रुद्र संहिता सती खण्ड अध्याय 13 और 14 | rudra sanhita sari khand adhyay 13 and 14 in hindi

नमस्कार दोस्तों आज हम आपको शिवपुराण के रुद्र संहिता

का सती खण्ड की जानकारी देने वाले है |

शिवपुराण के बारेमे सभी जानकारी हमने हमारे वेबसाइट पर डाली हुई है आप जरूर पढ़िये |

अध्याय 13 – 

शिव पूजन की सर्वोत्तम विधि का वर्णन

 

ब्रह्मा जी कहते हैं –

अब मैं पूजा की सर्वोत्तम विधि बता रहा हूं, जो समस्त अभीष्ट तथा सुखों को सुलभ कराने वाली है। देवताओं तथा ऋषियों! तुम ध्यान देकर सुनो। उपासक को चाहिए कि वह ब्रह्म मुहूर्त में शयन से उठकर जगदंबा पार्वती सहित भगवान शिव का स्मरण करें तथा हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर भक्ति पूर्वक उनसे प्रार्थना करें- देवेश्वर! उठिए! उठिए! मेरे ह्रदय मंदिर में शयन करने वाले देवता उठिए! उमाकांत! उठिए और ब्रह्मांड में सबका मंगल कीजिए। मैं धर्म को जानता हूं, किंतु मेरी उसमें प्रवृत्ति नहीं होती। मैं अधर्म को जानता हूं परंतु मैं उससे दूर नहीं हो पाता। महादेव! आप मेरे ह्रदय में स्थित होकर मुझे जैसी प्रेरणा देते हैं, वैसा ही मैं करता हूं।

 

इस प्रकार भक्ति पूर्वक कहकर और गुरुदेव की चरण पादुकाओं का स्मरण करके गांव से बाहर दक्षिण दिशा में मल मूत्र का त्याग करने के लिए जाएं। मल त्यागने के बाद मिट्टी और जल से धोने के द्वारा शरीर की शुद्धि करके दोनों हाथों और पैरों को धोकर दतुवन करें। सूर्योदय होने से पहले ही दतुअन करके मुंह को 16 बार जल की अंजलीयों से धोएं। देवताओं तथा ऋषियों! षष्ठी, प्रतिपदा, अमावस्या और नवमी तिथियों तथा रविवार के दिन शिव भक्तों को यत्न पूर्वक दत्तुवन को त्याग देना चाहिए।

 

अवकाश के अनुसार नदी आदि में जाकर अथवा घर में ही भली भांति स्नान करें। मनुष्य को देश और काल के विरुद्ध स्नान नहीं करना चाहिए। रविवार, श्राद्ध, संक्रांति, ग्रहण, महादान, तीर्थ, उपवास दिवस अथवा अशौच प्राप्त होने पर मनुष्य गर्म जल से स्नान न करें। शिवभक्त मनुष्य तीर्थ आदि में प्रवाह के सम्मुख होकर स्नान करें। जो नहाने के पहले तेल लगाना चाहे उसे विहित एवं निषिद्ध दिनों का विचार करके ही तैलाभ्यंग करना चाहिए। जो प्रतिदिन नियम पूर्वक तेल लगाता हो उसके लिए किसी दिन भी तैलाभ्यंग दुषित नहीं है। अथवा जो तेल, इत्र आदि से वासित हो उसका लगाना किसी दिन भी दूषित नहीं है। सरसों का तेल ग्रहण को छोड़कर दूसरे किसी दिन भी दूषित नहीं होता। इस तरह देश काल का विचार करके ही विधि पूर्वक स्नान करें। स्नान के समय अपने मुख को उत्तर अथवा पूर्व की ओर रखना चाहिए।

 

