रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय तीन | rudra sanhita shivpuran.

नमस्कार दोस्तों आज हम आपको रुद्र संहिता का अध्याय तीसरा के बारेमे जानकारी देने वाले है | हम आपको अध्याय तीन की सारी जानकारी देंगे |

सूत जी कहते हैं –

महर्षियों! जब नारद मुनि इच्छा अनुसार वहां से चले गए, तब भगवान शिव की इच्छा से माया विशारद श्री हरि ने तत्काल अपनी माया प्रकट की। उन्होंने मुनि के मार्ग में एक विशाल नगर की रचना की, जिसका विस्तार सौ योजन था। वह अद्भुत नगर बड़ा ही मनोहर था। भगवान ने उसे अपने वैकुंठ लोक से भी अधिक रमणीय बनाया था। नाना प्रकार की वस्तुएं उस नगर की शोभा बढ़ाती थी। वहां स्त्रियों और पुरुषों के लिए बहुत से विहार स्थल थे। वह श्रेष्ठ नगर चारों वर्ण के लोगों से भरा था। वहां सीलनिधि नामक ऐश्वर्यशाली राजा राज्य करते थे। वे अपनी पुत्री का स्वयंवर करने के लिए उद्यत थे। उन्होंने महान उत्सव का आयोजन किया था। उनकी कन्या का वरण करने के लिए उत्सुक हो चारों दिशाओं से बहुत से राजकुमार पधारे थे। जो नाना प्रकार की वेशभूषा तथा सुंदर शोभा से प्रकाशित हो रहे थे। मुनी शिरोमणि नारद को आया देख महाराज सीलनिधि ने श्रेष्ठ रत्न के सिंहासन पर बिठाकर उनका पूजन किया।

 

अपनी सुंदरी कन्या को जिसका नाम श्रीमती था बुलवाया और उससे नारद जी के चरणो में प्रणाम करवाया। उस कन्या को देखकर नारद मुनि चकित हो गए और बोले-राजन यह देवकन्या के समान सुंदरी महा भगा कौन है? उनकी यह बात सुनकर राजा ने हाथ जोड़कर कहा-मुन्ने ! यह मेरी पुत्री है। इसका नाम श्रीमती है। अब इसके विवाह का समय आ गया है। यह अपने लिए सुंदर वर चुनने के निमित्त स्वयंवर में जाने वाली है। इसमें सब प्रकार के शुभ लक्षण लक्षित होते हैं। महर्षि आप इसका भाग्य बताइए। राजा के इस प्रकार पूछने पर काम से मोहित हुए मुनि श्रेष्ठ नारद उस कन्या को प्राप्त करने की इच्छा मन में लिए राजा को संबोधित करके इस प्रकार बोले-

विद्येश्वर संहिता , शिवपुराण हिंदी | Vidhyeshwar Sanhita in hindi.
विद्येश्वर संहिता , शिवपुराण हिंदी | Vidhyeshwar Sanhita in hindi.

भूपाल! आपकी यह पुत्री समस्त शुभ लक्षणों से संपन्न है, परम सौभाग्यवती है। अपने महान भाग्य के कारण यह धन्य है और साक्षात लक्ष्मी की भांति समस्त गुणों की आधार है। इसका भावी पति निश्चय ही भगवान शंकर के समान वैभवशाली, सर्वेश्वर, किसी से पराजित नहीं होने वाला, वीर, काम विजय तथा संपूर्ण देवताओं में श्रेष्ठ होगा।

ऐसा कहकर राजा से विदा ले इच्छा अनुसार चलने वाले नारद मुनि वहां से चल दिए। वह काम के वशीभूत हो गए थे। शिव की माया ने उन्हें विशेष मोह में डाल दिया था। वे मुनि मन ही मन सोचने लगे कि मैं इस राजकुमारी को कैसे प्राप्त करूं? स्वयंवर में आए हुए राजाओं में से सब को छोड़कर यह एकमात्र मेरा ही वरण करें यह कैसे संभव हो सकता है?आर्यों को सौंदर्य सर्वथा प्रिय होता है। सौंदर्य को देखकर ही प्रसन्नता पूर्वक मेरे अधीन हो सकती है, इसमें संशय नहीं है।

