विद्येश्वर संहिता शिवपुराण भाग 2 | vidhyeshwar sanhita part 2 hindi .

vidhyeshwar sanhita: नमस्कार दोस्तो कल हमने आपको विद्येश्वर संहिता के अध्याय एक से लेकर अध्याय तीन तक हमने आपको बताया है | आज हम विद्येश्वर संहिता के बाकी अध्याय के बारेमे आपको जानकारी देंगे |

सूत जी कहते हैं –

हे मुनियो! इस साधन का माहात्म्य बताते समय मैं एक प्राचीन वृत्तांत का वर्णन करूंगा, जिसे आप ध्यानपूर्वक सुनें।

बहुत पहले की बात है, पराशर मुनि के पुत्र मेरे गुरु व्यासदेव जी सरस्वती नदी के तट पर तपस्या कर रहे थे। एक दिन सूर्य के समान तेजस्वी विमान से यात्रा करते हुए भगवान सनत्कुमार वहां जा पहुंचे। मेरे गुरु ध्यान में मग्न थे। जागने पर अपने सामने सनत्कुमार जी को देखकर वे बड़ी तेजी से उठे और उनके चरणों का स्पर्श कर उन्हें अर्घ्य देकर योग्य आसन पर विराजमान किया। प्रसन्न होकर सनत्कुमार जी गंभीर वाणी में बोले – मुनि तुम सत्य का चिंतन करो । सत्य तत्व का चिंतन ही श्रेय प्राप्ति का मार्ग है। इसी से कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। यही कल्याणकारी है। यह जब जीवन में आ जाता है, तो सब सुंदर हो जाता है। सत्य का अर्थ है- सदैव रहने वाला । इस काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह सदा एक समान रहता है ।

 

सनत्कुमार जी ने महर्षि व्यास को आगे समझाते हुए कहा, महर्षे! सत्य पदार्थ भगवान शिव ही हैं। भगवान शंकर का श्रवण, कीर्तन और मनन ही उन्हें प्राप्त करने के सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। पूर्वकाल में मैं दूसरे अनेकानेक साधनों के भ्रम में पड़ा घूमता हुआ तपस्या करने मंदराचल पर जा पहुंचा। कुछ समय बाद महेश्वर शिव की आज्ञा से सबके साक्षी तथा शिवगणों के स्वामी नंदिकेश्वर वहां आए और स्नेहपूर्वक मुक्ति का साधन बताते हुए बोले भगवान शंकर का श्रवण, कीर्तन और मनन ही मुक्ति का स्रोत है। यह बात मुझे स्वयं देवाधिदेव भगवान शिव ने बताई है। अतः तुम इन्हीं साधनों का अनुष्ठान करो ।

विद्येश्वर संहिता , शिवपुराण हिंदी | Vidhyeshwar Sanhita in hindi.
विद्येश्वर संहिता , शिवपुराण हिंदी | Vidhyeshwar Sanhita in hindi.

व्यास जी से ऐसा कहकर अनुगामियों सहित सनत्कुमार ब्रह्मधाम को चले गए। इस प्रकार इस उत्तम वृत्तांत का संक्षेप में मैंने वर्णन किया है।

 

ऋषि बोले की –

सूत जी! आपने श्रवण, कीर्तन और मनन को मुक्ति का उपाय बताया है,

किंतु जो मनुष्य इन तीनों साधनों में असमर्थ हो, वह मनुष्य कैसे मुक्त हो सकता है ? किस कर्म के द्वारा बिना यत्न के ही मोक्ष मिल सकता है

 

पाचवाँ अध्याय

शिवलिंग का रहस्य एवं महत्व”

 

