रुद्र संहिता सती खण्ड शिवपुराण अध्याय 15 और 16 | rudra sanhita sati khand adhyay 15 and 16 in hindi.

नमस्कार दोस्तों आज हम आपको शिवपुराण के रुद्र संहिता

का सती खण्ड की जानकारी देने वाले है |

शिवपुराण के बारेमे सभी जानकारी हमने हमारे वेबसाइट पर डाली हुई है आप जरूर पढ़िये |

अध्याय 15 – 

सृष्टि का वर्णन

तदनन्तर नारद जी के पूछने पर ब्रह्मा जी बोले-

मुने! हमें पूर्वोक्त आदेश देकर जब महादेव जी अंतर्ध्यान हो गए तब मैं उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए ध्यान मग्न हो कर्तव्य का विचार करने लगा । उस समय भगवान शंकर को नमस्कार करके श्रीहरि से ज्ञान पाकर परमानंद को प्राप्त हो मैने सृष्टि करने का निश्चय किया। तात! भगवान विष्णु भी वहाँ सदाशिव को प्रणाम करके मुझे आवश्यक उपदेश दे तत्काल अदृश्य हो गए। ब्रह्मांड से बाहर जाकर भगवान शिव की कृपा प्राप्त करके बैकुंठ धाम में जा पहुंचे और सदा वहीं रहने लगे। मैंने सृष्टि की इच्छा से भगवान शिव और विष्णु का स्मरण करके पहले के रचे हुए जल में अपनी अंजली डालकर जल को ऊपर की ओर उछाला। इससे वहां एक अंड प्रकट हुआ जो 24 तत्वों का समूह कहा जाता है। वह विराट आकार वाला रूप ही था उसमें चेतन ने देख कर मुझे बड़ा संशय हुआ और मैं अत्यंत कठोर तप करने लगा। 12 वर्षों तक भगवान विष्णु के चिंतन में लगा रहा। वह समय पूर्ण होने पर भगवान श्रीहरि स्वयं प्रकट हुए और बड़े प्रेम से मेरे अंगों का स्पर्श करते हुए मुझसे प्रसन्नता पूर्वक बोले।

 

श्री विष्णु ने कहा –

ब्राह्मण! वर मांगो। मुझे तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है। भगवान शिव की कृपा से सब कुछ देने में समर्थ हूं।

 

ब्रह्मा बोले अर्थात मैंने कहा महाभाग्य आपने जो मुझ पर कृपा कि वह सर्वथा उचित ही है क्योंकि भगवान शंकर ने मुझे आपके हाथों में सौंप दिया है। प्रभु यह विराट रूप 24 तत्वों से बना हुआ किसी तरह चेतन नहीं हो रहा है। जड़ी भूत दिखाई देता है। वैष्णो! आपको नमस्कार है! आज मैं आपसे जो कुछ मांगता हूं उसे दीजिए।

 

हरे! इस समय भगवान शिव की कृपा से आप यहां प्रकट हुए हैं शंकर की दृष्टि शक्ति या विभूति से प्राप्त हुए हम इस अंड में चेतनता लाइए।

मेरे ऐसा कहने पर शिव की आज्ञा मे तत्पर रहने वाले महाविष्णु अनंत रूप का आश्रय ले उस अंड में प्रवेश किया। उस समय उन परम पुरुष के सहस्त्र मस्तक, सहस्त्र नेत्र और सहस्त्र पैर थे। उन्होंने मूमि को सब ओर से घेर कर उस अंड को व्याप्त कर लिया। मेरे द्वारा भली-भांति स्तुति की जाने पर जब श्री विष्णु ने उस अंड में प्रवेश किया, तब हुए 24 तत्वों का विकाररूप अंड सचेतन हो गया। पाताल से लेकर सत्यलोक तक की अवधि वाले उस अंड के रूप में वहां साक्षात श्रीहरि ही विराजने लगे।