ऐसा विचार कर काम से विह्वल हुए मुनिवर नारद भगवान विष्णु का रूप ग्रहण करने के लिए तत्काल उनके लोक में जा पहुंचे। वहां भगवान विष्णु को प्रणाम करके इस प्रकार बोले-भगवान मैं एकांत में आपसे अपना सारा वृत्तांत कहूंगा। तब बहुत अच्छा कहकर लक्ष्मीपति श्रीहरि नारद जी के साथ एकांत में जा बैठे और बोले-मुनि अब आप अपनी बात कहिए।

तब नारदजी ने कहा –

भगवान आप के भक्त जो राजा सीलनिधि है, वे सदा धर्म पालन में तत्पर रहते हैं। उनकी एक विशाल लोचना कन्या है, जो बहुत ही सुंदर है। उसका नाम श्रीमती है। वह विश्व मोहिनी के रूप में विख्यात है और तीनों लोकों में सबसे अधिक सुंदरी है। प्रभु आज मैं शीघ्र ही उस कन्या से विवाह करना चाहता हूं। राजा सीलनिधि ने अपनी पुत्री की इच्छा से स्वयंवर रचाया है। इसलिए चारों दिशाओं से वहां सहस्त्र राजकुमार पधारे हैं। नाथ मैं आपका प्रिय सेवक हूं। अतः आप मुझे अपना स्वरूप दे दीजिए, जिसे राजकुमारी श्रीमती निश्चय ही मुझे वर ले।

सूत जी कहते हैं-महर्षियों! नारद मुनि की ऐसी बात सुनकर भगवान मधुसूदन हंस पड़े और भगवान शंकर के प्रभाव का अनुभव कर के उन दयालु प्रभु ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया-

भगवान विष्णु बोले-मुन्ने! तुम अपने अभीष्ट स्थान को जाओ। मैं उसी तरह तुम्हारा हित साधन करूंगा, जैसे श्रेष्ठ वैद्य अत्यंत पीड़ित रोगी का करता है; क्योंकि तुम मुझे विशेष प्रिय हो।

ऐसा कहकर भगवान विष्णु ने नारद मुनी को मुह तो वानर का दे दिया और शेष अंगों में अपने जैसा स्वरूप देकर वहां से अंतर्ध्यान हो गए। भगवान की पूर्वोवक्त बात सुनकर और उनका मनोहर रूप प्राप्त हो गया समझ कर नारद मुनि को बड़ा हर्ष हुआ। वे अपने को कृत्य मानने लगे। भगवान ने क्या प्रयत्न किया है इसको वे समझ ना सके। श्रेष्ठ नारद शीघ्र ही उस स्थान पर जा पहुंचे जहां राजा सीलनिधि ने राजकुमारों से भरी हुई स्वयंवर सभा का आयोजन किया था।

 

विप्रो! राजा सीलनिधि द्वारा आयोजित स्वयंवर सभा दूसरी इंद्रसभा के समान अत्यंत शोभा पा रही थी। नारद जी उस राज्य सभा में जा बैठे और वहां बैठकर प्रसन्न मन से बार-बार यही सोचने लगे कि मैं भगवान विष्णु के समान रूप धारण किए हुए हैं। राजकुमारी अवश्य मेरा ही वरण करेगी दूसरे का नहीं। मुनी श्रेष्ठ नारद को यह ज्ञात नहीं था कि मेरा मुंह कितना कुरूप है। उस सभा में बैठे हुए सब मनुष्यों ने मुनि को उनके पूर्व रूप में ही देखा। राजकुमार आदि कोई भी उनके रूप परिवर्तन के रहस्य को न जान सके। वह नारद जी की रक्षा के लिए भगवान रुद्र के दो पार्षद आए थे जो ब्राह्मण का रूप धारण करके वहां बैठे थे। नारद जी के रूप परिवर्तन के उत्तम भेद को जानते थे। मुनी को काम आवेश से मूड हुआ जानकर दोनों पार्षद उनके निकट गए और आपस में बातचीत करते हुए उनकी हंसी उड़ाने लगे। परंतु मुनी तो काम से विह्ल हो रहे थे। अतः उन्होंने उनकी यथार्थवाद भी अनसुनी कर दी। वह मोहित हो श्रीमती को प्राप्त करने की इच्छा से उसके आगमन की प्रतीक्षा करने लगे।