उच्छिष्ट वस्त्र का उपयोग कभी न करें। शुद्ध वस्त्र से इष्ट देव के स्मरण पूर्वक स्नान करें। जिस वस्त्र को दूसरे ने धारण किया हो अथवा जो दूसरों के पहने की वस्तुओं तथा जिसे स्वयं रात में धारण किया गया हो वह वस्त्र उच्छिष्ट कहलाता है। उससे तभी स्नान किया जा सकता है जब उसे धो लिया गया हो। स्नान के पश्चात देवताओं, ऋषियों तथा पित्तरों को तृप्ति देने वाला स्नानांग तर्पण करना चाहिए। उसके बाद धूला हुआ वस्त्र पहने और आतचमन करें। तदअंतर गोबर आदि से लीप पोत कर स्वच्छ किए हुए शुद्ध स्थान में जहां सुंदर आसन की व्यवस्था करें। वह आसन विशुद्ध कास्ठ का बना हुआ, पूरा फैला हुआ तथा विचित्र होना चाहिए। ऐसा आसन संपूर्ण अभीष्ट तथा फलों को देने वाला है। इसके ऊपर बिछाने के लिए यथा योग्य मृगचर्म अधिग्रहण करें। शुद्ध बुद्धि वाला पुरुष उस आसन पर बैठकर भस्म से त्रिपुंड्र लगाएं। त्रिपुंड्र से जप, तप और दान सफल होता है। भस्म के अभाव में त्रिपुंड का साधन जल आदि बताया गया है। इस तरह त्रिपुंड करके मनुष्य रुद्राक्ष धारण करें और अपने नित्य कर्म का संपादन करके फिर शिव की आराधना करें।

तत्पश्चात तीन बार मंत्रोच्चारण पूर्वक आचमन करें। फिर वहां शिव की पूजा के लिए अन्न और जल लाकर रखें। दूसरी कोई भी जो वस्तु आवश्यक हो, उसे यथाशक्ति जुटाकर अपने पास रखें। इस प्रकार पूजन सामग्री का संग्रह करके वहां धैर्य पूर्वक स्थिर भाव से बैठे। फिर जल गंध और अक्षत से युक्त एक अर्ध्यपात्र लेकर उसे दाहिने भाग में रखें। उससे उपचार की सिद्धी होती है।

 

फिर गुरु का स्मरण करके, उनकी आज्ञा लेकर विधिवत संकल्प करके अपनी कामना को अलग न रखते हुए पराभक्ति से सपरिवार शिव का पूजन करें। एक मुद्रा दिखाकर सिंदूर आदि उपचारों द्वारा सिद्धि-बुद्धि सहित विध्न हरी गणेश का पूजन करें। लक्ष और लाभ से युक्त गणेश जी का पूजन करके उनके नाम के आदि में प्रणव तथा अंत में नमः जोड़कर नाम के साथ चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग करते हुए नमस्कार करें। (यथा ॐ गणपतये नमः अथवा ॐ लक्षलाभयुताय सिद्धिबुद्धिसहिताय गणपतय नमः) तदनन्तर उनसे क्षमा प्रार्थना करके पुनः भाई कार्तिकेय सहित गणेश जी का पराभक्ति से पूजन करके उन्हें बारंबार नमस्कार करें।

 

तत्पश्चात सदा द्वार पर खड़े रहने वाले द्वारपाल महोदय का पूजन करके सती साध्वी गिरीराजनंदिनी उमा की पूजा करें। चंदन, कुमकुम तथा धूप, दीप आदि अनेक उपचारों द्वारा तथा नाना प्रकार के नैवेद्यों से शिवा का पूजन करके नमस्कार करने के पश्चात साधन शिवजी के समीप जाए। यथासंभव अपने घर में मिट्टी, सोना, चांदी, धातु या अन्य पारे आदि की शिव प्रतिमा बनाएं और उसे नमस्कार करके भक्ति परायण हो उसकी पूजा करें। उसकी पूजा हो जाने पर सभी देवता पूजित हो जाते हैं।

 

