रुद्र संहिता पार्वती खण्ड शिवपुराण अध्याय 7 से 9 । Rudra sanhita adhyaya 7 to 9 in hindi.

नमस्कार दोस्तों आज हम आपको शिवपुराण के रुद्र संहिता

का पार्वती खण्ड की जानकारी देने वाले है |

शिवपुराण के बारेमे सभी जानकारी हमने हमारे वेबसाइट पर डाली हुई है आप जरूर पढ़िये |

रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 11
रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 7

अध्याय 7 –

 

पार्वतीका नामकरण और विद्याध्ययन, नारदका हिमवान्के यहाँ जाना,

पार्वतीका हाथ देखकर भावी फल बताना, चिन्तित हुए हिमवान्को

आश्वासन दे पार्वतीका विवाह शिवजीके साथ करनेको

कहना और उनके संदेहका निवारण करना

ब्रह्माजी कहते हैं

नारद ! मेनाके सामने

महातेजस्विनी कन्या होकर लौकिक गतिका

आश्रय ले वह रोने लगी। उसका मनोहर

रुदन सुनकर घरकी सब स्त्रियाँ हर्षसे खिल

उठीं और बड़े वेगसे प्रसन्नतापूर्वक वहाँ आ

पहुँचीं। नील कमल-दलके समान श्याम

कान्तिवाली उस परम तेजस्विनी और

मनोरम कन्याको देखकर गिरिराज हिमालय

अतिशय आनन्दमें निमग्न हो गये। तदनन्तर

सुन्दर मुहूर्तमें मुनियोंके साथ हिमवान्ने

अपनी पुत्रीके काली आदि सुखदायक नाम

रखे। देवी शिवा गिरिराजके भवनमें

दिनोंदिन बढ़ने लगी-ठीक उसी तरह,

जैसे वर्षाके समयमें गंगाजीकी जलराशि

और शरद् ऋतुके शुक्लपक्षमें चाँदनी बढ़ती

है। सुशीलता आदि गुणोंसे संयुक्त तथा

बन्धुजनोंकी प्यारी उस कन्याको कुटुम्बके

लोग अपने कुलके अनुरूप पार्वती नामसे

पुकारने लगे। माताने कालिकाको ‘उमा’

(अरी! तपस्या मत कर) कहकर तप

करनेसे रोका था। मुने! इसलिये वह सुन्दर

मुखवाली गिरिराजनन्दिनी आगे चलकर

लोकमें उमाके नामसे विख्यात हो गयी।

नारद! तदनन्तर जब विद्याके उपदेशका

समय आया, तब शिवादेवी अपने चित्तको

एकाग्र करके बड़ी प्रसन्नताके साथ श्रेष्ठ

गुरुसे विद्या पढ़ने लगीं। पूर्वजन्मकी सारी

विद्याएँ उन्हें उसी तरह प्राप्त हो गयीं, जैसे

शरतुकालमें हंसोंकी पाँत अपने-अप

स्वर्गगाके तटपर पहुँच जाती है और रात्रिमें

अपना प्रकाश स्वतः महौषधियोंको प्राप्त

हो जाता है। मुने! इस प्रकार मैंने शिवाकी

किसी एक लीलाका ही वर्णन किया है।

अब अन्य लीलाका वर्णन करूँगा, सुनो।

एक समयकी बात है तुम भगवान्

शिवकी प्रेरणासे प्रसन्नतापूर्वक हिमाचलके

घर गये। मुने! तुम शिवतत्त्वके ज्ञाता और

उनकी लीलाके जानकारोंमें श्रेष्ठ हो। नारद!

