रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 14 और 15 | rudra sanhita adhyay 14 and 15 in hindi.

नमस्कार दोस्तों आज हम आपको रुद्र संहिता शिवपुराण का अध्याय 14 और 15 की जानकारी देने वाले है |

अध्याय 14 – 

 

विभिन्न पुष्पों और जल आदि की धाराओं से शिवजी की पूजा का महत्व

ब्रह्मा जी बोले –

नारद जो लक्ष्मी प्राप्ति की इच्छा करता हो वह कमल, बिल्वपत्र, सतपत्र और शंख पुष्प से भगवान शिव की पूजा करें। ब्राह्मन! यदि एक लाख की संख्या में पुष्पों द्वारा भगवान शिव की पूजा संपन्न हो जाए तो सारे पापों का नाश होता है और लक्ष्मी की भी प्राप्ति हो जाती है इसमें संशय नहीं है। प्राचीन पुरुषों ने 20 कमलों का एक प्रस्थ बताया है। एक सहस्त्र बिल्वपत्रों को भी एक प्रस्थ कहा गया है। एक सहस्त्र सतपत्र से आधे प्रस्थ की परिभाषा की गई है। 16 पलों का एक प्रस्थ होता है। और 10 टंकों का एक पल। इस मान से पुष्प, पत्र आदि को तोलना चाहिए। जब पूर्वोक्त मान से शिव की पूजा हो जाती है तब मनुष्य अपने अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है। यदि उनके मन में कोई कामना न हो तो वह उक्त पूजन से शिव स्वरूप हो जाता है।

 

मृत्युंजय मंत्र का जप 500000 जब पूरा हो जाता है तब भगवान शिव प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। एक लाख के जप से शरीर की शुद्धि होती है, दूसरे लाख के जप से पूर्व जन्म की बातों का आभास होता है, तीसरे लाख जप पूर्ण होने पर संपूर्ण वस्तुएं प्राप्त होती है, चार लाख का जप होने पर स्वप्न में भगवान शिव का दर्शन होता है। और 500000 का जप ज्योहीं पूरा होता है भगवान शिव उपासक के सम्मुख तत्काल उपस्थित हो जाते हैं। इसी मंत्र का 1000000 जप हो जाए तो संपूर्ण फल की सिद्धि प्राप्ति होती है।

जो मोक्ष की अभिलाषा रखता है वह एक लाख दर्भो द्वारा शिव का पूजन करें। मुनिश्रेष्ठ! सर्वत्र लाख की संख्या समझनी चाहिए। आयु की इच्छा वाला पुरुष एक लाख दुर्वा द्वारा पूजन करें। जिसे पुत्र की अभिलाषा हो वह धतूरे के 100000 फूलों से पूजा करें। लाल डंठल वाला धतूरा पूजन में शुभ दायक माना गया है। अगस्त्य के 100000 फूलों से पूजा करने वाले पुरुष को महान यश की प्राप्ति होती है, यदि तुलसी दल से शिव की पूजा करें तो उपासक को भोग और मोक्ष दोनों सुलभ होते हैं। लाल और सफेद आक, अपामार्ग और श्वेत कमल के 100000 फूलों द्वारा पूजा करने से भी उसी फल, भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। जपा (अड़हुल) के एक लाख पुष्पों की पूजा शत्रु को मृत्यु देने वाली होती है। करवीर के एक लाख फूल यदि उपयोग में लाया जाए तो रोगों का उच्चाटन करने वाले होते हैं। बंधूक (दुपहरिया) के फूलों द्वारा पूजन करने से आभूषण की प्राप्ति होती है। चमेली की पूजा करके मनुष्य वाहन उपलब्ध करता है इसमें संशय नहीं है। अलसी के फूलों से महादेव जी का पूजन करने वाला पुरुष भगवान विष्णु को प्रिय होता है। शमी पत्रों से पूजा करके मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। बेला के फूल चढ़ाने पर भगवान शिव शुभलक्षणा पत्नी प्रदान करते हैं। जूही के फूलों से पूजन करने पर अन्न की कमी नहीं होती। कनेर के फूलों से वस्त्र की प्राप्ति होती है। सेदुआरी या सेफालीका से शिव का पूजन किया जाए तो मन निर्मल होता है। एक लाख विल्वपत्र चढ़ाने पर मनुष्य अपनी सारी काम्य वस्तुएं प्राप्त कर लेता है। श्रृंगारहार- हर सिंगार के फूलों से पूजा करने पर सुख संपत्ति की वृद्धि होती है। वर्तमान में पैदा होने वाले फूल के शिव की सेवा में समर्पित किया जाए तो मोक्ष देने वाले होते हैं। राई के फूल शत्रु को मृत्यु प्रदान करने वाले होते हैं। इन फूलों को 1-1 लाख की संख्या में शिव के ऊपर चढ़ाया जाए तो भगवान अतुल फल देते हैं। चम्पा और केवडे को छोड़कर सभी फूल भगवान शिव को चढ़ाए जा सकते हैं।

