रुद्र संहिता सती खण्ड शिवपुराण अध्याय 8 से 12 | Rudra sanhita sati khand adhyay 8 to 12 in Hindi.

नमस्कार दोस्तों आज हम आपको शिवपुराण के रुद्र संहिता

का सती खण्ड की जानकारी देने वाले है |

शिवपुराण के बारेमे सभी जानकारी हमने हमारे वेबसाइट पर डाली हुई है आप जरूर पढ़िये |

अध्याय 8 – 

 

मुने! मेधातिथि की पुत्री महा साध्वी पतिव्रताओं में श्रेष्ठ थी। वह महर्षि वशिष्ठ को पति रूप में पाकर उनके साथ बड़ी शोभा पाने लगी। उससे शक्ति आदि शुभ एवं श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए ।मुन्नी श्रेष्ठ! मैंने तुम्हारे समक्ष संध्या के पवित्र चरित्र का वर्णन किया है जो समस्त कामनाओं के फलों को देने वाला, परम पावन दिव्य है। स्त्री या शुभ व्रत का आचरण करने वाला पुरुष इस प्रसंग को सुनता है तो वह संपूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। इसमें अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

प्रजापति ब्रह्मा जी की यह बात सुनकर नारदजी का मन प्रसन्न हो गया और वे इस प्रकार बोले।

नारद जी ने कहा-

ब्रह्मन! अरुंधति की तथा उसके पूर्व जन्म की उसकी स्वरूप भूता संध्या की बड़ी उत्तम दिव्य कथा सुनाई है जो शिव भक्ति की वृद्धि करने वाली है। धर्मज्ञ! अब आप भगवान शिव के उस परम पवित्र चरित्र का वर्णन कीजिए जो दूसरों के पापों का विनाश करने वाला उत्तम एवं मंगल दायक है। जब कामदेव रति से विवाह करके हर्ष पूर्वक चला गया दक्ष आदि अन्य मुन्नी भी जब अपने अपने स्थान को पधारे और जब संध्या तपस्या करने के लिए चली गई तब वहां क्या हुआ?

ब्रह्मा जी ने कहा –

तुम धन्य हो! भगवान शिव के सेवक हो। शिव की लीला से युक्त जो उनका शुभ चरित्र है उसे भक्तिपूर्वक सुनो। तात! पूर्व काल में एक बार जब मैं मोह में पड़ गया और भगवान शंकर ने मेरा उपहास किया तब मुझे बड़ा क्षोभ हुआ था। वस्तुतः शिव की माया ने मुझे मोह लिया था। इसलिए मैं भगवान शिव के प्रति ईर्ष्या करने लगा। किस प्रकार सो बताता हूं सुनो। मैं उसी स्थान पर गया जहां दक्षराज मुनि उपस्थित थे। वही रति के साथ कामदेव भी था। नारद! उस समय बड़ी प्रसन्नता के साथ दक्ष आदि पुत्रों को संबोधित करके वार्तालाप आरंभ किया।

उस वार्तालाप के समय में शिव की माया से पूर्णतया मोहित था। अतः मैंने कहा- पुत्रों! ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे महादेव जी की किसी कामनीय कांति वाली स्त्री का पाणीग्रहण करें। इसके बाद मैंने भगवान शिव को मोहित करने का भार रति सहित कामदेव को सौंपा। कामदेव ने मेरी आज्ञा मानकर कहा- सुंदर स्त्री ही मेरा अस्त्र है, अतः शिव को मोहित करने के लिए किसी नारी की सृष्टि कीजिए। सुनकर मैं चिंता में पड़ गया और सांस खींचने लगा। मेरी उस निश्वास से पुष्पों से विभूषित वसंत का प्रादुर्भाव हुआ। वसंत और मलयानिल- यह दोनों मदन की सहायक हुई। इनके साथ जाकर कामदेव ने वामदेव को मोहने की बारंबार चेष्टा की पर उसे सफलता नहीं मिली। जब वह निराश होकर लौट आया तब यह बात सुनकर मुझे बड़ा दुख हुआ। उस समय मेरे मुख से जो निश्वास वायु चली उससे मारगणों की उत्पत्ति हुई। उन्हें मदन की सहायता के लिए आदेश देकर मैंने पुनः उन सब को शिव जी के पास भेजा। परंतु महान प्रयत्न करने पर भी वे भगवान शिव को मोह में नहीं डाल सके। काम सपरिवार लौट आया और मुझे प्रणाम करके अपने स्थान को चला गया।