गिरिराज हिमालयने तुम्हें घरपर आया देख

प्रणाम करके तुम्हारी पूजा की और अपनी

पुत्रीको बुलाकर उससे तुम्हारे चरणों में

प्रणाम करवाया। मुनीश्वर! फिर स्वयं ही

तुम्हें नमस्कार करके हिमाचलने अपने

सौभाग्यकी सराहना की और अत्यन्त मस्तक

झुका हाथ जोड़कर तुमसे कहा।

हिमालय बोले –

हे मुने नारद! हे

ब्रह्मपुत्रों में श्रेष्ठ ज्ञानवान् प्रभो! आप

सर्वज्ञ हैं और कृपापूर्वक दूसरोंके उपकारमें

लगे रहते हैं। मेरी पुत्रीकी जन्मकुण्डलीमें

जो गुण-दोष हो, उसे बताइये। मेरी बेटी

किसकी सौभाग्यवती प्रिय पत्नी होगी।

ब्रहाजी कहते हैं –

मुनिश्रेष्ठ! तुम

बातचीतमें कुशल और कौतुकी तो हो ही,

गिरिराज हिमालयके ऐसा कहनेपर तुमने

कालिकाका हाथ देखा और उसके सम्पूर्ण

अंगोंपर विशेषरूपसे दृष्टिपात करके

हिमालयसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

नारद बोले-शैलराज और मेना ! आपकी

यह पुत्री चन्द्रमाकी आदिकलाके समान

बढ़ी है। समस्त शुभ लक्षण इसके अंगोंकी

शोभा बढ़ाते हैं। यह अपने पतिके लिये

अत्यन्त सुखदायिनी होगी और माता-

पिताकी भी कीर्ति बढ़ायेगी। संसारकी

समस्त नारियोंमें यह परम साध्वी और

स्वजनोंको सदा महान् आनन्द देनेवाली

होगी। गिरिराज! तुम्हारी पुत्रीके हाथमें

सब उत्तम लक्षण ही विद्यमान हैं। केवल

एक रेखा विलक्षण है, उसका यथार्थ फल

सुनो। इसे ऐसा पति प्राप्त होगा, जो योगी,

नंग-धड्ग रहनेवाला, निर्गुण और निष्काम

होगा। उसके न माँ होगी न बाप। उसे मान-

सम्मानका भी कोई खयाल नहीं रहेगा और

वह सदा अमंगल वेष धारण करेगा।

ब्रह्माजी कहते हैं –

नारद! तुम्हारी इस

बातको सुन और सत्य मानकर मेना तथा

हिमाचल दोनों पति-पत्नी बहुत दुःखित

हुए, परंतु जगदम्बा शिवा तुम्हारे ऐसे

वचनको सुनकर और लक्षणोंद्वारा उस

भावी पतिको शिव मानकर मन-ही-मन

हर्षसे खिल उठीं। ‘नारदजीकी बात कभी

झूठ नहीं हो सकती’ यह सोचकर शिवा

भगवान् शिवके युगलचरणों में सम्पूर्ण हृदयसे

अत्यन्त स्नेह करने लगीं। नारद! उस समय

मन-ही-मन दुःखी हो हिमवान्ने तुमसे

कहा-‘मुने! उस रेखाको फल सुनकर

मुझे बड़ा दुःख हुआ है। मैं अपनी पुत्रीको

उससे बचानेके लिये क्या उपाय करू?’

‘मुने! तुम मह्मन् कौतुक करनेवाले और

वार्तालाप-विशारद से।’ हिमवान्की बात

सुनकर अपने मंगलकारी वचनों द्वारा उनका

हर्ष बढ़ाते हुए तुमने इस प्रकार कह्म।

नारद बोले-गिरिराज! तुम स्नेहपूर्वक

सुनो, मेरी बात सच्ची है। वह झूठ नहीं

होगी। हाथकी रेखा ब्रह्माजीकी लिपि है।

निश्चय ही वह मिथ्या नहीं हो सकती। अतः

शैलप्रवर! इस कन्याको वैसा ही पति

मिलेगा, इसमें संशय नहीं। परंतु इस रेखाके

कफलसे बचनेके लिये एक उपाय भी है,

उसे प्रेमपूर्वक सुनो। उसे करनेसे तुम्हें सुख

मिलेगा। मैंने जैसे वरका निरूपण किया

है, वैसे ही भगवान् शंकर हैं। वे सर्वसमर्थ

हैं और लीलाके लिये अनेक रूप धारण

करते रहते हैं।

 

उनमें समस्त कुलक्षण

सद्गुणोंके समान हो जायँगे। समर्थ पुरुषमें

कोई दोष भी हो तो वह उसे दु:ख नहीं

देता। असमर्थके लिये ही वह दुःखदायक

होता है। इस विषयमें सूर्य, अग्नि और

गंगाका दृष्टान्त सामने रखना चाहिये।

इसलिये तुम विवेकपूर्वक अपनी कन्या

शिवाको भगवान् शिवके हाथमें सौंप दो।

भगवान् शिव सबके ईश्वर, सेव्य, निर्विकार,

सामर्थ्यशाली और अविनाशी हैं। वे जल्दी

| ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः शिवाको ग्रहण

कर लेंगे, इसमें संशय नहीं है। विशेषतः वे

तपस्यासे वशमें हो जाते हैं। यदि शिवा तप

करे तो सब काम ठीक हो जायगा।

सर्वेश्वर शिव सर्व प्रकारसे समर्थ हैं। वे

| इन्द्रके वज्रका भी विनाश कर सकते हैं।

ब्रह्माजी उनके अधीन हैं तथा वे सबको

सुख देनेवाले हैं। पार्वती भगवान् शंकरकी

प्यारी पत्नी होगी। वह सदा रुद्रदेवके अनुकूल

रहेगी; क्योंकि यह महासाध्वी और उत्तम

व्रतका पालन करनेवाली है तथा माता-

| पिताके सुखको बढ़ानेवाली है। यह तपस्या

करके भगवान् शिवके मनको अपने वशमें

कर लेगी और वे भगवान् भी इसके सिवा

किसी दूसरी स्त्रीसे विवाह नहीं करेंगे। इन

दोनोंका प्रेम एकदूसरेके अनुरूप है। वैसा

| उच्चकोटिका प्रेम न तो किसीका हुआ है,

न इस समय है और न आगे होगा। गिरिश्रेष्ठ!