विप्रवर! महादेव जी के ऊपर चावल चढ़ाने से मनुष्य की लक्ष्मी बढ़ती है। यह चावल अखंडित होने चाहिए और उत्तम भक्ति भाव से शिव के ऊपर चढ़ाना चाहिए। रूद्र मंत्र से पूजा करके भगवान शिव के ऊपर बहुत सुंदर वस्त्र चढ़ाएं और उसी पर चावल रखकर समर्पित करें तो उत्तम है। भगवान शिव के ऊपर गंध, पुष्प आदि के साथ एक श्रीफल चढ़ाकर धूप आदि निवेदन करें तो पूजा का पूरा पूरा फल प्राप्त होता है। वहाँ शिव के समीप 12 ब्राह्मणों को भोजन कराएं। इससे मंत्र पूर्वक सांगोपांग पूजा संपन्न होती है। यह जो सौ मंत्र जपने की विधि हो वह 108 मंत्र जपने का विधान किया गया है।

तिलों द्वारा शिव को एक लाख आहुतियां दी जाए अथवा 100000 तिलो से शिव की पूजा की जाए तो वह बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाली होती है। जौ द्वारा की हुई शिव की पूजा स्वर्गीय सुख की वृद्धि करने वाली है।

 

गेहूं के पकवान से भगवान शंकर जी की पूजा सभी उत्तम फल देने वाली है। यदि उससे लाख बार पूजा हो तो उससे संतान की वृद्धि होती है। यदि मूंग से पूजा की जाए तो भगवान शिव सुख प्रदान करते हैं। प्रियंगु(कंगनी) द्वारा सर्वाध्यक्ष शिव का पूजन करने मात्र से उपासक के धर्म, अर्थ और काम-भोग की वृद्धि होती है। तथा वह सब पूजा समस्त सुखों को देने वाली होती है। अरहर के पत्तों से श्रंगार करके भगवान शिव की पूजा करें। यह पूजा नाना प्रकार के सुखों और फलों को देने वाली है।

 

मुनेश्वरों! अब फूलों की संख्या का तोल बताया जा रहा है। प्रसन्नता पूर्वक सुनो। सूक्ष्म मान का प्रदर्शन करने वाले व्यास जी ने एक प्रस्थ शंखपुष्प को एक लाख बताया है। 11 प्रस्थ चमेली के फूल हो तो वही एक लाख फूलों का मान कहा गया है। जूही के 100000 फूलों का भी वही मान है। राई के 100000 फूलों का साढे पांच प्रस्थ है। उपासक को चाहिए कि वह निष्काम होकर मोक्ष के लिए भगवान शिव की पूजा करें।

 

