हैं। मैं ही परब्रह्म परमात्मा हूं। जीवों पर अनुग्रह करना मेरा कार्य है । मैं जगत की वृद्धि करने वाला होने के कारण ‘ब्रह्म’ कहलाता हूं। सर्वत्र स्थित होने के कारण मैं ही सबकी आत्मा हूं। सर्ग से लेकर अनुग्रह तक जो जगत संबंधी पांच कृत्य हैं, वे सदा ही मेरे हैं।

मेरी ब्रह्मरूपता का बोध कराने के लिए पहले लिंग प्रकट हुआ। फिर अज्ञात ईश्वरत्व का साक्षात्कार कराने के लिए मैं जगदीश्वर रूप में प्रकट हो गया। मेरा सकल रूप मेरे ईशत्व का और निष्कल रूप मेरे ब्रह्मस्वरूप का बोध कराता है। मेरा लिंग मेरा स्वरूप है और मेरे सामीप्य की प्राप्ति कराने वाला है।

मेरे लिंग की स्थापना करने वाले मेरे उपासक को मेरी समानता की प्राप्ति हो जाती है तथा मेरे साथ एकत्व का अनुभव करता हुआ संसार सागर से मुक्त हो जाता है। वह जीते जी परमानंद की अनुभूति करता हुआ, शरीर का त्याग कर शिवलोक को प्राप्त होता है अर्थात मेरा ही स्वरूप हो जाता है । मूर्ति की स्थापना लिंग की अपेक्षा गौण है। यह उन भक्तों के लिए है, जो शिवतत्व के अनुशीलन में सक्षम नहीं हैं।

 

दशवाँ अध्याय – 

 

“प्रणव एवं पंचाक्षर मंत्र की महत्ता”

 

ब्रह्मा और विष्णु ने पूछा –

प्रभो ! सृष्टि आदि पांच कृत्यों के लक्षण क्या हैं? यह हम दोनों को बताइए।

 

भगवान शिव बोले –

मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यंत गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें बता रहा हूं। ‘सृष्टि’, ‘पालन’, ‘संहार’, ‘तिरोभाव’ और ‘अनुग्रह’ मेरे जगत संबंधी पांच कार्य हैं, जो नित्य सिद्ध हैं। संसार की रचना का आरंभ सृष्टि कहलाता है। मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिर रहना उसका पालन है। उसका विनाश ही ‘संहार’ है । प्राणों के उत्क्रमण को ‘तिरोभाव’ कहते हैं। इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा ‘अनुग्रह’ अर्थात ‘मोक्ष’ है। ये मेरे पांच कृत्य हैं। सृष्टि आदि चार कृत्य संसार का विस्तार करने वाले हैं। पांचवां कृत्य मोक्ष का है। मेरे भक्तजन इन पांचों कार्यों को पांच भूतों में देखते हैं। सृष्टि धरती पर, स्थिति जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है। पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती है। जल से वृद्धि होती है। आग सबको जला देती है। वायु एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहीत करता है। इन पांचों कृत्यों का भार वहन करने के लिए ही मेरे पांच मुख हैं।

 

 

चार दिशाओं में चार मुख और इनके बीच में पांचवां मुख है। पुत्रो, तुम दोनों ने मुझे तपस्या से प्रसन्न कर सृष्टि और पालन दो कार्य प्राप्त किए हैं। इसी प्रकार मेरी ‘विभूतिस्वरूप रुद्र’ और ‘महेश्वर’ ने संहार और तिरोभाव कार्य मुझसे प्राप्त किए हैं परंतु मोक्ष मैं स्वयं प्रदान करता हूं। मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मंत्र का उपदेश किया है, जो ओंकार रूप में प्रसिद्ध है। यह मंगलकारी मंत्र है। सर्वप्रथम मेरे मुख से ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ जो मेरे स्वरूप का बोध कराता है। इसका स्मरण निरंतर करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है।

 

