रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 6 से 8 | rudra sanhita shivpuran in hindi.

नमस्कार दोस्तो आज हम आपको रुद्र संहिता के बारेमे जानकारी देंगे |

आज हम आपको अध्याय 6 से लेकर 8 तक बताएंगे | बाकी अध्याय भी हमने वेबसाइट पर डाले है | आप ओ भी पढ़ लेना |

नारद जी का शिव तीर्थों में भ्रमण –

शिवगणो को शापौद्दार की बात बताना तथा ब्रह्मलोक में जाकर ब्रह्मा जी से शिव तत्व के विषय में प्रश्न करना

सूत जी कहते हैं महर्षियों! भगवान श्री हरि के अंतर्ध्यान हो जाने पर श्रेष्ठ नारद शिवलिंग का भक्ति पूर्व दर्शन करते हुए पृथ्वी पर ही विचरने लगे। भूलोक पर घूम फिर कर उन्होंने भोग और मोक्ष देने वाले बहुत से शिवलिंग का प्रेम पूर्वक दर्शन किया। दिव्य दर्शन, आरती, भूतल के तीर्थों में भी विचर रहे हैं। और इस समय उनका चित् शुद्ध है, यह जानकर वे दोनों शिव गण उनके पास आए। वे उनके दिए हुए शाप से उद्दार की इच्छा रख कर वहां गए थे। उन्होंने आदर पूर्वक मुनि के दोनों पैर पकड़ लिए और मस्तक झुकाकर भली-भांति प्रणाम करके शिव गण बोले- ब्राह्मण! हम दोनों शिव के गण है हमने ही आपका अपराध किया है। राजकुमारी श्रीमती के स्वयंवर में आप का चित् माया से मोहित हो रहा था। उस समय परमेश्वर की प्रेरणा से आपने हम दोनों को शाप दे दिया। वहां कुसमय जानकर हम ने चुप रह जाना ही अपनी जीवन रक्षा का उपाय समझा। इसमें किसी का दोष नहीं है हमें अपने कर्म का ही फल प्राप्त हुआ है। प्रभु अब आप प्रसन्न होइए और हम दोनों पर अनुग्रह कीजिए।

Rudra sanhita
Rudra sanhita

नारद जी ने कहा – 

आप दोनों महादेव जी के गण हैं और सब पुरुषों के लिए परम सम्माननीय हैं। अतः मेरे मोहरहित एवं सुखदायक यथार्थ वचन को सुनिए। पहले निश्चय ही मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी, बिगड़ गई थी। और मैं सर्वथा मोह के वशीभूत हो गया था इसलिए आप दोनों को मैंने शात दे दिया। शिव गुणों! मैंने जो कुछ कहा है वैसा ही होगा तथा भी मेरी बात सुनिए। मैं आपके लिए अब उद्धार की बात कर रहा हूं। आप लोग आज मेरे अपराध को क्षमा कर दें। मुनिवर विश्रवा के वीर्य से जन्म ग्रहण करके आप संपूर्ण दिशाओं में प्रसिद्ध कुंभकर्ण, रावण राक्षस राज का पद प्राप्त करेंगे और बलवान वैभव से युक्त तथा परम प्रतापी होंगे। समस्त ब्रह्मांड के राजा होकर, शिव भक्त एवं जितेंद्रीय होंगे। और शिव के ही दूसरे स्वरूप श्री विष्णु के हाथों से मर कर फिर अपने पद पर प्रतिष्ठित हो जाएंगे।

 

सूत जी कहते हैं-

महर्षिओं महात्मा नारद मुनि की यह बात सुनकर दोनों शिव गण सानंद अपने स्थान को लौट गए। श्री नारदजी भी अत्यंत आनंदित हो अनन्य भाव से भगवान शिव का ध्यान तथा शिव तत्व का दर्शन करते हुए बारंबार भूमंडल में विचरने लगे। अंत में भी सब के ऊपर विराजमान शिवप्रिया काशीपुरी में गए जो शिव स्वरूपिणी एवं शिव को सुख देने वाली है। काशी पुरी का दर्शन करके कृतार्थ हो गए। उन्होंने भगवान काशी नाथ का दर्शन किया और प्रेम एवं परमानंद से युक्त हो उनकी पूजा की। काशी का सानंद सेवन करके मुनि श्रेष्ठ कृतार्थता का अनुभव करने लगे और प्रेम से विह्नल हो उसका नमन, वर्णन, तथा स्मरण करते हुए ब्रह्मलोक को गए। उनकी बुद्धि शुद्ध हो गई थी। वहां पहुंचकर शिव तत्व का विशेष रूप से ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से नारद जी ने ब्रह्मा जी को भक्ति पूर्वक नमस्कार किया और नाना प्रकार के स्त्रोतों द्वारा उनकी स्तुति करके उनसे शिव तत्व के विषय में पूछा। उस समय नारद जी का ह्रदय भगवान शंकर के प्रति भक्ति भावना से परिपूर्ण था।