उस विराट अंड में व्यापक होने से ही प्रभु वह वैराज पुरुष कहला। पंचमुख महादेव ने केवल अपने रहने के लिए स्वयं में कैलाश नगर का निर्माण किया जो सब लोकों से ऊपर सुशोभित होता है। देवर्षे! संपूर्ण ब्रह्मांड का नाश हो जाने पर भी बैकुंठ और कैलाश इन दोनों का यह कभी नाश नहीं होता। मुनी श्रेष्ठ! मैं सत्यलोक का आश्रय लेकर रहता हूं। तात! महादेव जी की आज्ञा से ही मुझ में सृष्टि रचने की इच्छा उत्पन्न हुई है। बेटा! जब मैं सृष्टि की इच्छा से चिंतन करने लगा उस समय पहले मुझसे अनजाने में ही पाप पूर्ण तमोगुण सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ जिसे अविद्या पंचक अथवा पंच परवा अविद्या कहते हैं। तदनन्तर प्रसन्न चित्त होकर शंभू की आज्ञा से मैं पुनः अनासक्त भाव से सृष्टि का चिंतन करने लगा। उस समय मेरे द्वारा स्थावर संज्ञक वृक्ष आदि की सृष्टि हुई जिसे मुख्य सर्ग कहते हैं। यह पहला सर्ग है। उसे देखकर तथा वह अपने लिए पुरुषार्थ का साधन नहीं है यह जानकर सृष्टि की इच्छा वाले मुझे ब्रह्मा से दूसरा सर्ग प्रकट हुआ जो दुख से भरा हुआ है। उसका नाम है तिर्यक्स्त्रोता। वह सर्ग भी पुरुषार्थ का साधक नहीं था। उसे भी पुरुषार्थ साधन की शक्ति से रहित जान जब मैं पुनः सृष्टि का चिंतन करने लगा तब मुझसे शीघ्र ही तीसरे सात्विक सर्ग का प्रादुर्भाव हुआ। जिसे ऊधर्व स्त्रोत कहते हैं। वह देव सर्ग के नाम से विख्यात हुआ। देव सर्ग सत्यवादी तथा अत्यंत सुख दायक है। उसे भी पुरुषार्थ से साधन की रुचि एवं अधिकार से रहित मानकर मैंने अन्य सर्ग के लिए अपने स्वामी श्री शिव का चिंतन आरंभ किया।

तब भगवान शंकर की आज्ञा से एक रजोगुण सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ जिसे अरवाक्स्त्रोता कहा गया। इस सर्ग के प्राणी मनुष्य है जो पुरुषार्थ साधन के उच्च अधिकारी हैं। तदनन्तर महादेव जी की आज्ञा से भूत आदि की सृष्टि हुई। इस प्रकार मैंने 5 तरह की वैकृत सृष्टि का वर्णन किया है। इनके सिवाए 3 प्राकृत सर्ग भी कहे गए हैं। जो मुझ ब्रह्मा के सानिध्य से प्रकृति से ही प्रकट हुए हैं। इनमें पहला महतत्व का सर्ग है। दूसरा सुक्ष्म भूतों का अर्थात तन मात्राओं का सर्ग है। और तीसरा वैकारिक सर्ग कहलाता है। इस तरह यह 3 प्राकृतिक सर्ग हैं। प्राकृत और विकृत दोनों प्रकार के सर्गों को मिलाने से 8 सर्ग होते हैं। इनके सिवा नवाँ कौमार सर्ग है, जो प्राकृत और वैकृत भी है। इन सबके अवांतर भेद का में वर्णन नहीं कर सकता क्योंकि उसका उपयोग बहुत थोड़ा है।

अब द्विजात्मक सर्ग का प्रतिपादन करता हूं। इसी का दूसरा नाम कौमार सर्ग है, जिसमें सनक सनकादिक आदि की महत्वपूर्ण सृष्टि हुई है। सनक आदि मेरे चार मानस पुत्र है जो मुझे ब्रह्मा के ही समान है। यह महान वैराग्य से संपन्न तथा उत्तम व्रत का पालन करते हुए उनका मन सदा भगवान शिव के चिंतन में ही लगा रहता है। यह संसार से विमुख एवं ज्ञानी है। उन्होंने

 

अध्याय 16 – 

 

स्वयंभू मनु और शतरूपा की, ऋषियों की तथा दक्ष की संतानों का वर्णन तथा सती और शिव की महता का प्रतिपादन

 