| इन्हें देवताओंके कार्य करने हैं। उनके जो-

| जो काम नष्टप्राय हो गये हैं, उन सबका

| इनके द्वारा पुनः उज्जीवन या उद्धार होगा।

| अद्रिराज! आपकी कन्याको पाकर ही

 

भगवान् हर अर्द्धनारीश्वर होंगे। इन दोनोंका

पुनः हर्षपूर्वक मिलन होगा। आपकी यह

पुत्री अपनी तपस्याके प्रभावसे सर्वेश्वर

महेश्वरको संतुष्ट करके उनके शरीरके

आधे भागको अपने अधिकारमें कर लेगी,

उनका अर्धाग बन जायगी। गिरिश्रेष्ठ!

तुम्हें अपनी यह कन्या भगवान् शंकरके

सिवा दूसरे किसीको नहीं देनी चाहिये।

यह देवताओंका गुप्त रहस्य है, इसे कभी

प्रकाशित नहीं करना चाहिये।

| हिमालयने कहा-ज्ञानी मुने नारद! मैं

आपको एक बात बता रहा है, उसे प्रेमपूर्वक

सुनिये और आनन्दका अनुभव कीजिये।

सुना जाता है, महादेवजी सब प्रकारको

आसक्तियोंका त्याग करके अपने मनको

संयममें रखते हुए नित्य तपस्या करते हैं।

देवताओंकी भी दृष्टिमें नहीं आते। देवर्षे!

ध्यानमार्गमें स्थित हुए वे भगवान् शम्भु

परब्रह्ममें लगाये हुए अपने मनको कैसे

हटायेंगे ? ध्यान छोड़कर विवाह करनेको

कैसे उद्यत होंगे? इस विषयमें मुझे महान्

संदेह है। दीपककी लौके समान प्रकाशमान,

अविनाशी, प्रकृतिसे परे, निर्विकार, निर्गुण,

सगुण, निर्विशेष और निरीह जो परब्रह्म है,

वही उनका अपना सदाशिव नामक स्वरूप

हैं। अतः वे उसीका सर्वत्र साक्षात्कार

करते हैं, किसी बाह्य-अनात्मवस्तुपर दृष्टि

नहीं डालते। मुने! यहाँ आये हुए किंनरोंके

मुखसे उनके विषयमें नित्य ऐसी ही बात

सुनी जाती है। क्या वह बात मिथ्या ही है।

विशेषतः यह बात भी सुननेमें आती है कि

भगवान् हरने पूर्वकालमें सतीके समक्ष

एक प्रतिज्ञा की थी। उन्होंने कहा था-

‘दक्षकुमारी प्यारी सती ! मैं तुम्हारे सिवा

 

दूसरी किसी स्त्रीका अपनी पत्नी बनानेके

लिये न वरण करूँगा न ग्रहण। यह मैं

तुमसे सत्य कहता हूँ।’ इस प्रकार सतीके

साथ उन्होंने पहले ही प्रतिज्ञा कर ली है।

अब सतीके मर जानेपर वे दूसरी किसी

स्त्रीको कैसे ग्रहण करेंगे?