सूत जी कहते हैं की –

हे शौनक जी! श्रवण, कीर्तन और मनन जैसे साधनों को करना प्रत्येक के लिए सुगम नहीं है। इसके लिए योग्य गुरु और आचार्य चाहिए। गुरुमुख से सुनी गई वाणी मन की शंकाओं को दग्ध करती है। गुरुमुख से सुने शिव तत्व द्वारा शिव के रूप-स्वरूप के दर्शन और गुणानुवाद में रसानुभूति होती है। तभी भक्त कीर्तन कर पाता है। यदि ऐसा कर पाना संभव न हो, तो मोक्षार्थी को चाहिए कि वह भगवान शंकर के लिंग एवं मूर्ति की स्थापना करके रोज उनकी पूजा करे। इसे अपनाकर वह इस संसार सागर से पार हो सकता है। संसार सागर से पार होने के लिए इस तरह की पूजा आसानी से भक्तिपूर्वक की जा सकती है। अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार धनराशि से शिवलिंग या शिवमूर्ति की स्थापना कर भक्तिभाव से उसकी पूजा करनी चाहिए। मंडप, गोपुर, तीर्थ, मठ एवं क्षेत्र की स्थापना कर उत्सव का आयोजन करना चाहिए तथा पुष्प, धूप, वस्त्र, गंध, दीप तथा पुआ और तरह-तरह के भोजन नैवेद्य के रूप में अर्पित करने चाहिए। श्री शिवजी ब्रह्मरूप और निष्कल अर्थात कला रहित भी हैं और कला सहित भी मनुष्य इन दोनों स्वरूपों की पूजा करते हैं। शंकर जी को ही ब्रह्म पदवी भी प्राप्त है। कलापूर्ण भगवान शिव की मूर्ति पूजा भी मनुष्यों द्वारा की जाती है और वेदों ने भी इस तरह की पूजा की आज्ञा प्रदान की है।

 

सनत्कुमार जी ने पूछा –

हे नंदिकेश्वर ! पूर्वकाल में उत्पन्न हुए लिंग बेर अर्थात मूर्ति की उत्पत्ति के संबंध में आप हमें विस्तार से बताइए।

 

नंदिकेश्वर ने बताया की –

मुनिश्वर ! प्राचीन काल में एक बार ब्रह्मा और विष्णु के मध्य युद्ध हुआ तो उनके बीच स्तंभ रूप में शिवजी प्रकट हो गए। इस प्रकार उन्होंने पृथ्वीलोक का संरक्षण किया। उसी दिन से महादेव जी का लिंग के साथ-साथ मूर्ति पूजन भी जगत में प्रचलित हो गया। अन्य देवताओं की साकार अर्थात मूर्ति पूजा होने लगी, जो कि अभीष्ट फल प्रदान करने वाली थी। परंतु शिवजी के लिंग और मूर्ति, दोनों रूप ही पूजनीय हैं

 

 छठा अध्याय – 

ब्रह्मा-विष्णु युद्ध”

 

नंदिकेश्वर बोले की –

पूर्व काल में श्रीविष्णु अपनी पत्नी श्री लक्ष्मी जी के साथ शेष-शय्या पर शयन कर रहे थे। तब एक बार ब्रह्माजी वहां पहुंचे और विष्णुजी को पुत्र कहकर पुकारने लगे -पुत्र उठो! मैं तुम्हारा ईश्वर तुम्हारे सामने खड़ा हूं। यह सुनकर विष्णुजी को क्रोध आ गया। फिर भी शांत रहते हुए वे बोले – पुत्र ! तुम्हारा कल्याण हो । कहो अपने पिता के पास कैसे आना हुआ? यह सुनकर ब्रह्माजी कहने लगे- मैं तुम्हारा रक्षक हूं। सारे जगत का पितामह हूं। सारा जगत मुझमें निवास करता है | तू मेरी नाभि कमल से प्रकट होकर मुझसे ऐसी बातें कर रहा है। इस प्रकार दोनों में विवाद होने लगा। तब वे दोनों अपने को प्रभु कहते-कहते एक-दूसरे का वध करने को तैयार हो गए। हंस और गरुड़ पर बैठे दोनों परस्पर युद्ध करने लगे। ब्रह्माजी के वक्षस्थल में विष्णुजी ने अनेकों अस्त्रों का प्रहार करके उन्हें व्याकुल कर दिया। इससे कुपित हो ब्रह्माजी ने भी पलटकर भयानक प्रहार किए। उनके पारस्परिक आघातों से देवताओं में हलचल मच गई। वे घबराए और त्रिशूलधारी भगवान शिव के पास गए और उन्हें सारी व्यथा सुनाई। भगवान शिव अपनी सभा में उमा देवी सहित सिंहासन पर विराजमान थे और मंद-मंद मुस्करा रहे थे ।