भक्ति भाव से विधि पूर्वक शिव की पूजा करके भक्तों को पीछे जलधारा समर्पित करनी चाहिए। ज्वर मे जो मनुष्य प्रलाप करने लगता है उसकी शान्ति के लिए जलधारा शुभ कारक बताई गई है। शत रुद्रीय यंत्र से, रुद्री के 11 पाठों से, रुद्र के नाम से, पुरुष सूक्त से, छः ऋचा वाले रूद्र सूक्त से, महामृत्युंजय मंत्र से, श्री गायत्री मंत्र से अथवा शिव के शास्त्रोक्त नामों के आधार पर बने हुए मंत्रों से आदि मे प्रणव व अन्त मे नमः द्वारा शिव की पूजा करनी चाहिए। सुख और संतान की वृद्धि के लिए जलधारा उत्तम बताई गई है। वंश का विस्तार होता है। उत्तम भस्म धारण करके उपासक को नाना प्रकार के शुभ एवं दिव्य द्रव्यों द्वारा पूजा की जाए और सहर्त्रनाम मंत्रों से घी की धारा चढाई जाए। ऐसा करने पर वंश का विस्तार होता है। इसी प्रकार दस हजार मंत्रों से शिवजी की पूजा की जाए तो प्रमेह रोग की शांति होती है और उचित फल की प्राप्ति हो जाती है। यदि कोई को नपुंसकता को प्राप्त हो तो वह घी से शिवजी की भली भांति पूजा करें तथा ब्राह्मणोंको भोजन कराएं। साथ ही उसके लिए प्राजापत्यव्रत का भी विधान किया है। यदि बुद्धि जड़ हो जाए तो उस अवस्था में पूजा केवल शर्करा मिश्रित दूध की धारा बढ़ानी चाहिए। ऐसा करने पर उसे बृहस्पति के समान उत्तम बुद्धि प्राप्त हो जाती है। जब तक 10000 मंत्रों का जप पूरा न हो जाए तब तक दुग्ध धारा द्वारा भगवान शिव का उत्कृष्ट पूजन चालू रखना चाहिए। अपने घर में सदा कलह रहने लगे तब पूर्ण रूप से दूध की धारा चढ़ाने से सारा दुख नष्ट हो जाता है। सुवाषित तेल से पूजा करने पर भोगों की वृद्धि होती है। यदि मधु से पूजा की जाएं तो राजयक्ष्मा रोग दूर हो जाता है। गंगा जल की धारा तो भोग और मोक्ष दोनों फलों को देने वाली है। यह सब जो जो धाराएं बताई गई है इन सब को मृत्युंजय मंत्र से चढ़ाना चाहिए। उसमें भी उक्त मंत्र का विधान है 10000 जप करना चाहिए और 11 ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।

 

अध्याय 15 –

 

सृष्टि का वर्णन

तदनन्तर नारद जी के पूछने पर ब्रह्मा जी बोले-

मुने! हमें पूर्वोक्त आदेश देकर जब महादेव जी अंतर्ध्यान हो गए तब मैं उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए ध्यान मग्न हो कर्तव्य का विचार करने लगा । उस समय भगवान शंकर को नमस्कार करके श्रीहरि से ज्ञान पाकर परमानंद को प्राप्त हो मैने सृष्टि करने का निश्चय किया। तात! भगवान विष्णु भी वहाँ सदाशिव को प्रणाम करके मुझे आवश्यक उपदेश दे तत्काल अदृश्य हो गए। ब्रह्मांड से बाहर जाकर भगवान शिव की कृपा प्राप्त करके बैकुंठ धाम में जा पहुंचे और सदा वहीं रहने लगे। मैंने सृष्टि की इच्छा से भगवान शिव और विष्णु का स्मरण करके पहले के रचे हुए जल में अपनी अंजली डालकर जल को ऊपर की ओर उछाला। इससे वहां एक अंड प्रकट हुआ जो 24 तत्वों का समूह कहा जाता है। वह विराट आकार वाला रूप ही था उसमें चेतन ने देख कर मुझे बड़ा संशय हुआ और मैं अत्यंत कठोर तप करने लगा। 12 वर्षों तक भगवान विष्णु के चिंतन में लगा रहा। वह समय पूर्ण होने पर भगवान श्रीहरि स्वयं प्रकट हुए और बड़े प्रेम से मेरे अंगों का स्पर्श करते हुए मुझसे प्रसन्नता पूर्वक बोले।

 

श्री विष्णु ने कहा-

ब्राह्मण! वर मांगो। मुझे तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है। भगवान शिव की कृपा से सब कुछ देने में समर्थ हूं।

ब्रह्मा बोले अर्थात मैंने कहा महाभाग्य आपने जो मुझ पर कृपा कि वह सर्वथा उचित ही है क्योंकि भगवान शंकर ने मुझे आपके हाथों में सौंप दिया है। प्रभु यह विराट रूप 24 तत्वों से बना हुआ किसी तरह चेतन नहीं हो रहा है। जड़ी भूत दिखाई देता है। वैष्णो! आपको नमस्कार है! आज मैं आपसे जो कुछ मांगता हूं उसे दीजिए।