यह सुनकर तुम (नारद)-ने कहा-

महामते ! गिरिराज! इस विषयमें तुम्हें चिन्ता

नहीं करनी चाहिये। तुम्हारी यह

पुत्री काली ही पूर्वकालमें दक्षकन्या सती

हुई थी। उस समय इसीका सदा

सर्वमंगलदायी सती नाम था। वे सती

दक्षकन्या होकर रुद्रकी प्यारी पनी हुई

थीं। उन्होंने पिताके यज्ञमें अनादर पाकर

तथा भगवान् शंकरका भी अपमान हुआ

देख क्रोधपूर्वक अपने शरीरको त्याग दिया

| था। वे ही सती फिर तुम्हारे घरमें उत्पन्न हुई

| हैं। तुम्हारी पुत्री साक्षात् जगदम्बा शिवा है।

यह पार्वती भगवान् हरकी पली होगी,

इसमें संशय नहीं है।

नारद! ये सब बातें तुमने हिमवान्को

विस्तारपूर्वक बतायीं। पार्वतीका वह पूर्वरूप

और चरित्र प्रीतिको बढ़ानेवाला है। कालीके

उस सम्पूर्ण पूर्ववृत्तान्तको तुम्हारे मुखसे

सुनकर हिमवान् अपनी पत्नी और पुत्रके

साथ तत्काल संदेहरहित हो गये। इसी तरह

तुम्हारे मुखसे अपनी उस पूर्वकथाको सुनकर

कालीने लज्जाके मारे मस्तक झुका लिया

और उसके मुखपर मन्द मुसकानकी प्रभा

फैल गयी। गिरिराज हिमालय पार्वतीके

उस चरित्रको सुनकर उसके माथेपर हाथ

फेरने लगे और मस्तक मुँधकर उसे अपने

आसनके पास ही बिठा लिया।

नारद! इसके पश्चात् तुम उसी क्षण

प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गलोकको चले गये और

गिरिराज हिमवान् भी मन-ही-मन

आनन्दसे युक्त हो अपने सर्वसम्पत्तिशाली

मनोहर भवनमें प्रविष्ट हो गये। (अध्याय ७-८)

 

अध्याय 8 – 

 

पार्वतीका नामकरण और विद्याध्ययन, नारदका हिमवान्के यहाँ जाना,

पार्वतीका हाथ देखकर भावी फल बताना, चिन्तित हुए हिमवान्को

आश्वासन दे पार्वतीका विवाह शिवजीके साथ करनेको

कहना और उनके संदेहका निवारण करना

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! मेनाके सामने

महातेजस्विनी कन्या होकर लौकिक गतिका

आश्रय ले वह रोने लगी। उसका मनोहर

रुदन सुनकर घरकी सब स्त्रियाँ हर्षसे खिल

उठीं और बड़े वेगसे प्रसन्नतापूर्वक वहाँ आ

पहुँचीं। नील कमल-दलके समान श्याम

कान्तिवाली उस परम तेजस्विनी और

मनोरम कन्याको देखकर गिरिराज हिमालय

अतिशय आनन्दमें निमग्न हो गये। तदनन्तर

सुन्दर मुहूर्तमें मुनियोंके साथ हिमवान्ने

अपनी पुत्रीके काली आदि सुखदायक नाम

रखे। देवी शिवा गिरिराजके भवनमें

दिनोंदिन बढ़ने लगी-ठीक उसी तरह,

जैसे वर्षाके समयमें गंगाजीकी जलराशि

और शरद् ऋतुके शुक्लपक्षमें चाँदनी बढ़ती

है। सुशीलता आदि गुणोंसे संयुक्त तथा

बन्धुजनोंकी प्यारी उस कन्याको कुटुम्बके

लोग अपने कुलके अनुरूप पार्वती नामसे

पुकारने लगे। माताने कालिकाको ‘उमा’

(अरी! तपस्या मत कर) कहकर तप

करनेसे रोका था। मुने! इसलिये वह सुन्दर

मुखवाली गिरिराजनन्दिनी आगे चलकर

लोकमें उमाके नामसे विख्यात हो गयी।

नारद! तदनन्तर जब विद्याके उपदेशका

समय आया, तब शिवादेवी अपने चित्तको

एकाग्र करके बड़ी प्रसन्नताके साथ श्रेष्ठ

गुरुसे विद्या पढ़ने लगीं। पूर्वजन्मकी सारी

विद्याएँ उन्हें उसी तरह प्राप्त हो गयीं, जैसे

शरतुकालमें हंसोंकी पाँत अपने-अप

स्वर्गगाके तटपर पहुँच जाती है और रात्रिमें

अपना प्रकाश स्वतः महौषधियोंको प्राप्त

हो जाता है। मुने! इस प्रकार मैंने शिवाकी

किसी एक लीलाका ही वर्णन किया है।

अब अन्य लीलाका वर्णन करूँगा, सुनो।

एक समयकी बात है तुम भगवान्

शिवकी प्रेरणासे प्रसन्नतापूर्वक हिमाचलके

घर गये। मुने! तुम शिवतत्त्वके ज्ञाता और

उनकी लीलाके जानकारोंमें श्रेष्ठ हो। नारद!

