रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 16 और 17 | rudra samhita adhyay 16 to 17 in hindi.

 

नमस्कार दोस्तों आज हम आपको शिवपुराण का रुद्र संहिता अध्याय 16 और 17 की जानकारी देने वाले है | बाकी के अध्याय की जानकारी भी हमने वेबसाइट पर डाली है |

अध्याय 16 – 

स्वयंभू मनु और शतरूपा की, ऋषियों की तथा दक्ष की संतानों का वर्णन तथा सती और शिव की महता का प्रतिपादन

 

ब्रह्मा जी कहते हैं –

हे नारद ! तदन्तर मैंने शब्दतन्मात्रा आदि सूक्ष्म-भूतों को स्वयं ही पंचीकृत करके अर्थात उन पांचों का परस्पर सम्मिश्रण करके उनसे स्थूल आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी की सृष्टि की। पर्वतों, समुद्रों और वृक्षों आदि को उत्पन्न किया। कला से लेकर युगपर्यंत जो काल-विभाग है, उनकी रचना की।

उत्पत्ति और विनाशवाले और भी बहुत से पदार्थों का निर्माण किया, परंतु इससे मुझे संतोष नहीं हुआ। तब सांबशिव का ध्यान करके मैंने साधन परायण पुरुषों की सृष्टि की। अपने दोनों नेत्रों से मरीचि को, ह्रदय से भृगु को, सिर से अंगिरा को, व्यान वायु से मुनि श्रेष्ठ पुलह को, उदान वायु से पुलस्त्य को, समान वायु से वशिष्ठ को, अपान से कृतु को, दोनों कानों से अत्री को, प्राणों से दक्ष को, गोद से तुमको, छाया से कर्दम मुनि को तथा संकल्प से समस्त साधनों के साधन धर्म को उत्पन्न किया।

 

मुनी श्रेष्ठ इस तरह इंसानों की सृष्टि करके महादेव जी की कृपा से मैंने अपने आप को कृतार्थ माना। तात! तत्पश्चात संकल्प से उत्पन्न हुए धर्म मेरी आज्ञा से मानव रूप धारण करके साधकों की प्रेरणा से साधन में लग गए। इसके बाद मैंने अपने विभिन्न अंगों से देवता, असुर आदि के रूप में असंख्य पुत्रों की सृष्टि करके उन्हें भिन्न-भिन्न शरीर प्रदान किए। तदनन्तर अंतर्यामी भगवान शंकर की प्रेरणा से अपने शरीर को दो भागों में विभक्त करके में दो रूप वाला हो गया। नारद! आधे शरीर से मैं स्त्री हो गया और आधे से पुरूष। उस पुरुष ने उस स्त्री के गर्भ से सर्वे समर्थ उत्तम जोड़े को उत्पन्न किया। उस जोड़े में जो पुरुष था वही स्वयंभू मनु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। स्वयंभू मनु उच्च कोटि के साधक हुए तथा जो स्त्री हुई वह सतरूपा कहलाई। वह योगिनी व तपस्विनी हुई। तात! मनु ने वैवाहिक विधि से अत्यंत सुंदरी शतरूपा का पानी ग्रहण किया और उससे वे मैथुनजनित सृष्टि उत्पन्न करने लगे। उन्होंने सतरूपा से प्रियवृत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र और तीन कन्याएँ उत्पन्न की। कन्याओं के नाम थे आकृति, देवहुती और प्रसूति। मनु ने आकृति का विवाह प्रजापति रुचि के साथ किया। मझली पुत्री देवहुति कदम को ब्याह दी और उतानपाद की सबसे छोटी बहन प्रसूति प्रजापति दक्ष को दे दी। उनकी संतान परंपराओं से समस्त चराचर जगत व्याप्त है।

रुचि से आकृति के गर्भ से यज्ञ और दक्षिणा नामक स्त्री पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ। यज्ञ के दक्षिणा से 12 पुत्र हुए। मुने! कर्दम द्वारा देवहूति के गर्भ से बहुत सी स्त्रियां उत्पन्न हुई। दक्ष के प्रस्तुति से 24 कन्याएं हुई उनमें से श्रद्धा आदि 13 कन्याओं का विवाह दक्ष ने धर्म के साथ कर दिया। मुनेश्वर! धर्म की उन पत्नियों के नाम सुनो श्रद्धा, लक्ष्मी, धरती, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वसु, शांति, सिद्धि और कीर्ति यह सब तेरह हैं। इनसे छोटी जो शेष 11 सुलोचना कन्याएं थी उनके नाम इस प्रकार हैं ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, सन्नति, अनुसूया, ऊर्जा, स्वाहा तथा सुविधा। भृगु, शिव, मरीचि, ऋषि अंगिरा, मुनि पुलस्त्य, पुलक मुनि श्रेष्ठ कृति, अत्री, वशिष्ठ, अग्नि और पितरों ने क्रमशः इन ख्याति आदि कन्याओं का पाणिग्रहण किया। भृगु आदि मुनि श्रेष्ठ साधक हैं। इनकी संतानों से चराचर प्राणियों सहित सारी त्रिलोकी भरी हुई है।

रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 11
रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 11

इस प्रकार अंबिका पति महादेव जी की आज्ञा से पूर्व कर्मों के अनुसार बहुत से प्राणी असंख्य द्विजों के रूप में उत्पन्न हुए।

कल्पभेद से दक्ष के साठ कन्याएँ बताई गई हैं।उनमें से 10 कन्याओं का विवाह है उन्होंने धर्म के साथ किया। 27 कन्याएं चंद्रमा को ब्याह दी और विधि पूर्वक 13 कन्याओं के हाथ दक्ष ने कश्यप के हाथ में दे दिए। नारद! उन्होंने चार कन्या श्रेष्ट रूप वाले यार्क्ष्य (अरिष्ठनेमी) को ब्याह दी तथा भृगु, अंगिरा और कृशाश्व को दो दो कन्याएं अर्पित की। उन्ही स्त्रियों से उनके पतियों द्वारा बहु संख्या के चराचर प्राणियों की उत्पत्ति हुई।दक्ष ने महात्मा कश्यप को जिन 13 कन्याओं का विधि पूर्वक दान दिया था उनकी संतानों से सारी त्रिलोकी व्याप्त है। स्थावर और जंगम कोई भी सृष्टि ऐसी नहीं है जो कश्यप की संतान से शून्य हो। देवता, ऋषि, दैत्य, वृक्ष, पक्षी, पर्वत तथा तृणलता आदि सभी कश्यप पत्नियों से पैदा हुए हैं। इस प्रकार दक्ष कन्याओं की संतानों से सारा चराचर जगत व्याप्त है। पाताल से लेकर सत्यलोक पर्यंत समस्त ब्रह्मांड निश्चय ही उनकी संतानों से सदा भरा रहता है कभी खाली नहीं होता।

 

इस तरह भगवान शंकर की आज्ञा से ब्रह्मा जी ने भली-भांति सृष्टि की। पूर्व काल में सर्वव्यापी शंभूजी ने तपस्या के लिए प्रकट किया था तथा रूद्र देव ने त्रिशूल के अग्रभाग पर रखकर जिनकी सदा रक्षा की है वही सती देवी लोक हित का कार्य संपादित करने के लिए दक्ष से प्रकट हुई। उन्होंने भक्तों के उद्धार के लिए अनेक लीलाएं की।

 

मुनी श्रेष्ठ! इस प्रकार देवी शिवा ही सती होकर भगवान शंकर से ब्याही गई किंतु पिता के यज्ञ में पति का अपमान देख उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया और फिर उसे ग्रहण नहीं किया। अपने परम पद को प्राप्त हो गई। फिर देवताओं की प्रार्थना से वही शिवा पार्वती रूप में प्रकट हुई और बड़ी तपस्या करके भगवान शिव को उन्होंने प्राप्त कर लिया। मुनेश्वर! इस जगत में उनके अनेकों नाम प्रसिद्ध है। उनके कालीका, चंडीका, भद्रा, चामुंडा, विजया, जयंती, भद्रकाली, दुर्गा, भगवती, कामाख्या, कामदा, अंबानी और सर्वमंगला आदि अनेक नाम है जो भोग और मोक्ष देने वाले हैं। यह सभी नाम उनके गुण और कर्मों के अनुसार हैं।

 

मुनी श्रेष्ठ! इस प्रकार मैंने सृष्टि कर्म का तुमसे वर्णन किया है। ब्रह्मांड का यह सारा भाग भगवान शिव की आज्ञा से मेरे द्वारा रचा गया है। भगवान शिव को परम ब्रह्म परमात्मा कहा गया है। मैं, विष्णु तथा रूद्र यह 3 देवता गुणभेद से उनके रूप बताए गए हैं। वे मनोरम शिवलोक मे शिवा के साथ स्वच्छंद विहार करते हैं। भगवान शिव स्वतंत्र परमात्मा हैं। वे निर्गुण और सगुण हैं।

 

अध्याय 17 –

 

यज्ञ दत्त कुमार को भगवान शिव की कृपा से कुबेर पद की प्राप्ति तथा उनकी भगवान शिव के साथ मैत्री