 

अध्याय 9 – 

उसके चले जाने पर मैं मन ही मन सोचने लगा कि निर्विकार तथा मन को वश में रखने वाले योगपरायण भगवान शंकर किसी स्त्री को अपनी सहधर्मिणी कैसे स्वीकार करेंगे? सोचते सोचते मैंने भक्ति भाव से उन भगवान् श्रीहरि का स्मरण किया जो साक्षात शिव स्वरूप तथा मेरे शरीर के जन्मदाता हैं। मैंने दीन वचनों से युक्त शुभ स्त्रोतों द्वारा उनकी स्तुति की। उस स्तुति को सुनकर भगवान शीघ्र ही मेरे सामने प्रकट हो गए। उनके चार भुजाएं शोभा पाती थी। नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान सुंदर थे। उन्होंने हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म ले रखे थे। उनके श्याम शरीर पर पीतांबर की बड़ी शोभा हो रही थी। वे भगवान श्री हरि भक्त प्रिय हैं उन्हें भक्त बहुत प्यारे हैं। सबके उत्तम शरणदाता उन श्रीहरि को उस रूप में देखकर मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धारा बह चली और मैं गदगद कंठ से बारंबार उनकी स्तुति करने लगा। मेरी उसी स्तोत्र को सुनकर अपने भक्तों के दुख दूर करने वाले भगवान विष्णु बहुत प्रसन्न हुए और शरण में आए हुए मुझे ब्रह्मा से बोले- महाप्रज्ञ! लोकसत्ता तुम धन्य हो। बताओ तुमने किस लिए आज मेरा स्मरण किया है? किस निमित्त से यह स्तुति की जा रही है? तुम पर कौन सा महान दुख आ पड़ा है? उसे इस समय मेरे सामने कहो। मैं सारा दुख मिटा दूंगा। संदेह का अन्यथा विचार नहीं करना चाहिए।

तब ब्रह्माजी ने सारा प्रसंग सुनाकर कहा-केशव! भगवान शिव किसी तरह पत्नी को ग्रहण कर ले तो मैं सुखी हो जाऊंगा। मेरे अन्तः करण का सारा दुख दूर हो जाएगा। इसी के लिए मैं आपकी शरण में आया हूं।