गिरिराज हिमालयने तुम्हें घरपर आया देख

प्रणाम करके तुम्हारी पूजा की और अपनी

पुत्रीको बुलाकर उससे तुम्हारे चरणों में

प्रणाम करवाया। मुनीश्वर! फिर स्वयं ही

तुम्हें नमस्कार करके हिमाचलने अपने

सौभाग्यकी सराहना की और अत्यन्त मस्तक

झुका हाथ जोड़कर तुमसे कहा।

हिमालय बोले-हे मुने नारद! हे

ब्रह्मपुत्रों में श्रेष्ठ ज्ञानवान् प्रभो! आप

सर्वज्ञ हैं और कृपापूर्वक दूसरोंके उपकारमें

लगे रहते हैं। मेरी पुत्रीकी जन्मकुण्डलीमें

जो गुण-दोष हो, उसे बताइये। मेरी बेटी

किसकी सौभाग्यवती प्रिय पत्नी होगी।

ब्रहाजी कहते हैं-मुनिश्रेष्ठ! तुम

बातचीतमें कुशल और कौतुकी तो हो ही,

गिरिराज हिमालयके ऐसा कहनेपर तुमने

कालिकाका हाथ देखा और उसके सम्पूर्ण

अंगोंपर विशेषरूपसे दृष्टिपात करके

हिमालयसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

नारद बोले-शैलराज और मेना ! आपकी

यह पुत्री चन्द्रमाकी आदिकलाके समान

बढ़ी है। समस्त शुभ लक्षण इसके अंगोंकी

शोभा बढ़ाते हैं। यह अपने पतिके लिये

अत्यन्त सुखदायिनी होगी और माता-

पिताकी भी कीर्ति बढ़ायेगी। संसारकी

समस्त नारियोंमें यह परम साध्वी और

स्वजनोंको सदा महान् आनन्द देनेवाली

होगी। गिरिराज! तुम्हारी पुत्रीके हाथमें

सब उत्तम लक्षण ही विद्यमान हैं। केवल

एक रेखा विलक्षण है, उसका यथार्थ फल

सुनो। इसे ऐसा पति प्राप्त होगा, जो योगी,

नंग-धड्ग रहनेवाला, निर्गुण और निष्काम

होगा। उसके न माँ होगी न बाप। उसे मान-

सम्मानका भी कोई खयाल नहीं रहेगा और

वह सदा अमंगल वेष धारण करेगा।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! तुम्हारी इस

बातको सुन और सत्य मानकर मेना तथा

हिमाचल दोनों पति-पत्नी बहुत दुःखित

हुए, परंतु जगदम्बा शिवा तुम्हारे ऐसे

वचनको सुनकर और लक्षणोंद्वारा उस

भावी पतिको शिव मानकर मन-ही-मन

हर्षसे खिल उठीं। ‘नारदजीकी बात कभी

झूठ नहीं हो सकती’ यह सोचकर शिवा

भगवान् शिवके युगलचरणों में सम्पूर्ण हृदयसे

अत्यन्त स्नेह करने लगीं। नारद! उस समय

मन-ही-मन दुःखी हो हिमवान्ने तुमसे

कहा-‘मुने! उस रेखाको फल सुनकर

मुझे बड़ा दुःख हुआ है। मैं अपनी पुत्रीको

उससे बचानेके लिये क्या उपाय करू?’

‘मुने! तुम मह्मन् कौतुक करनेवाले और

वार्तालाप-विशारद से।’ हिमवान्की बात

सुनकर अपने मंगलकारी वचनों द्वारा उनका

हर्ष बढ़ाते हुए तुमने इस प्रकार कह्म।

नारद बोले-गिरिराज! तुम स्नेहपूर्वक

सुनो, मेरी बात सच्ची है। वह झूठ नहीं

होगी। हाथकी रेखा ब्रह्माजीकी लिपि है।

निश्चय ही वह मिथ्या नहीं हो सकती। अतः

शैलप्रवर! इस कन्याको वैसा ही पति

मिलेगा, इसमें संशय नहीं। परंतु इस रेखाके

कफलसे बचनेके लिये एक उपाय भी है,

उसे प्रेमपूर्वक सुनो। उसे करनेसे तुम्हें सुख

मिलेगा। मैंने जैसे वरका निरूपण किया

है, वैसे ही भगवान् शंकर हैं। वे सर्वसमर्थ

हैं और लीलाके लिये अनेक रूप धारण

करते रहते हैं।

 