 

सातवाँ अध्याय

 

” शिव निर्णय “

 

महादेव जी बोले की –

पुत्रो ! मैं जानता हूं कि तुम ब्रह्मा और विष्णु के परस्पर युद्ध से बहुत दुखी हो। तुम डरो मत, मैं अपने गणों के साथ तुम्हारे साथ चलता हूं। तब भगवान शिव अपने नंदी पर आरूढ़ हो, देवताओं सहित युद्धस्थल की ओर चल दिए। वहां छिपकर वे ब्रह्मा-विष्णु के युद्ध को देखने लगे। उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि वे दोनों एक-दूसरे को मारने की इच्छा से माहेश्वर और पाशुपात अस्त्रों का प्रयोग करने जा रहे हैं तो वे युद्ध को शांत करने के लिए महाअग्नि के तुल्य एक स्तंभ रूप में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य खड़े हो गए । महाअग्नि के प्रकट होते ही दोनों के अस्त्र स्वयं ही शांत हो गए। अस्त्रों को शांत होते देखकर ब्रह्मा और विष्णु दोनों कहने लगे कि इस अग्नि स्वरूप स्तंभ के बारे में हमें जानकारी करनी चाहिए। दोनों ने उसकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया। भगवान विष्णु ने शूकर रूप धारण किया और उसको देखने के लिए नीचे धरती में चल दिए। ब्रह्माजी हंस का रूप धारण करके ऊपर की ओर चल दिए । पाताल में बहुत नीचे जाने पर भी विष्णुजी को स्तंभ का अंत नहीं मिला। अतः वे वापस चले आए। ब्रह्माजी ने आकाश में जाकर केतकी का फूल देखा। वे उस फूल को लेकर विष्णुजी के पास गए । विष्णु ने उनके चरण पकड़ लिए। ब्रह्माजी के छल को देखकर भगवान शिव प्रकट हुए।

 

 

विष्णुजी की महानता से शिव प्रसन्न होकर बोले – हे विष्णुजी! आप सत्य बोलते हैं। अतः मैं आपको अपनी समानता का अधिकार देता हूं।

 

आठवाँ अध्याय –

 

नंदिकेश्वर बोले की – 

महादेव जी ब्रह्माजी के छल पर अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने अपने त्रिनेत्र (तीसरी आंख) से भैरव को प्रकट किया और उन्हें आज्ञा दी कि वह तलवार से ब्रह्माजी को दंड दें। आज्ञा पाते ही भैरव ने ब्रह्माजी के बाल पकड़ लिए और उनका पांचवां सिर काट दिया । ब्रह्माजी डर के मारे कांपने लगे। उन्होंने भैरव के चरण पकड़ लिए तथा क्षमा मांगने लगे। इसे देखकर श्रीविष्णु ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि आपकी कृपा से ही ब्रह्माजी को पांचवां सिर मिला था। अतः आप इन्हें क्षमा कर दें। तब शिवजी की आज्ञा पाकर ब्रह्मा को भैरव ने छोड़ दिया। शिवजी ने कहा तुमने प्रतिष्ठा और ईश्वरत्व को दिखाने के लिए छल किया है। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम सत्कार, स्थान व उत्सव से विहीन रहोगे। ब्रह्माजी को अपनी गलती का पछतावा हो चुका था। उन्होंने भगवान शिव के चरण पकड़कर क्षमा मांगी और निवेदन किया कि वे उनका पांचवां सिर पुनः प्रदान करें।

 