ब्रह्मा जी कहते हैं –

हे नारद ! तदन्तर मैंने शब्दतन्मात्रा आदि सूक्ष्म-भूतों को स्वयं ही पंचीकृत करके अर्थात उन पांचों का परस्पर सम्मिश्रण करके उनसे स्थूल आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी की सृष्टि की। पर्वतों, समुद्रों और वृक्षों आदि को उत्पन्न किया। कला से लेकर युगपर्यंत जो काल-विभाग है, उनकी रचना की।

उत्पत्ति और विनाशवाले और भी बहुत से पदार्थों का निर्माण किया, परंतु इससे मुझे संतोष नहीं हुआ। तब सांबशिव का ध्यान करके मैंने साधन परायण पुरुषों की सृष्टि की। अपने दोनों नेत्रों से मरीचि को, ह्रदय से भृगु को, सिर से अंगिरा को, व्यान वायु से मुनि श्रेष्ठ पुलह को, उदान वायु से पुलस्त्य को, समान वायु से वशिष्ठ को, अपान से कृतु को, दोनों कानों से अत्री को, प्राणों से दक्ष को, गोद से तुमको, छाया से कर्दम मुनि को तथा संकल्प से समस्त साधनों के साधन धर्म को उत्पन्न किया।

 

मुनी श्रेष्ठ इस तरह इंसानों की सृष्टि करके महादेव जी की कृपा से मैंने अपने आप को कृतार्थ माना। तात! तत्पश्चात संकल्प से उत्पन्न हुए धर्म मेरी आज्ञा से मानव रूप धारण करके साधकों की प्रेरणा से साधन में लग गए। इसके बाद मैंने अपने विभिन्न अंगों से देवता, असुर आदि के रूप में असंख्य पुत्रों की सृष्टि करके उन्हें भिन्न-भिन्न शरीर प्रदान किए। तदनन्तर अंतर्यामी भगवान शंकर की प्रेरणा से अपने शरीर को दो भागों में विभक्त करके में दो रूप वाला हो गया। नारद! आधे शरीर से मैं स्त्री हो गया और आधे से पुरूष। उस पुरुष ने उस स्त्री के गर्भ से सर्वे समर्थ उत्तम जोड़े को उत्पन्न किया। उस जोड़े में जो पुरुष था वही स्वयंभू मनु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। स्वयंभू मनु उच्च कोटि के साधक हुए तथा जो स्त्री हुई वह सतरूपा कहलाई। वह योगिनी व तपस्विनी हुई। तात! मनु ने वैवाहिक विधि से अत्यंत सुंदरी शतरूपा का पानी ग्रहण किया और उससे वे मैथुनजनित सृष्टि उत्पन्न करने लगे। उन्होंने सतरूपा से प्रियवृत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र और तीन कन्याएँ उत्पन्न की। कन्याओं के नाम थे आकृति, देवहुती और प्रसूति। मनु ने आकृति का विवाह प्रजापति रुचि के साथ किया। मझली पुत्री देवहुति कदम को ब्याह दी और उतानपाद की सबसे छोटी बहन प्रसूति प्रजापति दक्ष को दे दी। उनकी संतान परंपराओं से समस्त चराचर जगत व्याप्त है।

रुचि से आकृति के गर्भ से यज्ञ और दक्षिणा नामक स्त्री पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ। यज्ञ के दक्षिणा से 12 पुत्र हुए। मुने! कर्दम द्वारा देवहूति के गर्भ से बहुत सी स्त्रियां उत्पन्न हुई। दक्ष के प्रस्तुति से 24 कन्याएं हुई उनमें से श्रद्धा आदि 13 कन्याओं का विवाह दक्ष ने धर्म के साथ कर दिया। मुनेश्वर! धर्म की उन पत्नियों के नाम सुनो श्रद्धा, लक्ष्मी, धरती, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वसु, शांति, सिद्धि और कीर्ति यह सब तेरह हैं। इनसे छोटी जो शेष 11 सुलोचना कन्याएं थी उनके नाम इस प्रकार हैं ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, सन्नति, अनुसूया, ऊर्जा, स्वाहा तथा सुविधा। भृगु, शिव, मरीचि, ऋषि अंगिरा, मुनि पुलस्त्य, पुलक मुनि श्रेष्ठ कृति, अत्री, वशिष्ठ, अग्नि और पितरों ने क्रमशः इन ख्याति आदि कन्याओं का पाणिग्रहण किया। भृगु आदि मुनि श्रेष्ठ साधक हैं। इनकी संतानों से चराचर प्राणियों सहित सारी त्रिलोकी भरी हुई है।