 

हरे! इस समय भगवान शिव की कृपा से आप यहां प्रकट हुए हैं शंकर की दृष्टि शक्ति या विभूति से प्राप्त हुए हम इस अंड में चेतनता लाइए।

 

मेरे ऐसा कहने पर शिव की आज्ञा मे तत्पर रहने वाले महाविष्णु अनंत रूप का आश्रय ले उस अंड में प्रवेश किया। उस समय उन परम पुरुष के सहस्त्र मस्तक, सहस्त्र नेत्र और सहस्त्र पैर थे। उन्होंने मूमि को सब ओर से घेर कर उस अंड को व्याप्त कर लिया। मेरे द्वारा भली-भांति स्तुति की जाने पर जब श्री विष्णु ने उस अंड में प्रवेश किया, तब हुए 24 तत्वों का विकाररूप अंड सचेतन हो गया। पाताल से लेकर सत्यलोक तक की अवधि वाले उस अंड के रूप में वहां साक्षात श्रीहरि ही विराजने लगे।

रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 11
रुद्र संहिता शिवपुराण अध्याय 11

उस विराट अंड में व्यापक होने से ही प्रभु वह वैराज पुरुष कहला। पंचमुख महादेव ने केवल अपने रहने के लिए स्वयं में कैलाश नगर का निर्माण किया जो सब लोकों से ऊपर सुशोभित होता है। देवर्षे! संपूर्ण ब्रह्मांड का नाश हो जाने पर भी बैकुंठ और कैलाश इन दोनों का यह कभी नाश नहीं होता। मुनी श्रेष्ठ! मैं सत्यलोक का आश्रय लेकर रहता हूं। तात! महादेव जी की आज्ञा से ही मुझ में सृष्टि रचने की इच्छा उत्पन्न हुई है। बेटा! जब मैं सृष्टि की इच्छा से चिंतन करने लगा उस समय पहले मुझसे अनजाने में ही पाप पूर्ण तमोगुण सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ जिसे अविद्या पंचक अथवा पंच परवा अविद्या कहते हैं। तदनन्तर प्रसन्न चित्त होकर शंभू की आज्ञा से मैं पुनः अनासक्त भाव से सृष्टि का चिंतन करने लगा। उस समय मेरे द्वारा स्थावर संज्ञक वृक्ष आदि की सृष्टि हुई जिसे मुख्य सर्ग कहते हैं। यह पहला सर्ग है। उसे देखकर तथा वह अपने लिए पुरुषार्थ का साधन नहीं है यह जानकर सृष्टि की इच्छा वाले मुझे ब्रह्मा से दूसरा सर्ग प्रकट हुआ जो दुख से भरा हुआ है। उसका नाम है तिर्यक्स्त्रोता। वह सर्ग भी पुरुषार्थ का साधक नहीं था। उसे भी पुरुषार्थ साधन की शक्ति से रहित जान जब मैं पुनः सृष्टि का चिंतन करने लगा तब मुझसे शीघ्र ही तीसरे सात्विक सर्ग का प्रादुर्भाव हुआ। जिसे ऊधर्व स्त्रोत कहते हैं। वह देव सर्ग के नाम से विख्यात हुआ। देव सर्ग सत्यवादी तथा अत्यंत सुख दायक है। उसे भी पुरुषार्थ से साधन की रुचि एवं अधिकार से रहित मानकर मैंने अन्य सर्ग के लिए अपने स्वामी श्री शिव का चिंतन आरंभ किया।