मिट्टी का शिवलिंग बनाकर विधि पूर्वक उसकी स्थापना करें। अपने घर में रहने वाले लोगों को स्थापना संबंधी सभी नियमों का सर्वथा पालन करना चाहिए। भूतशुद्धि एवं मातृकान्यास कर की प्राण प्रतिष्ठा करें। शिवालय में दिग्पालों की भी स्थापना करके उनकी पूजा करें। घर में सदा मूल मंत्र का प्रयोग करके शिवजी की पूजा करनी चाहिए। वहां द्वारपालों के पूजन का सर्वथा नियम नहीं है। भगवान शिव के समीप ही अपने लिए आसन की व्यवस्था करें। उस समय उत्तराभिमुख बैठकर आचमन करें। उसके बाद दोनों हाथ जोड़कर प्रणायाम करें। प्रणायाम काल में मनुष्य को मूल मंत्र की दस आवृत्तियां करनी चाहिए। हाथों से पांच मुद्राएं दिखाएं। यह पूजा का आवश्यक अंग है। इन मुद्राओं का प्रदर्शन करके ही मनुष्य पूजा विधि का अनुसरण करें। तदनन्तर वहां दीप निवेदन करके गुरु को नमस्कार करें और पद्मासन या भद्रासन बांध कर बैठे अथवा उत्तानासन या प्रयंकासन का आश्रय लेकर सुख पूर्वक बैठे और पुनः पूजन का प्रयोग करें। फिर अर्ध्यपात्र से उत्तम शिवलिंग का प्रक्षालन करें। मन को भगवान शिव से अन्यत्र न लेजा कर पूजा सामग्री को अपने पास रखकर निम्नांकित मंत्र समूह से महादेव जी का आवाहन करें।

आवाहन

 

कैलासशिखरस्थं……

 

जो कैलाश के शिखर पर निवास करते हैं, पार्वती देवी के पति हैं, समस्त देवताओं से उत्तम है, जिन के स्वरूप का शास्त्रों में यथावत वर्णन किया गया है, जो निर्गुण होते हुए भी गुण रूप हैं, जिन के पांच मुख 10 भुजाएं और प्रत्येक मुख्य मंडल में तीन तीन नेत्र हैं, जिनकी ध्वजा पर वृषभ का चिन्ह अंकित है, अंग कांति कपूर के समान गौर है, जो दिव्य रूप धारी, चंद्रमा रूपी मुकुट से सुशोभित तथा सिर पर जटा जूट धारण करने वाले हैं, जो हाथी की खाल पहनते और व्याघ्र चर्म ओढते हैं, जिन का स्वरूप शुभ है, जिनके अंगों में वासु की आदि नाग लिपटे रहते हैं, जो पिनाक आदि आयुध धारण करते हैं, जिनके आगे आठों सिद्धियां निरंतर नृत्य करती रहती हैं, भक्त समुदाय जय जयकार करते हुए जिन की सेवा में लगे रहते हैं, दुस्सह तेज के कारण जिनकी और देखना भी कठिन है, जो देवताओं से सेवित्त तथा संपूर्ण प्राणियों को शरण देने वाले हैं, जिनका मुखारविंद प्रसन्नता से खिला हुआ है, वेदों और शास्त्रों में जिन की महिमा का यथावत गान किया है, विष्णु और ब्रह्मा भी सदा जिनकी स्तुति करते हैं, तथा जो परमानंद स्वरूप हैं, उन भक्तवत्सल शंभू शिव का मैं आवाहन करता हूं।

 

इस प्रकार सांबशिव का ध्यान करके उनके लिए आसन दें। चतुर्थ्यन्त पद से ही सब कुछ अर्पित करें