उनमें समस्त कुलक्षण

सद्गुणोंके समान हो जायँगे। समर्थ पुरुषमें

कोई दोष भी हो तो वह उसे दु:ख नहीं

देता। असमर्थके लिये ही वह दुःखदायक

होता है। इस विषयमें सूर्य, अग्नि और

गंगाका दृष्टान्त सामने रखना चाहिये।

इसलिये तुम विवेकपूर्वक अपनी कन्या

शिवाको भगवान् शिवके हाथमें सौंप दो।

भगवान् शिव सबके ईश्वर, सेव्य, निर्विकार,

सामर्थ्यशाली और अविनाशी हैं। वे जल्दी

| ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः शिवाको ग्रहण

कर लेंगे, इसमें संशय नहीं है। विशेषतः वे

तपस्यासे वशमें हो जाते हैं। यदि शिवा तप

करे तो सब काम ठीक हो जायगा।

सर्वेश्वर शिव सर्व प्रकारसे समर्थ हैं। वे

| इन्द्रके वज्रका भी विनाश कर सकते हैं।

ब्रह्माजी उनके अधीन हैं तथा वे सबको

सुख देनेवाले हैं। पार्वती भगवान् शंकरकी

प्यारी पत्नी होगी। वह सदा रुद्रदेवके अनुकूल

रहेगी; क्योंकि यह महासाध्वी और उत्तम

व्रतका पालन करनेवाली है तथा माता-

| पिताके सुखको बढ़ानेवाली है। यह तपस्या

करके भगवान् शिवके मनको अपने वशमें

कर लेगी और वे भगवान् भी इसके सिवा

किसी दूसरी स्त्रीसे विवाह नहीं करेंगे। इन

दोनोंका प्रेम एकदूसरेके अनुरूप है। वैसा

| उच्चकोटिका प्रेम न तो किसीका हुआ है,

न इस समय है और न आगे होगा। गिरिश्रेष्ठ!

| इन्हें देवताओंके कार्य करने हैं। उनके जो-

| जो काम नष्टप्राय हो गये हैं, उन सबका

| इनके द्वारा पुनः उज्जीवन या उद्धार होगा।

| अद्रिराज! आपकी कन्याको पाकर ही

 

भगवान् हर अर्द्धनारीश्वर होंगे। इन दोनोंका

पुनः हर्षपूर्वक मिलन होगा। आपकी यह

पुत्री अपनी तपस्याके प्रभावसे सर्वेश्वर

महेश्वरको संतुष्ट करके उनके शरीरके

आधे भागको अपने अधिकारमें कर लेगी,

उनका अर्धाग बन जायगी। गिरिश्रेष्ठ!

तुम्हें अपनी यह कन्या भगवान् शंकरके

सिवा दूसरे किसीको नहीं देनी चाहिये।

यह देवताओंका गुप्त रहस्य है, इसे कभी

प्रकाशित नहीं करना चाहिये।

हिमालयने कहा –

ज्ञानी मुने नारद! मैं

आपको एक बात बता रहा है, उसे प्रेमपूर्वक

सुनिये और आनन्दका अनुभव कीजिये।

सुना जाता है, महादेवजी सब प्रकारको

आसक्तियोंका त्याग करके अपने मनको

संयममें रखते हुए नित्य तपस्या करते हैं।

देवताओंकी भी दृष्टिमें नहीं आते। देवर्षे!

ध्यानमार्गमें स्थित हुए वे भगवान् शम्भु

परब्रह्ममें लगाये हुए अपने मनको कैसे

हटायेंगे ? ध्यान छोड़कर विवाह करनेको

कैसे उद्यत होंगे? इस विषयमें मुझे महान्

संदेह है। दीपककी लौके समान प्रकाशमान,

अविनाशी, प्रकृतिसे परे, निर्विकार, निर्गुण,

सगुण, निर्विशेष और निरीह जो परब्रह्म है,

वही उनका अपना सदाशिव नामक स्वरूप

हैं। अतः वे उसीका सर्वत्र साक्षात्कार

करते हैं, किसी बाह्य-अनात्मवस्तुपर दृष्टि

नहीं डालते। मुने! यहाँ आये हुए किंनरोंके

मुखसे उनके विषयमें नित्य ऐसी ही बात

सुनी जाती है। क्या वह बात मिथ्या ही है।

विशेषतः यह बात भी सुननेमें आती है कि

भगवान् हरने पूर्वकालमें सतीके समक्ष

एक प्रतिज्ञा की थी। उन्होंने कहा था-

‘दक्षकुमारी प्यारी सती ! मैं तुम्हारे सिवा

 

दूसरी किसी स्त्रीका अपनी पत्नी बनानेके

लिये न वरण करूँगा न ग्रहण। यह मैं

तुमसे सत्य कहता हूँ।’ इस प्रकार सतीके

साथ उन्होंने पहले ही प्रतिज्ञा कर ली है।

अब सतीके मर जानेपर वे दूसरी किसी

स्त्रीको कैसे ग्रहण करेंगे?