मेरी यह बात सुनकर भगवान मधुसूदन हंस पड़े। और मुझ लोकश्र्ष्ठा ब्रह्मा का हर्ष बढ़ाते हुए शीघ्र ही यू बोले- विधात! मेरा वचन सुनो। यह तुम्हारे भ्रम का निवारण करने वाला है। मेरा वचन ही वेद शास्त्र आदि का वास्तविक सिद्धांत है। शिव ही सबके करता भरता (पालक) और हरता (संहारक) हैं। वही परात्पर हैं। परब्रह्म,परेश, निर्गुण, नित्य, निर्विकार, अद्वितीय, अनंत, सब का अंत करने वाले, सर्व व्यापी, परमात्मा एवं परमेश्वर हैं। सृष्टि पालन और संहार के करता, आश्रय देनेवाले, व्यापक, ब्रह्मा, विष्णु और महेश नाम से प्रसिद्ध है। सत्व गुण,रजोगुण और तमोगुण से परे, माया से ही भेद युक्त प्रतीत होने वाले, नीरिह, मायारहित, माया के स्वामी या प्रेरक, चतुर, सगुण, स्वतंत्र, आत्मानंद स्वरूप, निर्विकल्प, आत्माराम, निर्द्वन्द, भक्तपरवश, सुन्दर विग्रह से सुषोभित योगी, नित्य योग परायण, योग मार्गदर्शक, गर्वहारी, लोकेश्वर और सदा दीन वत्सल हैं। सदा तुम उन्हीं की शरण में जाओ। सर्वात्मना शम्भु का भजन करो। इससे प्रसन्न होकर वे तुम्हारा कल्याण करेंगे। ब्राह्मन! यदि तुम्हारे मन में यह विचार हो कि शंकर पत्नी का पानीग्रहण करेंगे तो शिवा को प्रसन्न करने के उद्देश्य से शिव को स्मरण करते हुए उत्तम तपस्या करो। अपने उस मनोरथ को ह्रदय में रखते हुए देवी शिवा का ध्यान करो। वे देवेश्वरी यदि प्रसन्न हो जाए तो सारा कार्य सिद्ध कर देंगी। यदि शिवा सगुण रूप से अवतार ग्रहण करके लोक में किसी की पुत्री हो मानव शरीर ग्रहण करें तो वह निश्चय ही महादेव जी की पत्नी हो सकती हैं। ब्राह्मन!तुम दक्ष को आज्ञा दो भगवान शिव के लिए पत्नी का उत्पादन करने के निमित्त स्वतः भक्ति भाव से प्रयत्न पूर्वक तपस्या करें। तात! शिवा और शिव दोनों को भक्तों के अधीन जानना चाहिए। वे निर्गुण ब्रह्म ब्रह्म स्वरूप होते हुई भी स्वेच्छा से सगुण हो जाते हैं।

 

अध्याय 10 –

 

विधे! भगवान शिव की इच्छा से प्रकट हुए हम दोनों ने जब उनसे प्रार्थना की थी, तब पूर्व काल में भगवान शंकर ने जो बात कही थी उसे याद करो। अपने शक्ति से सुंदर लीला विहार करने वाले निर्गुण शिव ने स्वेच्छा से सगुण होकर मुझको और तुम को प्रकट करने के पश्चात तुम्हें तो सृष्टि कार्य करने का आदेश दिया और उमासहित उन अविनाशी सृष्टि कर्ता प्रभु ने मुझे उस सृष्टि के पालन का कार्य सौंपा। फिर उन नाना लीला विशारद दयालु स्वामी ने हंसकर आकाश की ओर देखकर बड़े प्रेम से कहा वैष्णो! मेरा उत्कृष्ट रूप इन विधाता के अंग से इस लोक में प्रकट होगा जिसका नाम रुद्र होगा। रुद्र का यह रूप ऐसा होगा जैसा मेरा है। वह मेरा पूर्ण रूप होगा तुम दोनों को सदा उसकी पूजा करनी चाहिए। वह तुम दोनों के संपूर्ण मनोरथ की सिद्धि करने वाला होगा। वहीं जगत का प्रलय करने वाला होगा। समस्त गुणों का दृष्टा निर विशेष एवं उत्तम योग का पालक होगा। यद्यपि तीनों देवता मेरे ही रूप हैं विशेषतः रूद्र मेरा पूर्ण रूप होगा। देवी उमा के भी तीन रूप होंगे। एक रूप का नाम लक्ष्मी होगा, जो इन श्री हरि की पत्नी होगी। दूसरा रूप ब्रह्म पत्नी सरस्वती है। तीसरा रूप सती के नाम से प्रसिद्ध होगा सती उमा का पूर्ण रूप होंगी वहीं भावी रुद्र की पत्नी होगी।

ऐसा कहकर भगवान महेश्वर हम पर कृपा करने के पश्चात वहां से अंतर्ध्यान हो गए और हम दोनों सुख पूर्वक अपने अपने कार्यों में लग गए। समय पाकर मैं और तुम दोनों सपत्नीक हो गए और साक्षात भगवान शंकर रूद्र नाम से अवतरण हुए। वे इस समय कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। पृजेश्वर! शिवा भी सती नाम से अवतरण होने वाली है अतः तुम्हें उनके उत्पादन के लिए ही यत्न करना चाहिए।

ऐसा कहकर मुझ पर बड़ी भारी दया करके भगवान विष्णु अंतर्ध्यान हो गए और मुझे उनकी बातें सुनकर बड़ा आनंद प्राप्त हुआ।

 

अध्याय 11 – 

 

*दक्ष की तपस्या और देवी शिवा का उन्हें वरदान देना*

नारदजी ने पूछा –

पूज्य पिताजी! दृढतापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले दक्ष ने तपस्या करके देवी से कोनसा वर प्राप्त किया तथा वे देवी किस प्रकार दक्ष की कन्या हुई?