(यथा – सांब सदाशिवाय नमः आसन समर्पयामि)।

आसन के पश्चात भगवान शंकर को पाद्य और अर्ध्य दें। फिर परमात्मा शंभू को आचमन करा कर पंचामृत संबंधी दलों द्वारा प्रसन्नता पूर्वक शंकर को स्नान कराएं। वेद मंत्रों अथवा समन तक चतुर्थ नाम पदों का उच्चारण करके भक्ति पूर्वक यथा योग्य समस्त द्रव्य भगवान को अर्पित करें। अष्ट द्रव्य को शंकर के ऊपर चढ़ाए। भगवान शिव को वरुण स्नान कराएं। स्नान के पश्चात उनके अंगों में सुगंधित चंदन तथा अन्य द्रव्यों का यत्न पूर्वक लेप करें। फिर सुगंधित जल से ही उनके ऊपर जलधारा गिराकर अभिषेक करें। वेद मंत्रों, षड़ंगो अथवा शिव के 11 नामों द्वारा जलधारा चढ़ाकर वस्त्र से शिवलिंग को अच्छी तरह पौछे। फिर आचमनार्थ जल दे और वस्त्र समर्पित करें। नाना प्रकार के मंत्रों द्वारा भगवान शिव को तिल, जौ, गेहूं, मूंग और उडद अर्पित करें। फिर पांच मुख वाले परमात्मा शिव को पुष्प चढाएँ। प्रत्येक मुख पर ध्यानके अनुसार यथोचित अभिलाषा करके कमल, सतपत्र, शंख पुष्प, कृशपुष्प, धतूर, मंदार, द्रोण पुष्प, तुलसी दल और बिल्वपत्र चढ़ाकर परा भक्ति के साथ भक्त वत्सल भगवान शंकर की विशेष पूजा करें। अन्य सब वस्तुओं का अभाव होने पर शिव को केवल बिल्वपत्र ही अर्पित करें। विल्वपत्र समर्पित होने से ही शिव की पूजा सफल होती है। तत्पश्चात सुगंधित चूर्ण और सुवासित उत्तम तैल (इत्र आदि) विविध वस्तुएं बड़े हर्ष के साथ अर्पित करें। फिर प्रशन्नता पूर्वक गुग्गुल और अगुरु आदि की धूप निवेदित करें। तदनन्तर शंकर जी को घी से भरा दीपक दें। इसके बाद निम्नलिखित मंत्र से भक्ति पूर्वक पुनः अर्द्य दें और भाव भक्ति से वस्त्र द्वारा उनके मुख का मार्जन करें।

 

अर्घ्य मंत्र

रूपम देही यशो देहि भोगं देहि च शंकर।

भुक्ति मुक्तिफलं देहि गृहीत्वार्घ्य नमोस्तु ते।।

 

प्रभु शंकर! आपको नमस्कार है। आप आप इस अर्घ्य को स्वीकार करके मुझे रूप दीजिए, यश दीजिए, भोग दीजिए तथा भोग और मोक्ष रूपी फल प्रदान कीजिए।

 

इसके बाद भगवान शिव को भांति भांति के उत्तम नैवेद्य अर्पित करें। नैवेद्य के पश्चात प्रेम पूर्वक आचमन कराएं। तदन्नतर सांगोपांग तांबूल बनाकर शिव को समर्पित करें। फिर 5 बत्ती की आरती बनाकर भगवान को दिखाएं। उसकी संख्या इस प्रकार है पैरों में चार बार, नाभि मंडल के सामने दो बार, मुख के समक्ष एक बार तथा संपूर्ण अंगों में 7 बार आरती दिखाएं। तत्पश्चात नाना प्रकार के स्रोतों द्वारा प्रेम पूर्वक भगवान वर्षभ ध्वज की स्तुति करें। तदनन्तर धीरे-धीरे शिव की परिक्रमा करें। परिक्रमा के बाद भक्त पुरुष साष्टांग प्रणाम करें और निम्नलिखित मंत्र से भक्ति पूर्वक पुष्पांजलि दें-

 

पुष्पांजलि मंत्र

 

अज्ञानादि……

 