 

नारद जी कहते है – 

परम ब्रह्म! परमात्मा के स्वरूप को जाने वाले पितामह, जगत प्रभु, आपकी कृपा प्रसाद से मैंने भगवान विष्णु के उत्तम महात्म का पूर्णतया ज्ञान प्राप्त किया है। भक्ति मार्ग, ज्ञान मार्ग अत्यंत दुष्कर तपो मार्ग, दान मार्ग तथा तीर्थ मार्ग का भी वर्णन सुना है परंतु शिव तत्व का ज्ञान मुझे अभी तक नहीं हुआ है। मैं भगवान शंकर की पूजा विधि को भी नहीं जानता हूँ। प्रभु आप क्रम से इन विषयों को तथा भगवान शिव के विविध चरित्रों को तथा उनके स्वरूप तत्व प्राकट्य, विवाह, ग्रहस्थ धर्म सब मुझे बताइए निष्पाप पितामह, यह सब बातें तथा और भी जो आवश्यक बातें हो उन सब का आपको वर्णन करना चाहिए। प्रजा नाथ शिव और शिवा के आविर्भाव, विवाह का प्रसंग विशेष रूप से कहिए तथा कार्तिकेय के जन्म की कथा भी मुझे सुनाइए। प्रभु पहले बहुत लोगों से मैंने यह बातें सुनी है, किंतु तृप्त नहीं हो सका हूं। इसलिए आप की शरण में आया हूं। आप मुझ पर कृपा कीजिये |

 

अध्याय छठा – 

 

ब्रह्मा जी ने कहा –

देव शिरोमणि! तुम सदा समस्त जगत के उपकार में ही लगे रहते हो। तुमने लोगों के हित की कामना से यह बहुत उत्तम बात पूछी है। जिसके सुनने से संपूर्ण लोगों के समस्त पापों का क्षय हो जाता है। उस अनामय शिव तत्व का मैं तुमसे वर्णन करता हूं। शिव तत्व का स्वरूप बड़ा ही उत्कृष्ट और अद्भुत है। जिस समय समस्त चराचर जगत नष्ट हो गया था। सर्वत्र केवल अंधकार ही अंधकार था। न सूर्य दिखाई देते थे ना चंद्रमा। अन्य ग्रहों और नक्षत्रों का भी पता नहीं था। ना दिन होता था ना रात। अग्नि, पृथ्वी, वायु, और जल की भी सत्ता नहीं थी।

 

प्रधान तत्व, अव्याकृत प्रकृति, से रहित सुना आकाश मात्र शेष था। दूसरे किसी तेज की उपलब्धि नहीं होती थी। अदृश्य आदि का भी अस्तित्व नहीं था। शब्द और स्पर्श भी साथ छोड़ चुके थे। गंध और रूप की भी अभिव्यक्ति नहीं होती थी। रस का भी अभाव हो गया था। दिशाओं का भी भान नहीं होता था। इस प्रकार सब और निरंतर सूचीभेद्ध घोर अंधकार फैला हुआ था। उस समय तत्सदब्रह्मा इस श्रुति में जो सत सुना जाता है एकमात्र वही शेष था। जब यह, वह, ऐसा, जो इत्यादि रुप से निर्दिष्ट होने वाला यह जगत नहीं था। उस समय एकमात्र वह सत्य ही शेष था जिसे योगगीजन अपने ह्रदयाकाश के भीतर निरंतर देखते हैं। वह सततत्व मन का विषय नहीं है। वाणी की भी वहां तक कभी पहुंच नहीं होती। वह नाम तथा रूप रंग से भी शून्य है। वह ना स्थूल है ना कृश। न लघु है न गुरु। उसमें न कभी वृद्धि होती है