ब्रह्मा जी ने कहा –

नारद! तुम धन्य हो! इन सभी मुनियों के साथ भक्ति पूर्वक इस प्रसंग को सुनो। मेरी आज्ञा पाकर उत्तम बुद्धि वाले महा प्रजापति दक्ष ने क्षीरसागर के उत्तर तट पर स्थित हो जगदंबिका को पुत्री के रूप में प्राप्त करने की इच्छा तथा उनके प्रत्यक्ष दर्शन की कामना लिए ह्रदय मंदिर में विराजमान करके तपस्या प्रारंभ की। दक्ष ने मन को संयम में रखकर कठोर व्रत का पालन करते हुए शौच-संतोषदि नियमों से युक्त हो 3 हजार दिव्य वर्षों तक तप किया। वे कभी जल पीकर रहते थे कभी हवा पीते और कभी सर्वथा उपवास करते थे। भोजन के नाम पर कभी सूखे पत्ते चबा लेते थे।

मुनि श्रेष्ठ नारद! तदनंतर यम-नियम आदि से युक्त हो जगदंबा की पूजा में लगे हुए दक्ष को देवी शिवा ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया। जगन्मई जगदंबा का प्रत्यक्ष दर्शन पाकर प्रजापति दक्ष ने अपने आपको कृत कृत्य माना। वे कालिका देवी सिंह पर आरूढ़ थी। उनकी अंग कांति श्याम की। मुख बड़ा ही मनोहर था। वे चार भुजाओं से युक्त थी और हाथों में वरद,अभय, नील, कमल और खड्ग धारण किए हुई थी। नेत्र कुछ-कुछ लाल थे। खुले हुए केश बड़े सुंदर दिखाई देते थे। उत्तम प्रभा से प्रकाशित होने वाली उन जगदम्बा को भली-भांति प्रणाम करके दक्ष विचित्र वचनावलियों द्वारा उनकी स्तुति करने लगा।

दक्ष ने कहा –

जगदम्बे! महामाई! जगदीशे! महेश्वरी आपको नमस्कार है। आपने कृपा करके मुझे अपने स्वरूप का दर्शन कराया है। भगवती! आद्य! मुझ पर प्रसन्न होइए। शिव रूपिणी मुझ पर प्रसन्न होइए। जगन्माये! आप को मेरा नमस्कार है।

 

अध्याय 12 –

 

ब्रह्मा जी कहते हैं –

मुने! संयम चित वाले दक्ष के इस प्रकार स्तुति करने पर महेश्वरी शिवा ने स्वयं उनके अभिप्राय को जान लिया तो भी दक्ष से इस प्रकार कहा- दक्ष तुम्हारी इस भक्ति से मैं बहुत संतुष्ट हूं। तुम अपना मनोवांछित वर मांगो। तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है।

जगदंबा की यह बात सुनकर प्रजापति दक्ष बहुत प्रसन्न हुए और शिवा को बारंबार प्रणाम करते हुए बोले।