| यह सुनकर तुम (नारद)-ने कहा-

महामते ! गिरिराज! इस विषयमें तुम्हें चिन्ता

नहीं करनी चाहिये। तुम्हारी यह

पुत्री काली ही पूर्वकालमें दक्षकन्या सती

हुई थी। उस समय इसीका सदा

सर्वमंगलदायी सती नाम था। वे सती

दक्षकन्या होकर रुद्रकी प्यारी पनी हुई

थीं। उन्होंने पिताके यज्ञमें अनादर पाकर

तथा भगवान् शंकरका भी अपमान हुआ

देख क्रोधपूर्वक अपने शरीरको त्याग दिया

| था। वे ही सती फिर तुम्हारे घरमें उत्पन्न हुई

| हैं। तुम्हारी पुत्री साक्षात् जगदम्बा शिवा है।

यह पार्वती भगवान् हरकी पली होगी,

इसमें संशय नहीं है।

नारद! ये सब बातें तुमने हिमवान्को

विस्तारपूर्वक बतायीं। पार्वतीका वह पूर्वरूप

और चरित्र प्रीतिको बढ़ानेवाला है। कालीके

उस सम्पूर्ण पूर्ववृत्तान्तको तुम्हारे मुखसे

सुनकर हिमवान् अपनी पत्नी और पुत्रके

साथ तत्काल संदेहरहित हो गये। इसी तरह

तुम्हारे मुखसे अपनी उस पूर्वकथाको सुनकर

कालीने लज्जाके मारे मस्तक झुका लिया

और उसके मुखपर मन्द मुसकानकी प्रभा

फैल गयी। गिरिराज हिमालय पार्वतीके

उस चरित्रको सुनकर उसके माथेपर हाथ

फेरने लगे और मस्तक मुँधकर उसे अपने

आसनके पास ही बिठा लिया।

नारद! इसके पश्चात् तुम उसी क्षण

प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गलोकको चले गये और

गिरिराज हिमवान् भी मन-ही-मन

आनन्दसे युक्त हो अपने सर्वसम्पत्तिशाली

मनोहर भवनमें प्रविष्ट हो गये। (अध्याय ७-८)

अध्याय 9 –

मेना और हिमालयकी बातचीत, पार्वती तथा हिमवान्के स्वपन तथा

भगवान् शिवसे ‘मंगल’ ग्रहकी उत्पत्तिका प्रसंग

ब्रह्माजी कहते हैं –

नारद! जब तुम

स्वर्गलोकको चले गये, तबसे कुछ काल

और व्यतीत हो जानेपर एक दिन मेनाने

हिमवान्के निकट जाकर उन्हें प्रणाम किया।

फिर खड़ी हो वे गिरिकामिनी मेना अपने

पतिसे विनयपूर्वक बोलीं।

मेनाने कहा-प्राणनाथ! उस दिन

नारद मुनिने जो बात कही थी, उसको

स्त्री-स्वभावके कारण मैंने अच्छी तरह

नहीं समझा; मेरी तो यह प्रार्थना है कि

आप कन्याका विवाह किसी सुन्दर वरके

साथ कर दीजिये। वह विवाह सर्वथा

अपूर्व सुख देनेवाला होगा गिरिजाका वर

शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और कुलीन होना

चाहिये। मेरी बेटी मुझे प्राणोंसे भी अधिक

प्रिय है। वह उत्तम वर पाकर जिस प्रकार

भी प्रसन्न और सुखी हो सके, वैसा

कीजिये। आपको मेरा नमस्कार है।

ऐसा कहकर मेना अपने पतिके

चरणोंपर गिर पड़ीं। उस समय उनके

मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी।

प्राज्ञशिरोमणि हिमवान्ने उन्हें उठाया और

यथावत् समझाना आरम्भ किया।

हिमालय बोले-देवि मेनके ! मैं यथार्थ

और तत्त्वकी बात बताता हूँ सुनो ! भ्रम

छोड़ो। मुनिकी बात कभी झूठी नहीं हो

सकती। यदि बेटीपर तुम्हें स्नेह है तो उसे

सादर शिक्षा दो कि वह भक्तिपूर्वक सुस्थिर

चित्तसे भगवान् शंकरके लिये तप करे।

 

मेनके ! यदि भगवान् शिव प्रसन्न होकर

कालीका पाणिग्रहण कर लेते हैं तो सब

शुभ ही होगा। नारदजीका बताया हुआ

अमंगल या अशुभ नष्ट हो जायगा। शिवके

समीप सारे अमंगल सदा मंगलरूप हो जाते

हैं। इसलिये तुम पुत्रीको शिवकी प्राप्तिके

लिये तपस्या करनेकी शीघ्र शिक्षा दो।

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! हिमवान्की

यह बात सुनकर मेनाको बड़ी प्रसन्नता हुई।

वे तपस्यामें रुचि उत्पन्न करनेके लिये

पुत्रीको उपदेश देनेके निमित्त उसके पास

गयीं। परंतु बेटीके सुकुमार अंगपर दृष्टिपात

करके मेनाके मनमें बड़ी व्यथा हुई। उनके

दोनों नेत्रोंमें तुरंत आँसू भर आये। फिर तो

 