मेरे उत्तरवर्ती मुख से अकार का, पश्चिम मुख से उकार का, दक्षिण मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से बिंदु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्रकटीकरण हुआ है। इस प्रकार इन पांच अवयवों से ओंकार का विस्तार हुआ है। इन पांचों अवयवों के एकाकार होने पर प्रणव ‘ॐ’ नामक अक्षर उत्पन्न हुआ। जगत में उत्पन्न सभी स्त्री-पुरुष इस प्रणव-मंत्र में व्याप्त हैं। यह मंत्र शिव-शक्ति दोनों का बोधक है। इसी से पंचाक्षर मंत्र ‘ॐ नमः शिवाय’ की उत्पत्ति हुई है। यह मेरे साकार रूप का बोधक है। इस पंचाक्षर मंत्र से मातृका वर्ण प्रकट हुए हैं, जो पांच भेद वाले हैं। इसी से शिरोमंत्र सहित त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य हुआ है। इस गायत्री से संपूर्ण वेद प्रकट हुए और उन वेदों से करोड़ों मंत्र निकले हैं। उन मंत्रों से विभिन्न कार्यों की सिद्धि होती है। इस पंचाक्षर प्रणव मंत्र से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। इस मंत्र से भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त होते हैं।

 

नंदिकेश्वर कहते हैं –

जग दंबा उमा गौरी पार्वती के साथ बैठे महादेव ने उत्तरवर्ती मुख बैठे ब्रह्मा और विष्णु को परदा करने वाले वस्त्र से आच्छादित कर उनके मस्तक पर अपना हाथ रखकर धीरे-धीरे उच्चारण कर उन्हें उत्तम मंत्र का उपदेश दिया। तीन बार मंत्र का उच्चारण करके भगवान शिव ने उन्हें शिष्यों के रूप में दीक्षा दी । गुरुदक्षिणा के रूप में दोनों ने अपने आपको समर्पित करते हुए दोनों हाथ जोड़कर उनके समीप खड़े हो, जगद्गुरु भगवान शिव की इस प्रकार स्तुति करने लगे।

 

ब्रह्मा-विष्णु बोले :– प्रभो! आपके साकार और निराकार दो रूप हैं। आप तेज से प्रकाशित हैं, आप सबके स्वामी हैं, आप सर्वात्मा को नमस्कार है। आप प्रणव मंत्र के बताने वाले हैं तथा आप ही प्रणव लिंग वाले हैं। सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह आदि आपके ही कार्य हैं। आपके पांच मुख हैं, आप ही परमेश्वर हैं, आप सबकी आत्मा हैं, ब्रह्म हैं।

 

आपके गुण और शक्तियां अनंत हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं। इन पंक्तियों से स्तुति करते हुए गुरु महेश्वर को प्रसन्न कर ब्रह्मा और विष्णु ने उनके चरणों में प्रणाम किया।

 

महेश्वर बोले :– आर्द्रा नक्षत्र में चतुर्दशी को यदि इस प्रणव मंत्र का जप किया जाए तो यह अक्षय फल देने वाला है। सूर्य की संक्रांति में महा आर्द्रा नक्षत्र में एक बार किया प्रणव जप करोड़ों गुना जप का फल देता है। ‘मृगशिरा’ नक्षत्र का अंतिम भाग तथा ‘पुनर्वसु’ का शुरू का भाग पूजा, होम और तर्पण के लिए सदा आर्द्रा के समान ही है। मेरे लिंग का दर्शन प्रातः काल अर्थात मध्यान्ह से पूर्वकाल में करना चाहिए। मेरे दर्शन-पूजन के लिए चतुर्दशी तिथि उत्तम है। पूजा करने वालों के लिए मेरी मूर्ति और लिंग दोनों समान हैं। फिर भी मूर्ति की अपेक्षा लिंग का स्थान ऊंचा है। इसलिए मनुष्यों को शिवलिंग का ही पूजन करना चाहिए । लिंग का ‘ॐ’ मंत्र से और मूर्ति का पंचाक्षर मंत्र से पूजन करना चाहिए। शिवलिंग की स्वयं स्थापना करके या दूसरों से स्थापना करवाकर उत्तम द्रव्यों से पूजा करने से मेरा पद सुलभ होता है । इस प्रकार दोनों शिष्यों को उपदेश देकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए।

 

 

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