सूतजी कहते हैं-

मुनेश्वरों! ब्रह्मा जी की यह बात सुनकर नारद जी ने विनयपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और पुनः पूछा- भगवान! भक्त वत्सल भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर कब गए और महात्मा कुबेर के साथ उनकी मैत्री कब हुई? परिपूर्ण मंगल विग्रह महादेव जी ने वहां क्या किया? यह सब मुझे बताइए। इसे सुनने के लिए मेरे मन में बड़ा कुतूहल है।

ब्रह्मा जी ने कहा –

नारद! चंद्रमौली भगवान शंकर के चरित्र का वर्णन करता हूं। वे कैसे कैलाश पर्वत पर गए और कुबेर की उनके साथ किस प्रकार मैत्री हुई यह सब सुनाता हूं। कांपील नगर में यज्ञ दत्त नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण रहते थे। बड़े सदाचारी थे उनकी एक पुत्र हुआ जिसका नाम गुण निधि था। वह बड़ा ही दूराचारी व जुआरी हो गया था। पिता ने अपने पुत्र को त्याग दिया। वह घर से निकल गया।

और कई दिनों तक भूखा भटकता रहा। एक दिन वह नैवेद्य चुराने की इच्छा से एक शिव मंदिर में गया। वहां उसने अपने वस्त्र को जलाकर उजाला किया। यह मानो उसके द्वारा भगवान शिव के लिए दीपदान किया गया। तत्पश्चात वह चोरी मे पकड़ा गया और उसे प्राण दंड मिला। अपने कुकर्मों के कारण वह यमदूत द्वारा बांधा गया। भगवान शंकर के पार्षद वहां आ पहुंचे और उन्होंने उसे उनके बंधन से छुड़ा दिया। शिव पार्षदों के संग से उसका ह्रदय शुद्ध हो गया था। अतः वह उन्हीं के साथ तत्काल शिवलोक में चला गया। वहां सारे दिव्य भोगों का उपभोग किया तथा उमा शिव का सेवन करके कालांतर में वह कलिंग राज अरिंदम का पुत्र हुआ। उसका नाम था दम। वह निरंतर भगवान शिव की सेवा में लगा रहता था। बालक होने पर भी वह दूसरे बालकों के साथ शिव का भजन किया करता था। युवावस्था को प्राप्त हुआ। पिता के परलोक गमन के पश्चात राज सिंहासन पर बैठा।

राजा दम बड़ी प्रसन्नता के साथ सब और शिव धर्म का प्रचार करने लगे। भूपाल दम का दमन कर ना दूसरों के लिए सर्वथा कठिन था। ब्राह्मण! समस्त शिवालयों में दीपदान करने के अतिरिक्त भी दूसरे किसी धर्म को नहीं जानते थे। राज्य में रहने वाले सभी ग्राम अध्यक्षों को बुलाकर यह आज्ञा दे- दीपदान करना सबके लिए अनिवार्य होगा। ग्राम अध्यक्ष के गांव के पास जितने शिवालय हैं वहाँ बिना कोई विचार किए सदा दीप जलाना चाहिए। आजीवन इसी धर्म का पालन करने के कारण राजा दम ने बहुत बड़ी धर्म संपत्ति का संचय कर लिया।

 

फिर वे काल धर्म के अधीन हो गए। दीपदान की वासना से युक्त होने के कारण उन्होंने शिवालयों में बहुत से दीप जलवाए और उसके फलस्वरूप जन्मांतर में भी रत्नमय दीपों की प्रभा के आश्रय हो गए। अलकापुरी के स्वामी हुए।

भगवान शिव के लिए किया हुआ थोड़ा सा भी पूजन या आराधन समयानुसार महान फल देता है, ऐसा जानकर उत्तम सुख की इच्छा रखने वाले लोगों को शिव का भजन अवश्य करना चाहिए। वह दीक्षित का पुत्र सदा सब प्रकार की अधर्म में ही रचा बसा रहता था देवयोग से शिवालय में धनचुराने के लिए गया। वहां स्वार्थवश अपने कपडे की बती बना कर प्रकाश से शिवलिंग का अंधेरा दूर कर दिया। इस सत्कर्म के फलस्वरूप वह कलींग देश का राजा हुआ और धर्म में उसका अनुराग हो गया। प्रदीप की वासना का उदय होने से शिवालयों मे दीप जलवाए व उसने यह दिगपाल का पद पा लिया। मुनीश्वर! देखो तो उसका वह कर्म और कहां यह दिकपाल की पदवी। जिसका वह मानव धर्मा प्राणी इस समय यहां उपभोग कर रहा है। तात! यह तो संतुष्ट होने की बात बताई गई। एक चित्त होकर यह सुनो कि किस प्रकार सदा के लिए उसकी भगवान शिव के साथ मित्रता हो गई वर्णन करता हूं।

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