गिरिप्रिया मेनामें अपनी पुत्रीको उपदेश

देनेकी शक्ति नहीं रह गयी अपनी माताकी

उस चेष्टाको पार्वतीजी शीघ्र ही ताड़ गयीं।

तब वे सर्वज्ञ परमेश्वरी कालिका देवी

माताको बारंबार आश्वासन दे तुरंत बोलीं ।

पार्वतीने कहा

हो। मेरी यह बात सुनो। आज पिछली

रात्रिके समय ब्राह्ममुहूर्तमें मैंने एक स्वप्न

देखा है, उसे बताती हूँ। माताजी ! स्वप्नमें

एक दयालु एवं तपस्वी ब्राह्मणने मुझे

शिवकी प्रसन्नताके लिये उत्तम तपस्या

करनेका प्रसन्नतापूर्वक उपदेश दिया है

नारद! यह सुनकर मेनकाने शीघ्र अपने

पतिको बुलाया और पुत्रीके देखे हुए

स्वप्नको पूर्णत: कह सुनाया। मेनकाके

मुखसे पुत्रीके स्वप्नको सुनकर गिरिराज

हिमालय बड़े प्रसन्न हुए और अपनी प्रिय

पत्नीको समझाते हुए बोले।

गिरिराजने कहा-प्रिये! पिछली रातमें

मैंने भी एक स्वप्न देखा है। मैं आदरपूर्वक

उसे बताता हूँ। तुम प्रेमपूर्वक उसे सुनो।

एक बड़े उत्तम तपस्वी थे। नारदजीने वरके

जैसे लक्षण बताये थे, उन्हीं लक्षणोंसे

युक्त शरीरको उन्होंने धारण कर रखा था।

वे बड़ी प्रसन्नताके साथ मेरे नगरके निकट

तपस्या करनेके लिये आये। उन्हें देखकर

मुझे बड़ा हर्व हुआ और मैं अपनी पुत्रीको

साथ लेकर उनके पास गया। उस समय

-माँ ! तुम बड़ी समझदार

मुझे ज्ञात हुआ कि नारदजीके बताये हुए

वर भगवान् शम्भु ये ही हैं। तब मैंने उन

तपस्वीकी सेवाके लिये अपनी पुत्रीको

उपदेश देकर उनसे भी प्रार्थना की कि वे

इसकी सेवा स्वीकार करें । परंतु उस समय

उन्होंने मेरी बात नहीं मानी, इतनेमें ही वहाँ

 

सांख्य और वेदान्तके अनुसार बहुत बड़ा

विवाद छिड़ गया। तदनन्तर उनकी आज्ञासे

मेरी बेटी वहीं रह गयी और अपने हृदयमें

उन्हींकी कामना रखकर भक्तिपूर्वक उनकी

सेवा करने लगी। सुमुखि! यही मेरा देखा

हुआ स्वप्न है, जिसे मैंने तुम्हें बता दिया।

अत: प्रिये मेने! कुछ कालतक इस

स्वप्नके फलकी परीक्षा या प्रतीक्षा करनी

चाहिये, इस समय यही उचित जान पड़ता

है। तुम निश्चित सभझो, यही मेरा विचार है।

ब्रह्माजी कहते हैं-मुनीश्वर नारद!

ऐसा कहकर गिरिराज हिमवान् और मेनका

शुद्ध हृदयसे उस स्वप्नके फलकी परीक्षा

एवं प्रतीक्षा करने लगे।

देवर्षे! शिवभक्तशिरोमणे ! भगवान्

शंकरका यश परम पावन, मंगलकारी,

भक्तिवर्धक और उत्तम है। तुम इसे आदरपूर्वक

सुनो। दक्ष-यज्ञसे अपने निवासस्थान कैलास

पर्वतपर आकर भगवान् शर्भु प्रियाविरहसे

कातर हो गये और प्राणोंसे भी अधिक

प्यारी सतीदेवीका हृदयसे चिन्तन करने

लगे। अपने पार्षदोंको बुलाकर सतीके

लिये शोक करते हुए उनके प्रेमवर्द्धक

गुणोंका अत्यन्त प्रीतिपूर्वक वर्णन करने

लगे। यह सब उन्होंने सांसारिक गतिको

दिखानेके लिये किया। फिर, गृहस्थ-

आश्रमकी सुन्दर स्थिति तथा नीति-रीतिका

परित्याग करके वे दिगम्बर हो गये और

सब लोकोंमें उन्मत्तकी भाँति भ्रमण

करने लगे। लीलाकुशल होनेके कारण

विरहीकी अवस्थाका प्रदर्शन करने लगे।

सतीके विरहसे दुःखित हो कहीं भी उनका

दर्शन न पाकर भक्तकल्याणकारी भगवान्

शंकर पुन: कैलासगिरिपर लौट आये और

 

मनको यल्नपूर्वक एकाग्र करके उन्होंने समाधि

लगा ली, जो समस्त दुःखोंका नाश करनेवाली

है। समाधिमें वे अविनाशी स्वरूपका दर्शन

करने लगे। इस तरह तीनों गुणोंसे रहित हो

वे भगवान् शिव चिरकालतक सुस्थिरभावसे

समाधि लगाये बैठे रहे। वे प्रभु स्वयं ही

मायाके अधिपति निर्विकार

 

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