शंकर! मैंने अज्ञान से या जानबूझकर जो पूजन आदि किया है, वह आपकी कृपा से सफल हो। मृड! मैं आपका हूं, मेरे प्राण सदा आप में लगे हुए हैं, मेरा चित सदा आप का ही चिंतन करता है। ऐसा जानकर हे गौरीनाथ! भूतनाथ! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। प्रभु! धरती पर जिनके पैर लड़खड़ा जाते हैं उनके लिए भूमि ही सहारा है। उसी प्रकार जिन्होंने आपके प्रति अपराध किए हैं उनके लिए भी आप ही शरणदाता हैं।

इत्यादि रूप से बहुत-बहुत प्रार्थना करके उत्तम विधि से पुष्पांजलि अर्पित करने के पश्चात पुनः भगवान को नमस्कार करें। फिर निम्नांकित मंत्र से विसर्जन करना चाहिए-

विसर्जन

स्वस्थानं…..

 

देवेश्वर प्रभु अब आप परिवार सहित अपने स्थान पर पधारें। नाथ! जब पूजा का समय हो तब पुनः आप यहां सादर पदार्पण करें।

इस प्रकार भक्तवत्सल शंकर की बारंबार प्रार्थना करके उनका विसर्जन करें और उस जल को अपने ह्रदय में लगाए तथा मस्तक पर चढ़ाएं।

इस तरह मैंने शिवपूजन की सारी विधि बता दी जो भोग और मोक्ष देने वाली है। अब और क्या सुनना चाहते हो?

 

अध्याय 14 – 

 

विभिन्न पुष्पों और जल आदि की धाराओं से शिवजी की पूजा का महत्व

 

ब्रह्मा जी बोले-

नारद जो लक्ष्मी प्राप्ति की इच्छा करता हो वह कमल, बिल्वपत्र, सतपत्र और शंख पुष्प से भगवान शिव की पूजा करें। ब्राह्मन! यदि एक लाख की संख्या में पुष्पों द्वारा भगवान शिव की पूजा संपन्न हो जाए तो सारे पापों का नाश होता है और लक्ष्मी की भी प्राप्ति हो जाती है इसमें संशय नहीं है। प्राचीन पुरुषों ने 20 कमलों का एक प्रस्थ बताया है। एक सहस्त्र बिल्वपत्रों को भी एक प्रस्थ कहा गया है। एक सहस्त्र सतपत्र से आधे प्रस्थ की परिभाषा की गई है। 16 पलों का एक प्रस्थ होता है। और 10 टंकों का एक पल। इस मान से पुष्प, पत्र आदि को तोलना चाहिए। जब पूर्वोक्त मान से शिव की पूजा हो जाती है तब मनुष्य अपने अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है। यदि उनके मन में कोई कामना न हो तो वह उक्त पूजन से शिव स्वरूप हो जाता है।

 

मृत्युंजय मंत्र का जप 500000 जब पूरा हो जाता है तब भगवान शिव प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। एक लाख के जप से शरीर की शुद्धि होती है, दूसरे लाख के जप से पूर्व जन्म की बातों का आभास होता है, तीसरे लाख जप पूर्ण होने पर संपूर्ण वस्तुएं प्राप्त होती है, चार लाख का जप होने पर स्वप्न में भगवान शिव का दर्शन होता है। और 500000 का जप ज्योहीं पूरा होता है भगवान शिव उपासक के सम्मुख तत्काल उपस्थित हो जाते हैं। इसी मंत्र का 1000000 जप हो जाए तो संपूर्ण फल की सिद्धि प्राप्ति होती है।