इस प्रकार अंबिका पति महादेव जी की आज्ञा से पूर्व कर्मों के अनुसार बहुत से प्राणी असंख्य द्विजों के रूप में उत्पन्न हुए।

कल्पभेद से दक्ष के साठ कन्याएँ बताई गई हैं।उनमें से 10 कन्याओं का विवाह है उन्होंने धर्म के साथ किया। 27 कन्याएं चंद्रमा को ब्याह दी और विधि पूर्वक 13 कन्याओं के हाथ दक्ष ने कश्यप के हाथ में दे दिए। नारद! उन्होंने चार कन्या श्रेष्ट रूप वाले यार्क्ष्य (अरिष्ठनेमी) को ब्याह दी तथा भृगु, अंगिरा और कृशाश्व को दो दो कन्याएं अर्पित की। उन्ही स्त्रियों से उनके पतियों द्वारा बहु संख्या के चराचर प्राणियों की उत्पत्ति हुई।दक्ष ने महात्मा कश्यप को जिन 13 कन्याओं का विधि पूर्वक दान दिया था उनकी संतानों से सारी त्रिलोकी व्याप्त है। स्थावर और जंगम कोई भी सृष्टि ऐसी नहीं है जो कश्यप की संतान से शून्य हो। देवता, ऋषि, दैत्य, वृक्ष, पक्षी, पर्वत तथा तृणलता आदि सभी कश्यप पत्नियों से पैदा हुए हैं। इस प्रकार दक्ष कन्याओं की संतानों से सारा चराचर जगत व्याप्त है। पाताल से लेकर सत्यलोक पर्यंत समस्त ब्रह्मांड निश्चय ही उनकी संतानों से सदा भरा रहता है कभी खाली नहीं होता।

 

इस तरह भगवान शंकर की आज्ञा से ब्रह्मा जी ने भली-भांति सृष्टि की। पूर्व काल में सर्वव्यापी शंभूजी ने तपस्या के लिए प्रकट किया था तथा रूद्र देव ने त्रिशूल के अग्रभाग पर रखकर जिनकी सदा रक्षा की है वही सती देवी लोक हित का कार्य संपादित करने के लिए दक्ष से प्रकट हुई। उन्होंने भक्तों के उद्धार के लिए अनेक लीलाएं की।

 

मुनी श्रेष्ठ! इस प्रकार देवी शिवा ही सती होकर भगवान शंकर से ब्याही गई किंतु पिता के यज्ञ में पति का अपमान देख उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया और फिर उसे ग्रहण नहीं किया। अपने परम पद को प्राप्त हो गई। फिर देवताओं की प्रार्थना से वही शिवा पार्वती रूप में प्रकट हुई और बड़ी तपस्या करके भगवान शिव को उन्होंने प्राप्त कर लिया। मुनेश्वर! इस जगत में उनके अनेकों नाम प्रसिद्ध है। उनके कालीका, चंडीका, भद्रा, चामुंडा, विजया, जयंती, भद्रकाली, दुर्गा, भगवती, कामाख्या, कामदा, अंबानी और सर्वमंगला आदि अनेक नाम है जो भोग और मोक्ष देने वाले हैं। यह सभी नाम उनके गुण और कर्मों के अनुसार हैं।

मुनी श्रेष्ठ! इस प्रकार मैंने सृष्टि कर्म का तुमसे वर्णन किया है। ब्रह्मांड का यह सारा भाग भगवान शिव की आज्ञा से मेरे द्वारा रचा गया है। भगवान शिव को परम ब्रह्म परमात्मा कहा गया है। मैं, विष्णु तथा रूद्र यह 3 देवता गुणभेद से उनके रूप बताए गए हैं। वे मनोरम शिवलोक मे शिवा के साथ स्वच्छंद विहार करते हैं। भगवान शिव स्वतंत्र परमात्मा हैं। वे निर्गुण और सगुण हैं।

 

 

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