दक्ष ने कहा –

जगदंबे! यदि आप मुझे वर देने के लिए उद्यत हैं तो मेरी बात सुनिए और प्रसन्नता पूर्वक मेरी इच्छा पूर्ण कीजिए। मेरे स्वामी जो भगवान शिव हैं वे रूद्र नाम धारण करके ब्रह्माजी के पुत्र रूप से अवतरण हुए हैं। वे परमात्मा शिव के पूर्ण अवतार हैं परंतु आपका कोई अवतार नहीं हुआ है,फिर उनकी पत्नी कौन होगी? अतः हे शिवे! आप इस भूतल पर अवतरण होकर उन महेश्वर को अपने रूप लावण्य से मोहित कीजिए। देवी आपके सिवा दूसरी कोई स्त्री रूद्र देव को कभी मोहित नहीं कर सकती। इसलिए आप मेरी पुत्री होकर इस समय महादेव जी की पत्नी होइए। इस प्रकार सुंदर लीला करके आप हर मोहिनी (भगवान शिव को मोह करने वाली) बनिए। देवी यही मेरे लिए वर है। यह केवल मेरी ही स्वार्थ की बात हो, ऐसा नहीं सोचना चाहिए। मेरी ही साथ संपूर्ण जगत का भी हित है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव में से ब्रह्मा जी की प्रेरणा से मैं यहां आया हूं।

प्रजापति दक्ष का यह वचन सुनकर जगदम्बिका शिवा हंस पड़ी और मन ही मन भगवान शिव का स्मरण करके यूं बोली।

देवी ने कहा –

तात! प्रजापति! मेरी उत्तम बात सुनो। तुम्हारी भक्ति से मैं अत्यंत प्रसन्न हो तुम्हें संपूर्ण मनोवांछित वस्तु देने के लिए उद्यत हूं। दक्ष! यद्यपि मैं महेश्वरी हूं तथापि तुम्हारी भक्ति के अधीन हो तुम्हारी पत्नी के गर्भ से तुम्हारी पुत्री के रूप में अवतरण होंऊंगी। इसमें संशय नहीं है। अनघ! मैं अत्यंत दुस्सह तपस्या करके ऐसा प्रयत्न करूँगी। जिससे महादेव जी का वर पाकर उनकी पत्नी हो जाऊं। इसके सिवा और किसी उपाय से कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि भगवान सदाशिव सर्वथा निर्विकार है, ब्रह्मा और विष्णु के भी सेव्य हैं। तथा नित्य परिपूर्ण रूप ही है। मैं सदा उनकी दासी और प्रिया हूं। प्रत्येक जन्म में भी नाना रूप धारी शंभू ही मेरे स्वामी होते हैं। भगवान सदाशिव अपने दिए हुए वर के प्रभाव से ब्रह्मा की भृकुटि से रूद्र रूप में अवतरण हुए हैं। मैं भी वर से उनकी आज्ञा के अनुसार यहां अवतार लूंगी। तात! अब तुम अपने घर को जाओ। इस कार्य में जो मेरी दूती अथवा सहायिका होंगी उसे मैंने जान लिया है। अब शीघ्र ही मैं तुम्हारी पुत्री होकर महादेव जी की पत्नी बनूँगी।

दक्ष से यह उत्तम वचन कह कर मन ही मन शिव की आज्ञा प्राप्त करके देवी शिवा ने शिव के चरणारविंदो का चिंतन करते हुए फिर कहा- प्रजापते! मेरा एक प्रण है। इसे सदा मन में रखना चाहिए। मैं उस प्रण को सुना देती हूँ। तुम इसे सत्य समझो, मिथ्या न मानो। यदि कभी मेरे पति के प्रति तुम्हारा आदर घट जाएगा तब उसी समय मैं अपने शरीर को त्याग दूंगी अपने स्वरूप में लीन हो जाऊंगी अथवा दूसरा शरीर धारण कर लूंगी। मेरा यह कथन सत्य है। प्रजापति! प्रत्येक कल्प या सर्ग के लिए तुम्हें यह वर दे दिया गया- मैं तुम्हारी पुत्री होकर भगवान शिव की पत्नी होऊंगी।

प्रजापति दक्ष से ऐसा कहकर महेश्वरी शिवा उनके देखते देखते ही वहीं अंतरध्यान हो गई। दुर्गा जी के अन्तरध्यान होने पर दक्ष भी अपने आश्रम को लौट गए और यह सोचकर प्रसन्न रहने लगी की देवी शिवा मेरी पुत्री होने वाली है।

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