न ह्रास। श्रुति भी उसके विषय में चकितभाव से ‘है’ इतना ही कहती है। अर्थात उसकी सता मात्र का ही निरूपण कर पाती है। उसका कोई विशेष विवरण देने में असमर्थ हो जाती है। वह सत्य, ज्ञान स्वरूप, अनंत, परमानंदमय, परम ज्योति स्वरूप, अपरमेय, आधाररहित, निर्विकार, निराकार, निर्गुण, योगीगम्य, सर्वव्यापी, सब का एकमात्र कारण, निर्विकल्प, नीरआरंभ, मायाशून्य, उपद्रव रहित, अद्वितीय, अनादि अनंत, संकोच विकास से शून्य तथा चिन्मय है।

जिस परब्रह्मा के विषय में ज्ञान और अज्ञान से पूर्ण उक्तियों द्वारा इस प्रकार (ऊपर बताए अनुसार) विकल्प किए जाते हैं; उसने कुछ काल के बाद (सृष्टि का समय आने पर) द्वितीय की इच्छा प्रकट की। उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपने लीला शक्ति से अपने लिए मूर्ति (आकार) की कल्पना की। वह मूर्ति संपूर्ण ऐश्वर्या गुणों से संपन्न सर्वज्ञानमयी, शुभ स्वरूपा, सर्वव्यापिनी, सर्वरूपा, सर्वदर्शनी, सर्वकारिणी, सब की एकमात्र वंदनीया,सर्वध्या, सब कुछ देने वाली, और संपूर्ण संस्कृतियों का केंद्र थी। उस शुद्धरूपिणी ईश्वर मूर्ति की कल्पना करके वह अद्वितीय, अनादि, अनंत, सर्वप्रकाशक, चिन्मय, सर्वव्यापी और अविनाशी परब्रह्म अंतरहित हो गया। जो मूर्ति रहित परब्रह्म है उसी को मूर्ति (चिन्मयाकार) भगवान सदाशिव हैं। अर्वाचीन और प्राचीन विद्वान उन्ही को ईश्वर कहते हैं। उस समय एकाकी रहकर स्वेच्छा अनुसार विहार करने वाले उन सदाशिव ने अपने विग्रह में स्वयं ही एक स्वरूपभूता शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्री अंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। उस परा शक्ति को प्रधान, प्रकृति, गुणवती, माया, बुद्धि तत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है। यह शक्ति अंबिका कही गई है। उसी को प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिदेवजननी नित्या और मूल कारण भी कहते हैं। सदाशिव द्वारा प्रकट की गई उस शक्ति के आठ भुजाएं हैं। उस शुभ लक्षणा देवी के मुख की शोभा विचित्र है। वह अकेली ही अपने मुख्यमंडल में सदा एक सहस्त्र चंद्रमा की कांति धारण करती है। नाना प्रकार के आभूषण उसके श्री अंगों की शोभा बढ़ाते हैं। वह देवी नाना प्रकार की गतिओं से संपन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र धारण करती है। उसकी खुले हुए नेत्र खिले हुए कमल के समान जान पड़ते हैं। वह अचिन्त्य तेज से जगमगाती है। वह सब की योनि है और सदा उद्यमशील रहती है। एकाकिनी होने पर भी वह माया संयोगवशात अनेक हो जाती है।

वे जो सदाशिव हैं उन्हें परम पुरुष, ईश्वर, शिव, शंभू और महेश्वर कहते हैं। वे अपने मस्तक पर आकाशगंगा को धारण करते हैं। उनके भाल देश में चंद्रमा शोभा पाते हैं। उनके पांच मुख हैं और प्रत्येक मुख में तीन तीन तीन नेत्र हैं। उनका चित सदा प्रसन्न रहता है। वे दस भुजाओं से युक्त और त्रिशूलधारी है। उनके श्रीअंगों की प्रभा कपूर के समान श्वेत गोर है। वे अपने सारे अंगों में भस्म रमाए रहते हैं। उन काल रूपी ब्रह्मा ने एक ही समय शक्ति के साथ शिवलोक नामक क्षेत्र का निर्माण किया था। उस उत्तम क्षेत्र को ही काशी कहते हैं। वह परम निर्माण या मोक्ष का स्थान है, जो सबके ऊपर विराजमान है। वे प्रिया प्रियतम रूप शक्ति और शिव, जो परम्आनंद स्वरूप हैं। उन मनोरम क्षेत्र में नित्य निवास करते हैं। काशीपुरी परमानंदरुपिणी है। मुन्ने ! शिव और शिवा ने प्रलय काल में भी कभी उस क्षेत्र को अपने सानिध्य से मुक्त नहीं किया है। इसलिए विद्वान पुरुष उसे अविमुक्त क्षेत्र के नाम से भी जानते हैं। वह क्षेत्र आनंद का हेतु है। इसलिए पिनाकधारी शिव ने पहले उसका नाम आनंदवन रखा था। उसके बाद वह अविमुक्त के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