जो मोक्ष की अभिलाषा रखता है वह एक लाख दर्भो द्वारा शिव का पूजन करें। मुनिश्रेष्ठ! सर्वत्र लाख की संख्या समझनी चाहिए। आयु की इच्छा वाला पुरुष एक लाख दुर्वा द्वारा पूजन करें। जिसे पुत्र की अभिलाषा हो वह धतूरे के 100000 फूलों से पूजा करें। लाल डंठल वाला धतूरा पूजन में शुभ दायक माना गया है। अगस्त्य के 100000 फूलों से पूजा करने वाले पुरुष को महान यश की प्राप्ति होती है, यदि तुलसी दल से शिव की पूजा करें तो उपासक को भोग और मोक्ष दोनों सुलभ होते हैं। लाल और सफेद आक, अपामार्ग और श्वेत कमल के 100000 फूलों द्वारा पूजा करने से भी उसी फल, भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। जपा (अड़हुल) के एक लाख पुष्पों की पूजा शत्रु को मृत्यु देने वाली होती है। करवीर के एक लाख फूल यदि उपयोग में लाया जाए तो रोगों का उच्चाटन करने वाले होते हैं। बंधूक (दुपहरिया) के फूलों द्वारा पूजन करने से आभूषण की प्राप्ति होती है। चमेली की पूजा करके मनुष्य वाहन उपलब्ध करता है इसमें संशय नहीं है। अलसी के फूलों से महादेव जी का पूजन करने वाला पुरुष भगवान विष्णु को प्रिय होता है। शमी पत्रों से पूजा करके मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। बेला के फूल चढ़ाने पर भगवान शिव शुभलक्षणा पत्नी प्रदान करते हैं। जूही के फूलों से पूजन करने पर अन्न की कमी नहीं होती। कनेर के फूलों से वस्त्र की प्राप्ति होती है। सेदुआरी या सेफालीका से शिव का पूजन किया जाए तो मन निर्मल होता है। एक लाख विल्वपत्र चढ़ाने पर मनुष्य अपनी सारी काम्य वस्तुएं प्राप्त कर लेता है। श्रृंगारहार- हर सिंगार के फूलों से पूजा करने पर सुख संपत्ति की वृद्धि होती है। वर्तमान में पैदा होने वाले फूल के शिव की सेवा में समर्पित किया जाए तो मोक्ष देने वाले होते हैं। राई के फूल शत्रु को मृत्यु प्रदान करने वाले होते हैं। इन फूलों को 1-1 लाख की संख्या में शिव के ऊपर चढ़ाया जाए तो भगवान अतुल फल देते हैं। चम्पा और केवडे को छोड़कर सभी फूल भगवान शिव को चढ़ाए जा सकते हैं।

 

विप्रवर! महादेव जी के ऊपर चावल चढ़ाने से मनुष्य की लक्ष्मी बढ़ती है। यह चावल अखंडित होने चाहिए और उत्तम भक्ति भाव से शिव के ऊपर चढ़ाना चाहिए। रूद्र मंत्र से पूजा करके भगवान शिव के ऊपर बहुत सुंदर वस्त्र चढ़ाएं और उसी पर चावल रखकर समर्पित करें तो उत्तम है। भगवान शिव के ऊपर गंध, पुष्प आदि के साथ एक श्रीफल चढ़ाकर धूप आदि निवेदन करें तो पूजा का पूरा पूरा फल प्राप्त होता है। वहाँ शिव के समीप 12 ब्राह्मणों को भोजन कराएं। इससे मंत्र पूर्वक सांगोपांग पूजा संपन्न होती है। यह जो सौ मंत्र जपने की विधि हो वह 108 मंत्र जपने का विधान किया गया है।

तिलों द्वारा शिव को एक लाख आहुतियां दी जाए अथवा 100000 तिलो से शिव की पूजा की जाए तो वह बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाली होती है। जौ द्वारा की हुई शिव की पूजा स्वर्गीय सुख की वृद्धि करने वाली है।

 