महादेव जी ने कहा की – 

जगत की स्थिति को बिगड़ने से बचाने के लिए पापी को दंड अवश्य देना चाहिए, ताकि लोक मर्यादा बनी रहे। मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि तुम गणों के आचार्य कहलाओगे और तुम्हारे बिना यज्ञ पूर्ण न होंगे।

फिर उन्होंने केतकी के पुष्प से कहा – अरे दुष्ट केतकी पुष्प ! अब मेरी पूजा के अयोग्य रहोगे। तब केतकी पुष्प बहुत दुखी हुआ और उनके चरणों में गिरकर माफी मांगने लगा। तब महादेव जी ने कहा- मेरा वचन तो झूठा नहीं हो सकता। इसलिए तू मेरे भक्तों के योग्य होगा। इस प्रकार तेरा जन्म सफल हो जाएगा।

 

नंदिकेश्वर कहते हैं – ब्रह्मा और विष्णु भगवान शिव को प्रणाम कर चुपचाप उनके दाएं बाएं भाग में खड़े हो गए। उन्होंने पूजनीय महादेव जी को श्रेष्ठ आसन पर बैठाकर पवित्र वस्तुओं से उनका पूजन किया। दीर्घकाल तक स्थिर रहने वाली वस्तुओं को ‘पुष्प वस्तु’ तथा अल्पकाल तक टिकने वाली वस्तुओं को ‘प्राकृत वस्तु’ कहते हैं। हार, नूपुर, कियूर, किरीट, मणिमय कुंडल, यज्ञोपवीत, उत्तरीय वस्त्र, पुष्पमाला, रेशमी वस्त्र, हार, मुद्रिका, पुष्प, तांबूल, कपूर, चंदन एवं अगरु का अनुलेप, धूप, दीप, श्वेत छत्र, व्यंजन, ध्वजा, चंवर तथा अनेक दिव्य उपहारों द्वारा, जिनका वैभव वाणी और मन की पहुंच से परे था, जो केवल परमात्मा के योग्य थे, उनसे ब्रह्मा और विष्णु ने अपने स्वामी महेश्वर का पूजन किया। इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने दोनों देवताओं से मुस्कराकर कहा

 

पुत्र! आज तुम्हारे द्वारा की गई पूजा से मैं बहुत प्रसन्न हूं। इसी कारण यह दिन परम पवित्र और महान होगा। यह तिथि ‘शिवरात्रि’ के नाम से प्रसिद्ध होगी और मुझे परम प्रिय होगी । इस दिन जो मनुष्य मेरे लिंग अर्थात निराकार रूप की या मेरी मूर्ति अर्थात साकार रूप की दिन-रात निराहार रहकर अपनी शक्ति के अनुसार निश्चल भाव से यथोचित पूजा करेगा, वह मेरा परम प्रिय भक्त होगा। पूरे वर्ष भर निरंतर मेरी पूजा करने पर जो फल मिलता है, वह फल शिवरात्रि को मेरा पूजन करके मनुष्य तत्काल प्राप्त कर लेता है। जैसे पूर्ण चंद्रमा का उदय समुद्र की वृद्धि का अवसर है, उसी प्रकार शिवरात्रि की तिथि मेरे धर्म की वृद्धि का समय है। इस तिथि को मेरी स्थापना का मंगलमय उत्सव होना चाहिए। मैं मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णमासी या प्रतिपदा को ज्योतिर्मय स्तंभ के रूप में प्रकट हुआ था। इस दिन जो भी मनुष्य पार्वती सहित मेरा दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंग की झांकी निकालता है, वह मेरे लिए कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है। इस शुभ दिन मेरे दर्शन मात्र से पूरा फल प्राप्त होता है। यदि दर्शन के साथ मेरा पूजन भी किया जाए तो इतना अधिक फल प्राप्त होता है कि वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

 

दोस्तो आज हमने विद्येश्वर संहिता शिवपुराण हिंदी का आठवा अध्याय तक की जानकारी आपको दी है | कल हम आपको इसके आगे की जानकारी देंगे | धन्यवाद!

 

Share with

Leave a Comment