 

देवर्षि! एक समय उस आनंद वन में भ्रमण करते हुए शिवा और शिव के मन में यह इच्छा हुई कि किसी दूसरे पुरुष की सृष्टि करनी चाहिए। जिस पर यह सृष्टि संचालन का महान भार रखकर हम दोनों केवल काशी में रहकर इच्छा अनुसार विचरे और निर्माण धारण करें। वहीं पुरुष हमारी अनुग्रह से सदा सब की सृष्टि करें, पालन करें और वही अंत में सब का संहार भी करें। यह चित एक समुद्र के समान है। इसमें चिंता की उताल तरंगे उठ उठ कर इसे चंचल बनाए रहती हैं। इसमें सत्व गुण रूपी रत्न, तमोगुण रूपी ग्राह और रजोगुण रुपी मूंगे भरे हुए हैं। इस विशाल चित समुद्र को संकुचित करके हम दोनों उस पुरुष के प्रसाद से आनंद कानन (काशी) में सुख पूर्वक निवास करें। यह आनंदवन वह स्थान है जहां हमारी मनोवृति सब ओर से सीमिट कर इसी में लगी हुई है तथा जिसके बाहर का जगत चिंता से आतुर प्रतीत होता है। ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित सर्वव्यापी परमेश्वर शिव ने अपने वाम भाग के दशवे अंग पर अमृत मल दिया। फिर तो वहां से एक पुरुष प्रकट हुआ जो तीनों लोकों में सबसे अधिक सुंदर था। वह शांत था। उसमें सत्व गुण की अधिकता थी। तथा वह गंभीरता का अथाह सागर था। मुन्ने! क्षमा नामक गुणों से युक्त उस पुरुष के लिए ढूंढने पर भी कहीं कोई उपमा नहीं मिलती थी। उसकी कांति इंद्रनील मणि के समान श्याम थी। उसके अंग अंग से दिव्य शोभा छिटक रही थी और नेत्र प्रफुल कमल के समान शोभा पा रहे थे। श्री अंगों पर स्वर्ण की कांति वाले दो सुंदर रेशमी पीतांबर शोभा दे रहे थे। किसी से भी पराजित ना होने वाला वह वीर पुरुष अपने प्रचंड भुजाओं से सुशोभित हो रहा था तद अंतर उस पुरुष ने परमेश्वर शिव को प्रणाम करके कहा- स्वामी मेरे नाम निश्चित कीजिए और काम बताइए। उस पुरुष की यह बात सुनकर महेश्वर भगवान शंकर हंसते हुए मेघ के समान गंभीर वाणी में उससे बोले।

 

शिव ने कहा –

व्यापक होने के कारण तुम्हारा विष्णु नाम विख्यात होगा। इसके सिवा और भी बहुत से नाम होंगे जो भक्तों को सुख देने वाले होंगे तुम सो स्थिर उत्तम तप करो क्योंकि वही समस्त कार्यों का साधन है।

 