गेहूं के पकवान से भगवान शंकर जी की पूजा सभी उत्तम फल देने वाली है। यदि उससे लाख बार पूजा हो तो उससे संतान की वृद्धि होती है। यदि मूंग से पूजा की जाए तो भगवान शिव सुख प्रदान करते हैं। प्रियंगु(कंगनी) द्वारा सर्वाध्यक्ष शिव का पूजन करने मात्र से उपासक के धर्म, अर्थ और काम-भोग की वृद्धि होती है। तथा वह सब पूजा समस्त सुखों को देने वाली होती है। अरहर के पत्तों से श्रंगार करके भगवान शिव की पूजा करें। यह पूजा नाना प्रकार के सुखों और फलों को देने वाली है।

मुनेश्वरों! अब फूलों की संख्या का तोल बताया जा रहा है। प्रसन्नता पूर्वक सुनो। सूक्ष्म मान का प्रदर्शन करने वाले व्यास जी ने एक प्रस्थ शंखपुष्प को एक लाख बताया है। 11 प्रस्थ चमेली के फूल हो तो वही एक लाख फूलों का मान कहा गया है। जूही के 100000 फूलों का भी वही मान है। राई के 100000 फूलों का साढे पांच प्रस्थ है। उपासक को चाहिए कि वह निष्काम होकर मोक्ष के लिए भगवान शिव की पूजा करें।

 

भक्ति भाव से विधि पूर्वक शिव की पूजा करके भक्तों को पीछे जलधारा समर्पित करनी चाहिए। ज्वर मे जो मनुष्य प्रलाप करने लगता है उसकी शान्ति के लिए जलधारा शुभ कारक बताई गई है। शत रुद्रीय यंत्र से, रुद्री के 11 पाठों से, रुद्र के नाम से, पुरुष सूक्त से, छः ऋचा वाले रूद्र सूक्त से, महामृत्युंजय मंत्र से, श्री गायत्री मंत्र से अथवा शिव के शास्त्रोक्त नामों के आधार पर बने हुए मंत्रों से आदि मे प्रणव व अन्त मे नमः द्वारा शिव की पूजा करनी चाहिए। सुख और संतान की वृद्धि के लिए जलधारा उत्तम बताई गई है। वंश का विस्तार होता है। उत्तम भस्म धारण करके उपासक को नाना प्रकार के शुभ एवं दिव्य द्रव्यों द्वारा पूजा की जाए और सहर्त्रनाम मंत्रों से घी की धारा चढाई जाए। ऐसा करने पर वंश का विस्तार होता है। इसी प्रकार दस हजार मंत्रों से शिवजी की पूजा की जाए तो प्रमेह रोग की शांति होती है और उचित फल की प्राप्ति हो जाती है। यदि कोई को नपुंसकता को प्राप्त हो तो वह घी से शिवजी की भली भांति पूजा करें तथा ब्राह्मणोंको भोजन कराएं। साथ ही उसके लिए प्राजापत्यव्रत का भी विधान किया है। यदि बुद्धि जड़ हो जाए तो उस अवस्था में पूजा केवल शर्करा मिश्रित दूध की धारा बढ़ानी चाहिए। ऐसा करने पर उसे बृहस्पति के समान उत्तम बुद्धि प्राप्त हो जाती है। जब तक 10000 मंत्रों का जप पूरा न हो जाए तब तक दुग्ध धारा द्वारा भगवान शिव का उत्कृष्ट पूजन चालू रखना चाहिए। अपने घर में सदा कलह रहने लगे तब पूर्ण रूप से दूध की धारा चढ़ाने से सारा दुख नष्ट हो जाता है। सुवाषित तेल से पूजा करने पर भोगों की वृद्धि होती है। यदि मधु से पूजा की जाएं तो राजयक्ष्मा रोग दूर हो जाता है। गंगा जल की धारा तो भोग और मोक्ष दोनों फलों को देने वाली है। यह सब जो जो धाराएं बताई गई है इन सब को मृत्युंजय मंत्र से चढ़ाना चाहिए। उसमें भी उक्त मंत्र का विधान है 10000 जप करना चाहिए और 11 ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।

 

 

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