इसी बीच में वह सुंदरी राजकन्या स्त्रियों से घिरी हुई अंतःपुर से वहां आई। उसने अपने हाथ में सोने की एक सुंदर माला ले रखी थी। वह शुभ लक्षणों वाली राजकुमारी स्वयंवर के मध्य भाग में लक्ष्मी के समान खड़ी हुई अपूर्व सुन्दरा लग रही थी। उत्तम व्रत का पालन करने वाली वह कन्या माला हाथ में लेकर अपने मन के अनुरूप वर का अन्वेषण करती हुई सारी सभा में भ्रमण करने लगी। नारद मुनि का भगवान विष्णु के समान शरीर और वानर जैसा मुंह देखकर वह कुपित हो गई और उनकी ओर से दृष्टि हटाकर दूसरी ओर चली गई। स्वयंवर सभा में अपने मनोवांछित वर को ने देखकर वह भयभीत हो गई। राजकुमारी उस सभा के भीतर चुपचाप खड़ी रह गई। उसने किसी के गले में जयमाला नहीं डाली। इतने में राजा के समान वेशभूषा धारण किए भगवान विष्णु वहां आ पहुंचे। किन्हीं दूसरे लोगों ने उनको वहां नहीं देखा केवल उस कन्या की ही दृष्टि उन पर पड़ी। भगवान को देखते ही उस परम सुंदरी राजकुमारी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उसने तत्काल ही उनके कंठ में वह माला पहना दी। राजा का रूप धारण करने वाले भगवान विष्णु उस राजकुमारी को साथ लेकर तुरंत अदृश्य हो गए और अपने धाम में आ पहुंचे।

 

इधर सब राजकुमार श्रीमती की ओर से निराश हो गए। नारद मुनि तो काम वेदना से आतुर हो रहे थे। इसलिए भी अत्यंत विहल हो उठे। तब वे दोनों विप्र रूप धारी ज्ञान विशारद रूद्र गण काम विह्वल नारद जी से उसी क्षण बोले-

हे नारद! हे मूने! तुम व्यर्थ ही काम से मोहित हो रहे हो और सौंदर्य के बल से राजकुमारी को पाना चाहते हो। अपना वानर के समान घृणित मुंह तो देख लो। सूत जी कहते हैं- महर्षियों! उन रूद्रगणों का यह वचन सुनकर नारद जी को बड़ा विस्मय हुआ। वे शिव की माया से मोहित थे। उन्होंने दर्पण में अपना मुंह देखा। वानर के समान अपना मुंह देख वे तुरंत ही क्रोध से जल उठे और माया से मोहित होने के कारण दोनों शिवगणों को वहां शाप देते हुए बोले- अरे तुम दोनों ने मुझ ब्राह्मण का उपहास किया है। अतः तुम ब्राह्मण के वीर्य से उत्पन्न राक्षस हो जाओ। ब्राह्मण की संतान होने पर भी तुम्हारे आकार राक्षस के समान ही होंगे। इस प्रकार अपने लिए शाप सुनकर वे दोनों ज्ञान शिरोमणि शिवगण मुनी को मोहित जानकर कुछ नहीं बोले। ब्राह्मणों! वे सदा सब घटनाओं में भगवान शिव की इच्छा मानते थे। अतः उदासीन भाव से अपने स्थान को चले गए और भगवान शिव की स्तुति करने लगे।

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