तब भगवान शंकर की आज्ञा से एक रजोगुण सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ जिसे अरवाक्स्त्रोता कहा गया। इस सर्ग के प्राणी मनुष्य है जो पुरुषार्थ साधन के उच्च अधिकारी हैं। तदनन्तर महादेव जी की आज्ञा से भूत आदि की सृष्टि हुई। इस प्रकार मैंने 5 तरह की वैकृत सृष्टि का वर्णन किया है। इनके सिवाए 3 प्राकृत सर्ग भी कहे गए हैं। जो मुझ ब्रह्मा के सानिध्य से प्रकृति से ही प्रकट हुए हैं। इनमें पहला महतत्व का सर्ग है। दूसरा सुक्ष्म भूतों का अर्थात तन मात्राओं का सर्ग है। और तीसरा वैकारिक सर्ग कहलाता है। इस तरह यह 3 प्राकृतिक सर्ग हैं। प्राकृत और विकृत दोनों प्रकार के सर्गों को मिलाने से 8 सर्ग होते हैं। इनके सिवा नवाँ कौमार सर्ग है, जो प्राकृत और वैकृत भी है। इन सबके अवांतर भेद का में वर्णन नहीं कर सकता क्योंकि उसका उपयोग बहुत थोड़ा है।

अब द्विजात्मक सर्ग का प्रतिपादन करता हूं। इसी का दूसरा नाम कौमार सर्ग है, जिसमें सनक सनकादिक आदि की महत्वपूर्ण सृष्टि हुई है। सनक आदि मेरे चार मानस पुत्र है जो मुझे ब्रह्मा के ही समान है। यह महान वैराग्य से संपन्न तथा उत्तम व्रत का पालन करते हुए उनका मन सदा भगवान शिव के चिंतन में ही लगा रहता है। यह संसार से विमुख एवं ज्ञानी है। उन्होंने मेरे आदेश देने पर भी सृष्टि के कार्य में मन नहीं लगाया। मुनी श्रेष्ठ नारद! सनत्कुमारों के दिए हुए नकारात्मक उत्तर को सुनकर मैंने बड़ा भयंकर क्रोध प्रकट किया। उस समय मुझ पर मोह छा गया। इस अवसर पर मैंने मन ही मन भगवान विष्णु का स्मरण किया वे शीघ्र ही आ गए और उन्होंने समझाते हुए मुझसे कहा तुम भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए तपस्या करो। मुनी श्रेष्ठ! श्री हरि ने जब मुझे ऐसी शिक्षा दी तब मैं महागौरी उत्कृष्ट तप करने लगा। सृष्टि के लिए तपस्या करते हुए मेरी दोनों भौहें और नासिका के मध्य भाग से जो उनका अपना ही अविमुक्त नामक स्थान है। महेश्वर की तीन मूर्तियों में से अन्यतम पूर्णा सर्वेश्वर एवं दयासागर भगवान शिव अर्धनारीश्वर रूप में प्रकट हुए।

 

जो जन्म से रहित तेज हो, सर्वज्ञ तथा सर्वश्रेष्ठ है, नील लोहित नामधारी साक्षात उमा वल्लभ शंकर को सामने देख बड़ी भक्ति से मस्तक झुका, स्तुति करके मैं बड़ा प्रसन्न हुआ और देवदेवेश्वर से बोला प्रभु आप भारती के जीवन की सृष्टि कीजिए। मेरी यह बात सुनकर देवाधिदेव महेश्वर रूद्र ने अपने ही समान बहुत ही से रुद्रगणों की सृष्टि की। तब मैंने अपने स्वामी महेश्वर महारुद्र से फिर कहा आप जैसे जियो वैसी सृष्टि कीजिए। जो जन्म और मृत्यु के भय से युक्त हो और वे तत्काल हंस पड़े और इस प्रकार बोले। महादेव जी ने कहा कि तात! में जन्म और मृत्यु के भय से युक्त सर्ग की सृष्टि नहीं करूंगा क्योंकि वह कर्मों के अधीन हो दुख के समुद्र में डूबे रहेंगे। मैं तो दुख के सागर में डूबे हुए उन्हें जीवन का उद्धार मात्र करूंगा। गुरु का स्वरूप धारण करके उत्तम ज्ञान प्रदान कर उन सबको संसार सागर से पार कर दूंँगा। प्रजापति! दुख में डूबे हुए सारे जीव की सृष्टि तो तुम ही करो मेरी आज्ञा से इस कार्य में प्रवृत्त होने के कारण तुम्हें माया नहीं बांध सकेगी।

 

मुझसे ऐसा कहकर श्रीमान भगवान नील लोहित महादेव मेरे देखते देखते ही अपने पार्षदों के साथ वहां से तत्काल तिरोहित हो गए।

 

 

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