ऐसा कहकर भगवान शिव ने श्वास मार्ग से श्री विष्णु को वेदों का ज्ञान प्रदान किया। तदनन्तर अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले श्री हरि भगवान शिव को प्रणाम करके बड़ी भारी तपस्या करने लगे और शक्ति सहित परमेश्वर शिव भी पार्षदगणों के साथ वहां से अदृश्य हो गए। भगवान विष्णु ने सुदीर्घ काल तक बड़ी कठोर तपस्या की। तपस्या के परिश्रम से युक्त भगवान विष्णु के अंगों से नाना प्रकार की जल धाराएं निकलने लगी। यह सब भगवान शिव की माया से ही संभव हुआ। महामुने! उस जल से सारा सुना आकाश व्याप्त हो गया। वह ब्रह्म रूप जल अपने स्पर्श मात्र से सब पापों का नाश करने वाला सिद्ध हुआ। उस समय थके हुए परम पुरुष विष्णु ने स्वयं उस जल में शयन किया। वे दीर्घ काल तक बड़ी प्रसन्नता के साथ उसमें रहे। नार अर्थात जल में शयन करने के कारण ही उनका नारायण यह श्रुति सम्मत नाम प्रसिद्ध हुआ। उस समय उन परम पुरुष नारायण के सिवा दूसरी कोई प्राकृतिक वस्तु नहीं थी। उसके बाद ही उन महात्मा नारायण देव से यथासंभव सभी तत्व प्रकट हुए। महामते! विद्वन! मैं उन तत्वों की उत्पत्ति का प्रकार बता रहा हूं। सुनो, प्रकृति से महतत्व प्रकट हुवा और महतत्व से तीनों गुण। इन गुणों के भेद से ही त्रिविध अहंकार की उत्पत्ति हुई। अहंकार से 5 तन्मात्राएं हुई और उन तन्मात्राओं से पांच भूत प्रकट हुए। उसी समय ज्ञानेंद्रियों और कर्मेन्द्रियों का भी प्रादुर्भाव हुआ। मुनि श्रेष्ठ इस प्रकार मैंने तुम्हें तत्वों की संख्या बताई है। इनमें से पुरुष को छोड़कर शेष सारे तत्व प्रकृति से प्रकट हुए, इसलिए सब के सब जड़ हैं। तत्वों की संख्या 24 है।उस समय एकाकार हुए 24 तत्वों को ग्रहण करके नारायण भगवान शिव की इच्छा से ब्रह्मरूप जल में सो गये।

 

अध्याय सातवा – 

 

भगवान विष्णु की नाभि से कमल का प्रादुर्भाव, शिव इच्छा से ब्रह्मा जी का उस से प्रकट होना, कमल नाल के उद्गम का पता लगाने में असमर्थ ब्रह्मा जी का तप करना, श्रीहरि का उन्हें दर्शन देना, विवाद ग्रस्त ब्रह्मा विष्णु के बीच में अग्नि स्तंभ का प्रकट होना तथा उसके ओर छोर का पता न पाकर उन दोनों का उसे प्रणाम करना

 

ब्रह्मा जी कहते हैं –

देवर्षि! जब नारायण देव जल में शयन करने लगे, उस समय उनकी नाभि से भगवान शंकर की इच्छावश एक उत्तम कमल प्रकट हुआ, जो बहुत बड़ा था। उसमें असंख्य नाल दंड थे। उसकी कांति कनेर के फूल के समान पीले रंग की थी तथा उसकी लंबाई और ऊंचाई भी अनंत योजन थी। वह कमल करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। सुंदर होने के साथ ही संपूर्ण तत्वों से युक्त था और अत्यंत अद्भुत, परम रमणीय, दर्शन के योग्य तथा सबसे उत्तम था। तत्पश्चात कल्याणकारी परमेश्वर सांब सदाशिव ने पूर्ववत प्रयत्न करके मुझे अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया। महेश्वर ने मुझे तुरंत ही अपनी माया से मोहित करके नारायण देव के नाभि कमल में डाल दिया और लीला पूर्वक मुझे वहां से प्रकट किया। इस प्रकार उस कमल के पुत्र के रूप में मुझ हिरण्य गर्भ जन्म हुआ। मेरे चार मुख और शरीर की कांति लाल हुई। मेरे मस्तक त्रिपुंड की रेखा से अंकित थे। तात! भगवान शिव की माया से मोहित होने के कारण मेरी ज्ञान शक्ति इतनी दुर्बल हो रही थी कि मैंने उस कमल के सिवा दूसरे किसी को अपने शरीर का जनक या पिता नहीं जाना। मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, मेरा कार्य क्या है, मैं किसका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ हूं और किसने इस समय मेरा निर्माण किया है- इस प्रकार संशय में पड़े हुए मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ- मैं किस लिए मोह में पड़ा हुआ हूं? जिसने मुझे उत्पन्न किया है उसका पता लगाना तो बहुत सरल है। कमल पुष्प का जो पत्र युक्त नाल है उसका उदगम स्थल इस जल के भीतर नीचे की ओर है जिसने मुझे उत्पन्न किया है वह भी वही होगा इसमें संशय नहीं है।

 

ऐसा निश्चय करके मैंने अपने को कमल से नीचे उतारा। मुन्ने! मैं उस कमल की एक-एक नाल में गया और सैकड़ों वर्षो तक वहां भ्रमण करता रहा किंतु कहीं भी उस कमल के उद्गम का उत्तम स्थान मुझे नहीं मिला। तब पुनः संशय में पड़कर मैं उस कमल पर चढ़ने लगा। इस तरह बहुत ऊपर जाने पर भी मैं उस कमल के कोष को नहीं पा सका। उस दशा में मैं और भी मोहित हो उठा। मुन्ने! उस समय भगवान शिव की इच्छा से परम मंगलकारी उत्तम आकाशवाणी प्रकट हुई जो मेरे मोह का विध्वंस करने वाली थी। उस वाणी ने कहा तप (तपस्या करो)। उस आकाशवाणी को सुनकर मैंने अपने जन्मदाता पिता का दर्शन करने के लिए उस समय पूर्ण प्रयत्न से पूरे 12 वर्षों तक घोर तपस्या की। तब मुझ पर अनुग्रह करने के लिए ही चार भुजाओं और सुंदर नेत्रों से सुशोभित भगवान विष्णु वहां सहसा प्रकट हो गए। उन परम पुरुष ने अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे। उनके सारे अंग सजल जलधर के समान श्याम कांति से सुशोभित थे। उन परम प्रभु ने सुंदर पितांबर पहन रखा था। उनके मस्तक आदि में मुकुट आदि महा मूल्यवान आभूषण शोभा पा रहे थे। उनका मुखारविंद प्रसन्नता से खिला हुआ था। मैं उनकी छवि पर मोहित हो रहा था। वे मुझे करोड़ों कामदेव के समान मनोहर दिखाई दिए। उनका यह अत्यंत सुंदर रूप देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सांवली और सुनहरी आभा से उद्भासित हो रहे थे। उस समय उन सद्सत्वरूप, सर्वातमा, चारभुजा धारण करने वाले, महाबाहु नारायण देव को वहां उस रूप में अपने साथ देकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ।

 

तदनन्तर उस नारायण देव के साथ मेरी बातचीत आरंभ हुई। भगवान शिव की लीला से वहां हम दोनों में कुछ विवाद छिड़ गया। इसी समय हम लोगों के बीच में एक महान अग्नि स्तंभ (ज्योतिर्लिंग) प्रकट हुआ। मैंने और श्री विष्णु ने कर्म से ऊपर और नीचे जाकर उसके आद्यंत का पता लगाने के लिए बड़ा प्रयत्न किया परंतु हमें कहीं भी उसका ओर छोर नहीं मिला। मैं थक कर ऊपर से नीचे लौट आया और भगवान विष्णु भी उसी तरह नीचे से ऊपर आकर मुझसे मिले। हम दोनों शिव की माया से मोहित थे। श्री हरि ने मेरे साथ आगे पीछे और अगल-बगल से परमेश्वर शिव को प्रणाम किया। फिर वे सोचने लगी यह क्या वस्तु है? इसके स्वरूप का निर्देश नहीं किया जा सकता; क्योंकि न तो इसका कोई नाम है और ना कर्म ही है। लिंग रहित तत्व ही यहां लिंग भाव को प्राप्त हो गया है। ध्यानमार्ग में भी इसके स्वरूप का कुछ पता नहीं चलता। इसके बाद मैं और श्रीहरि दोनों ने अपने चित को स्वस्थ करके उस अग्नि स्तंभ को प्रणाम करना आरंभ किया। हम दोनों बोले महाप्रभु हम आपके स्वरूप को नहीं जानते। आप जो कोई भी क्यों ना हो, आप को हमारा नमस्कार है। महेशान आप शीघ्र ही हमें अपने यथार्थ रूप का दर्शन कराइए।

मुन्नी श्रेष्ठ! इस प्रकार अहंकार से आशिष्ट हुए हम दोनों ही वहां नमस्कार करने लगे। ऐसा करते हुए हमारे 100 वर्ष बीत गए।